श्रीलंका में संवैधानिक संकट
श्रीलंका में जारी संवैधानिक संकट किस करवट बैठेगा, यह कहना तो मुश्किल है, लेकिन भारत के लिए निश्चित ही चिंता का विषय है।
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नेपाल, मालदीव और श्रीलंका की घटनाओं ने स्पष्ट कर दिया है कि नई दिल्ली को पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते की नये सिरे से समीक्षा करने की जरूरत है।
हालांकि भारत ने श्रीलंका के संवैधानिक तख्तापलट पर संतुलित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि हम अपने घनिष्ठ पड़ोसी और लोकतांत्रिक देश श्रीलंका की राजनीतिक गतिविधियों पर नजर रखे हुए हैं, और उम्मीद है कि वहां लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक प्रक्रियाओं का सम्मान किया जाएगा, लेकिन दूसरी ओर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने नवनियुक्त प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को बधाई देकर राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना की अलोकतांत्रिक कार्रवाई को वैधानिकता देने की कोशिश की है। सिरीसेना और राजपक्षे, दोनों चीन समर्थक माने जाते हैं, और यही वजह है कि चीनी राष्ट्रपति ने उनको समर्थन देने में देर नहीं की।
महिंदा राजपक्षे दो हजार चौदह में श्रीलंका के राष्ट्रपति थे। उस दौरान उन्होंने चीन को अपने देश में निवेश करने के लिए पूरी तरह से छूट दे रखी थी। हालांकि श्रीलंका अब इसका खमियाजा भी भुगत रहा है। श्रीलंका में भारत की भी अनेक ढांचागत और आवासीय परियोजनाएं चल रही हैं।
दरअसल, चीन दक्षिण एशियाई देशों में जरूरत से ज्यादा सक्रिय है, और उसकी सक्रियता भारत के लिए चिंता की बात है। चीन का मुकाबला करने के लिए भारत महसूस करता है कि उसके पड़ोसी देशों में मजबूत लोकतांत्रिक संस्थाएं हों। इसलिए नई दिल्ली श्रीलंका के संवैधानिक संकट के मद्देनजर लोकतांत्रिक मान्यताओं का सम्मान करने की बात कह रहा है। गौरतलब है कि पिछले शुक्रवार को राष्ट्रपति सिरीसेना ने रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया था।
उनके फैसले की वहां के संविधान विशेषज्ञ, राजनीतिक नेता और मीडिया जमकर आलोचना कर रहे हैं। सिरीसेना ने विक्रमसिंघे को संसद में बहुमत साबित करने का मौका भी नहीं दिया जो पूरी तरह से गैर-लोकतांत्रिक है। हालांकि संसद के स्पीकर कारु जयसूर्या ने सिरीसेना के फैसले को खारिज करते हुए विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री के रूप में मान्यता दे दी है। अब सिरीसेना क्या जवाबी कार्रवाई करते हैं, देखा जाना है।
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