महंगाई : धराशायी होता जनमानस!

Last Updated 18 Feb 2021 05:09:13 AM IST

आत्मनिर्भर भारत भी आ गया और लोकप्रिय सरकार भी है। बावजूद इसके जनमानस का रक्तचाप क्यों बढ़ा है?


महंगाई : धराशायी होता जनमानस!

यह सवाल जितनी संजीदगी से उठा है, उतनी ही संवेदना के साथ इसका जवाब भी हो तो ठीक रहेगा। जीवन के कोर में जब महंगाई डंक मारती है, तो जनता चौतरफा चोटिल हो जाती है। एक तरफ सेंसेक्स आसमान छू रहा है, तो दूसरी ओर महंगाई से जनमानस जमींदोज हो रहा है। हालांकि महंगाई आती और जाती रहती है, मगर एक सीमा तक जनता महंगाई को झेल लेती है। स्थिति तब अधिक बिगड़ जाती है, जब वस्तु विशेष की दोबारा खरीदारी करते समय कुछ ही दिनों में तुलनात्मक बढ़ी हुई कीमत देनी पड़ती है। देश की सरकार हो या नीति- नियोजक या फिर कोई निकाय ही क्यों न हो, इस बात पर जरूर ध्यान देना चाहिए कि गरीब और गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों के लिए महंगाई अस्तित्व के लिए ही खतरा बन जाती है।
कच्चे तेल की कीमत जब कम होती है, तब भी राहत नहीं मिलती। उसका बड़ा कारण केंद्र सरकार द्वारा भारी भरकम एक्साइज डय़ूटी और राज्यों द्वारा वैट लगाकर अपनी-अपनी तिजोरियां भरा जाना है। आम आदमी डीजल और पेट्रोल की बढ़ी कीमत से खासा दिमाग पर बल डालता है। डीजल की बढ़ी कीमत लगभग पेट्रोल के इर्द-गिर्द होना अपने आप में अप्रत्याशित है, और इससे महंगाई का बढ़ना लाजिमी है। रसोई गैस भी आसमान छू रही है। पहले कमाई खतरे में और अब खानपान भी महंगा होना दोहरी मार है। खास बात यह भी है कि देश में महंगाई को लेकर जनमानस पेट के बल तो है पर इस भरोसे के चलते कि एक दिन सरकार इससे मुक्ति दिला देगी, यह उसका संयम ही है। ऐसा नहीं है कि कच्चे तेल की कीमत बढ़ने से ही पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ते हैं। ये तो सरकार की नीति और नीयत से भी तय होते हैं।

गौरतलब है कि कोरोना के समय में जब कच्चा तेल अपने न्यूनतम स्तर 18 डॉलर प्रति बैरल पर था तब सरकार ने पेट्रोल पर 10 रुपये और डीजल पर 13 रुपये एक्साइज डय़ूटी लगा कर इसके सस्ते होने की गुंजाइश को 5 मई, 2020 को खत्म कर दिया था। फिलहाल, यह 55 रुपये प्रति बैरल है। पड़ताल बताती है कि 2014 में जब कच्चे तेल के दाम गिरने लगे तब यह सोच विकसित हो गई थी कि तेल कंपनियां इसका मुनाफा जनता को देंगी पर ऐसा नहीं हुआ। हकीकत तो यह है कि कच्चे तेल की कीमत गिरती रही और सरकार डय़ूटी बढ़ाती रही। गौरतलब है कि 150 रुपये प्रति बैरल से ऊपर भी तेल की कीमतें गई हैं। फिर भी तेल इतना महंगा कभी नहीं रहा। यह कहना गैर-वाजिब नहीं होगा कि सरकार को भी अपनी अर्थ नीति का माप-तौल ठीक से करना चाहिए ताकि लोकप्रिय सरकार होने का जज्बा  बरकरार रहे। ऐसा इसलिए भी कि जिस तपती धूप में अपना वोट देकर जनता उसे सत्तासीन करती है, उसकी भी ताकत महंगाई से छिन्न-भिन्न न हो।
गौरतलब है कि कोविड-19 के चलते अर्थव्यवस्था बेपटरी है। हालांकि दिसम्बर, 2020 में एक लाख 15 हजार करोड़ रुपये से अधिक जीएसटी की वसूली और जनवरी, 2021 में एक लाख 20 हजार करोड़ रुपये से अधिक जीएसटी का कोष में जमा होना आर्थिक सुशासन के लिए बेहतरीन संकेत है जबकि अप्रैल, 2020 में यह आंकड़ा सिमट कर 26 हजार करोड़ रुपये तक चला गया था। वैसे सरकारें दावा करती हैं कि लोक कल्याण को ध्यान में रखकर बड़े राजस्व की ओर उनका झुकाव लाजिमी है। इन दिनों डीजल और पेट्रोल सरकार का कोष भरने का काम कर रहे हैं। ऐसे में यह कमाई का अच्छा जरिया है तो फिर उन्हें महंगाई क्यों लगेगी।
गौरतलब है कि एक लीटर पेट्रोल की कीमत यदि एक रुपये कम कर दी जाए तो सरकार के खजाने में 13 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होना तय है। सरकारें जानती हैं कि यह कमाई का सुलभ और आसान रास्ता है। भले ही जनता का इससे रक्तचाप ही क्यों न बढ़े। फिलहाल, सबसे ज्यादा बार और एक साथ ज्यादा एक्साइज डय़ूटी लगाने वाली मौजूदा सरकार यदि जनहित में कोई बड़ा कदम उठाना चाहती है,  तो वर्तमान में लोगों की रसोई और उसके अस्तित्व के लिए संघर्ष पर गौर करना चाहिए।

सुशील कु. सिंह


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