सामयिक : मरने का अधिकार

Last Updated 10 Mar 2018 05:50:35 AM IST

सर्वोच्च न्यायालय ने आज नौ मार्च दो हज़ार अठारह को एक प्रगतिशील ऐतिहासिक निर्णय में असाध्य रोग से ग्रस्त व्यक्ति को इच्छामृत्यु का कानूनी अधिकार प्रदान कर दिया.


सामयिक : मरने का अधिकार

संविधानपीठ ने स्थापित कर दिया कि सम्मान से जीने के अधिकार के साथ ही गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार भी मानवीय अधिकार है. इसके निहितार्थों पर अभी बहसें होंगी. लेकिन अपनी सीमाओं के बावजूद यह निर्णय का स्वागतयोग्य है. जिन असाध्य बीमारियों में सुधार की कोई संभावना नहीं रहती, मृत्यु निश्चित रहती है लेकिन असह्य कष्ट झेलना पड़ता है, जिनमें लम्बे समय तक केवल जीवन-रक्षक प्राणियों द्वारा सांस चलाये रखी जाती है, उनमें मरीज़ की वसीयत के आधार पर या उसके परिजनों या मित्रों के आवेदन पर हाईकोर्ट चिकित्सकों का एक दल नियुक्त करेगा; वही दल इच्छामृत्यु के आवेदन पर फैसला लेगा और उसी की निगरानी में जीवन-रक्षक प्रणाली हटाकर स्वाभाविक मृत्यु को आने दिया जायगा.

इच्छामृत्यु दो तरह की है-मृत्युवरण (यूथनेसिया) और दयामरण (मर्सी किलिंग). यह निर्णय सभी स्थितियों में लागू नहीं होगा. फिर भी यह निर्णय महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अभी इंग्लैण्ड तक में यह अधिकार विवादों के घेरे में है. नीदरलैंड, बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड, हॉलैंड जैसे कुछ देशों में और अमेरिका के कुछ राज्यों में ही इसे कानूनी दर्जा प्राप्त है. इस दृष्टि से भारत अधिक सभ्य और मानवीय दिशा में अग्रसर हुआ है. यहां यह स्पष्ट कर लेना उपयुक्त है कि मृत्युवरण और दयामरण की तरह सक्रिय इच्छामृत्यु और निष्क्रिय इच्छामृत्यु में भी अंतर है. सर्वोच्च न्यायालय ने केवल निष्क्रिय इच्छामृत्यु को अनुमति दी है.

