भूकंप : थरथराती धरती और हम

Last Updated 18 Feb 2021 05:12:36 AM IST

उत्तर भारत और पूर्वोत्तर के इलाके में भूकंप यानी धरती के डोलने-थरथराने का सिलसिला नया नहीं है लेकिन कुछ समय से यह सिलसिला बेहद तेज हो गया है।


भूकंप : थरथराती धरती और हम

पिछले साल मई-जून के महीने में 14 मर्तबा भूकंप के झटकों ने दिल्ली-एनसीआर के साथ ही हरियाणा और पंजाब के बड़े हिस्से को भयाक्रांत किया था। हालांकि  सभी झटकों की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 2.0 से 4.5 तक थी, लेकिन 12 फरवरी की रात 6.3 की तीव्रता वाले भूकंप के झटकों से दिल्ली-एनसीआर समेत समूचा उत्तर भारत कांप उठा। उल्लेखनीय है कि भूकंप के लिहाज से दिल्ली को हमेशा ही संवेदनशील इलाका माना जाता है।
दरअसल, भूकंप ऐसी प्राकृतिक आपदा है जिसे न तो रोक पाना मुमकिन है, और न उसका अचूक पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। वैसे, भूकंप हमारे लिए कोई नई प्राकृतिक परिघटना नहीं है। यह सदियों से मनुष्य को डराती रही है। भूकंप कैसे आता है, धरती क्यों डोल उठती है, इस बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित हैं। प्राचीन सभ्यताओं ने धरती के थरथराने की घटनाओं को तरह-तरह के मिथकों से जोड़कर समझने की कोशिश की है। ज्यादातर का मानना रहा है कि पृथ्वी किसी विशालकाय जंतु जैसे शेषनाग, कछुआ, मछली, हाथी की पीठ पर या फिर किसी देवता के सिर पर टिकी हुई है, और जब कभी वे अपने शरीर को हिलाते हैं, तो धरती डोल उठती है। भारतीय मिथक यह है कि धरती शेषनाग के फन पर स्थित है, और जब भी वह अपना फन सिकोड़ते या फैलाते हैं, तभी धरती थरथरा उठती है। यूनानी दाशर्निक अरस्तू ने जमीन की गहराइयों में बहने वाली हवाओं को भूकंप का कारण माना था जबकि महात्मा गांधी की मान्यता थी कि धरती पर पाप की बहुतायत हो जाती है, तब वह क्रुद्ध होकर डोलने लगती है। दुनिया के और भी कई दाशर्निकों और चिंतकों की भूकंप के बारे में अपनी मान्यताएं होंगी।

जो भी हो, भूकंप इस मिथक का खंडन करता है कि धरती एक स्थिर बनावट है। धरती के बारे में मनुष्य जितना जानता है, भूकंप के कारण वह जानकारी संदिग्ध न हो जाए, इसलिए भी भूकंप के बारे में कोई न कोई कहानी गढ़नी पड़ती है। भू-गर्भशास्त्रियों के मुताबिक, धरती की गहराइयों में स्थित प्लेटों के आपस में टकराने से धरती में कंपन पैदा होता है। इस कंपन या कुदरती हलचल का सिलसिला लगातार चलता रहता है। वैज्ञानिकों ने भूकंप नापने के आधुनिक उपकरणों के जरिए यह भी पता लगा लिया है कि हर साल लगभग पांच लाख भूकंप आते हैं यानी करीब हरेक मिनट में एक भूकंप। इनमें से लगभग एक लाख ऐसे होते हैं, जो धरती के अलग-अलग भागों में महसूस किए जाते हैं। राहत की बात यही है कि ज्यादातर भूकंप हानिरहित होते हैं।  
लेकिन धर्मवीर भारती ने ये पंक्तियां उपर्युक्त कारण से नहीं लिखी होंगी-‘सृजन की थकन भूल जा देवता! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी।’ वे जिस सृजन की बात कर रहे हैं, वह सांस्कृतिक है। भारती का आशय है कि मनुष्य का सांस्कृतिक निर्माण अभी पूरा नहीं हुआ है, इसलिए सृजन का काम जारी रहना चाहिए। इस सृजन को धरती के सृजन से भी जोड़ा जा सकता है। दरअसल, धरती अभी अधबनी है। उसका निर्माण पूरा नहीं हुआ है। वह बनने की प्रक्रिया में है, और यह बनना काफी गहराई तक जाता है, जिस पर पृथ्वी की देह टिकी हुई है। वास्तव में, खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार यह पूरी सृष्टि ही अधबनी है यानी वह भी निर्माण की प्रकिया में है। कुछ लोगों का कहना है कि सृष्टि का विस्तार हो रहा है। यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य, चंद्र, तारे-इनमें से कोई भी स्थिर नहीं है। वे या तो बढ़ रहे हैं, या घट रहे हैं। जिस दिन यह चक्र टूट जाएगा, सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा और कुछ भी पहले की तरह नहीं रह जाएगा। उस दिन पृथ्वी भी नहीं बचेगी। क्या इस सबके पीछे कोई योजना या व्यवस्था है? सैकड़ों वैज्ञानिक इसी प्रश्न से जूझ रहे हैं। जिस पृथ्वी को हम जानते हैं, वह तो वैसे भी बचने वाली नहीं है। कई बार हिम युग आ चुके हैं, जिनमें सब कुछ बर्फ  से ढका था। तब न हमारे पूर्वज थे और न ही कोई जीव-जंतु। कुछ वैज्ञानिकों की मान्यता है कि जिस तेजी से पृथ्वी गरम हो रही है, उससे हिमशिखरों के पिघलने का सिलसिला शुरू हो गया है, उसमें एक समय आएगा कि सारे हिमशिखर पिघल जाएंगे और समुद्र में इतना पानी आ जाएगा कि वह अपने आसपास की बस्तियों या देशों को प्लावित कर देगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि सूर्य का भी एक दिन अंत तय है। वह भी एक बौना तारा बन कर रह जाएगा और ऐसी स्थिति में पृथ्वी पर कहीं भी जीवन का नामो-निशान नहीं बचेगा। जीवन की तरह मृत्यु का भी चक्र है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि सृष्टि की योजना में मानव जीवन या किसी भी प्रकार का जीवन नहीं है यानी वह एक संयोग है जिसके रहस्य का पता अभी तक नहीं चल पाया है।
जीवन भले ही संयोग हो मगर भूकंप कतई संयोग नहीं हैं। पृथ्वी पर जीवन रहे या नहीं रहे पर भूकंप आते रहेंगे और धरती हिलती-डुलती रहेगी। मुमकिन है कि किसी बड़े भूकंप से पृथ्वी छिन्न-भिन्न हो जाए या उसका निजाम उलट-पुलट जाए और आज जहां पहाड़ सीना ताने खड़े हैं, कल वहां महासागर लहराने लगें। सच तो यह भी है कि हम पृथ्वी को समझने में नाकाम रहे हैं, और कभी इसकी संजीदा कोशिश भी नहीं की है। हमारी इस लापरवाही ने ही भूकंप की आमद बढ़ाई है। भूकंप से लोग कीड़े-मकोड़े की तरह मरते हैं। लेकिन वास्तव में सृष्टि के आकार की तुलना में धरती के हम लोग तो कीड़े-मकोड़े भी नहीं हैं। विज्ञान की इतनी उन्नति के बाद भी मनुष्य इसी निष्कर्ष पर पहुंचने को बाध्य है कि उसका जीवन पानी के बुलबुले के समान है। लिहाजा, मौत से डरने का कोई मतलब नहीं है। भूकंप जैसी कुदरती आफत के सामने हम बेहद असहाय हैं, लेकिन मानव मस्तिष्क इतना जरूर कर सकता है कि जब भी ऐसा कोई कहर टूटे तो हमें कम से कम नुकसान हो। इस सिलसिले में हम जापान जैसे देशों से सीख ले सकते हैं, जिनके यहां भूकंप बार-बार अप्रिय अतिथि की तरह आ धमकता है।
भूकंप को लेकर वैज्ञानिक निष्कर्ष जो भी हों, यह तय है कि भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएं हमें याद दिलाने आती हैं कि हम अब तक प्रकृति पर पूरी तरह विजय नहीं पा सके हैं। वैसे भी, प्रकृति को इतनी फुर्सत कहां कि हमारे ज्ञान-भौतिक क्षमता की थाह लेती रहे। दरअसल चाहती क्या है, यह ऐसा रहस्य है जिसका भेद शायद कभी नहीं खुलेगा। खुल भी गया तो मनुष्य के लिए करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं रहेगा क्योंकि हम प्रकृति के नियमों को जानकर उनका आनंद ही उठा सकते हैं, प्रकृति के निजाम में कोई बड़ा दखल नहीं दे सकते।

अनिल जैन


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