लगभग ढाई दशक पहले जब क्रांतिकारी माकपा नेता बी.टी. रणदिवे रक्त-कैंसर की असहनीय पीड़ा झेलते हुए मुंबई के अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे तब उन्होंने इच्छामृत्यु की मांग की थी. यह अनुमति उन्हें नहीं मिली. यदि उस समय कानून यह अनुमति देता तो यह सक्रिय इच्छामृत्यु होती क्योंकि असाध्य रोग से मुक्ति और असहनीय कष्ट के निवारण के लिए मरीज़ की मांग पर चिकित्सक उन्हें मृत्यु की दवा देते. इसे दयामरण भी कहा जाता है. दूसरी तरफ, लगभग तीस साल पहले बलात्कार की शिकार बनाई गई मुंबई की नर्स अरु णा शौनबाग़्ा की इच्छामृत्यु को 2014 में अदालत से अनुमति तो नहीं मिली, लेकिन उसकी स्थिति रणदिवे से अलग थी. अरुणा सत्ताईस वर्षो से अचेत, जीवन-रक्षक प्रणालियों पर ही थी. उसे नहीं पता था कि वह जीवित है या नहीं, उसे कोई कष्ट है या नहीं. यदि उसे इच्छामृत्यु की अनुमति मिलती तो वह निष्क्रिय इच्छामृत्यु होती क्योंकि उसे किसी दवा की आवश्यकता नहीं थी, केवल जीवन-रक्षक प्रणाली हटाने की आवश्यकता थी. तब अदालत ने इसकी भी अनुमति नहीं दी थी. हालांकि 2015 में उसे यह अधिकार मिल गया और उसे अपने कष्ट से तथा कष्ट देनेवाले संसार से मुक्ति मिल गई.
हैदराबाद के एक पूर्व शतरंज खिलाड़ी वेंकटेश ने सन 2004 में अपनी मृत्यु से पहले अपनी मां के माध्यम से आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट में अपील की थी कि उसे स्वेच्छापूर्वक मृत्यु का वरण करने दिया जाय ताकि उसके शरीर के उपयोगी अंग ज़रूरतमंद लोगों के काम आ सकें. उसे मांसपेशियों के क्षरण की बीमारी हो गयी थी (मस्कुलर डायस्ट्रोफी) जिसका इलाज नहीं था और सभी अंगों का तेज़ी से क्षय हो रहा था. उसने और उसकी मां ने साल भर पहले अंग दान किया था. वह चाहता था कि अंग दान की अंतिम इच्छा पूरी कर सके, लेकिन मृत्यु के बाद केवल आंखें दान की जा सकीं. गुर्दा और अन्य अंग व्यर्थ हो गए थे. उसे इच्छामृत्यु की अनुमति नहीं मिली क्योंकि उसे आत्महत्या के सामान माना जाता था और यह कानूनी अपराध था. साथ ही, मानव-अंग प्रत्यारोपण कानून के अनुसार तब तक केवल उसी व्यक्ति के अंग निकले जा सकते थे, जिसका मस्तिष्क किसी करण से मृत हो गया हो. अन्यथा उसे चिकित्साशास्त्रीय दृष्टि से मृत नहीं माना जा सकता और जीवित व्यक्ति के अंगों को निकलना भी अपराध है. इस तरह इच्छामृत्यु के प्रसंग में अनेक विषय उलझे हुए हैं, जिनके दायरे में नैतिक और कानूनी, सामाजिक और चिकित्साशास्त्रीय, जीववैज्ञानिक और मानवाधिकार सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोण आते हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इच्छामृत्यु को आत्महत्या से अलग करके जीने के अधिकार से जोड़ा और कहा कि सम्मान से जीने में गरिमा के साथ मरना भी शामिल है.
यह सर्वथा उचित है. कारण यह कि इच्छामृत्यु और आत्महत्या दो अलग चीजें हैं. यदि उसे आत्महत्या के समकक्ष भी मानें तो यह विचार करना ज़रूरी होगा कि कोई व्यक्ति जीवन के अंत का निर्णय चरम हताशा या निराशा की स्थितियों में लेता है. इच्छामृत्यु में उस हताशा का स्रोत व्यक्ति के भीतर होता है, जैसे असहनीय पीड़ा जिसका जीते-जी कोई समाधान नहीं है लेकिन अपने निर्णय को लागू करने के लिए उसे दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है; आत्महत्या जीवन की जिस चरम हताशा की अभिव्यक्ति है, उसके स्रोत व्यक्ति के बाहर होते हैं, लेकिन अपने निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए उसे दूसरों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. होने को आत्महत्या और इच्छामृत्यु दोनों ही ‘मृत्यु का वरण’ हैं, लेकिन इच्छामृत्यु किसी शारीरिक कष्ट के असह्य हो जाने का परिणाम है जिस कष्ट में उसे जीवित रखना-उसकी सहनशक्ति और इच्छा के विपरीत, बेहोशी की दवाओं के सहारे, केवल सांस चलाते रहना-एक प्रकार की क्रूरता है. अदालत ने कम-से-कम कुछ मामलों में मरीजों के इस मानवीय हक को मान्यता दी.
जिस ‘लिविंग विल’ को कानूनी मान्यता मिली है, वह मजिस्ट्रेट के सामने लिखी हुई वसीयत है. यदि मरीज़ ने खुद ऐसी वसीयत नहीं लिखी है तो उसकी असाध्य दशा में उसके निकट सम्बन्धी या मित्र लिखित आवेदन कर सकते हैं, जिसकी जांच करके उच्च न्यायालय एक चिकित्सक दल नियुक्त करेगा, उस दल के सुझाव पर और उसकी देखरेख में कार्रवाई संपन्न होगी. बेशक यह निष्क्रिय इच्छामृत्यु की मान्यता है, क्योंकि ऐसे में खुद मरीज़ अपनी मृत्यु नहीं चुनता बल्कि उसकी जीवन-रक्षक प्रणालियों को हटा दिया जाता है ताकि वह जीवित रहकर जो असहनीय कष्ट पा रहा है, उससे मुक्त हो सके. फिर भी यह एक कदम आगे की स्थिति है.

डॉ. अजय तिवारी


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