शिवसेना-भाजपा नुकसान दोनों को
तलाक तलाक तलाक. यह कहकर भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना ने भाजपा को तलाक दे दिया. यूं तो भाजपा के बहुत से सहयोगी दल रहे हैं, जिनके साथ उसका गठजोड़ होता है. मगर भाजपा और शिवसेना का नाता खास है. दोनों कहते थे कि दोनों का गठबंधन चुनावी नहीं वैचारिक है क्योंकि दोनों की विचारधारा हिन्दुत्व ही है. दोनों की यह वैचारिक एकता ने दोनों को साथ भले ही रखा हो मगर यह रिश्ता मनमुटाव और प्रतिस्पर्धा का भी था.
![]() शिवसेना और भाजपा दोनों को नुकसान |
मनमुटाव इतना बढ़ गया कि आखिरकार गठबंधन टूट गया. मगर शिवसेना ने यह तलाक बहुत अजीब तरीके से दिया. उसने कहा वह 2019 में लोकसभा और बाद के विधान सभा चुनाव भाजपा के साथ नहीं लड़ेगी, मगर जिस भाजपा से वह इतनी नफरत करती है अभी उसके नेतृत्व में राज्य और केंद्र में सरकार में बनी रहेगी. उन्हें छोड़ने का साहस नहीं कर पा रही है. इसलिए राजनीतिक पर्यवेक्षक कह रहे हैं कि शिवसेना का यह तलाक धमकी ज्यादा है. धमकी के जरिये वह अपनी सौदेबाजी की ताकत बढ़ाना चहती है. सरकार में बने रहना इसका संकेत है.
सवाल उठता है कि आखिरकार भाजपा और शिवसेना के बीच झगड़े की वजह क्या है? और इसके लिए जिम्मेदार कौन है? कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि शिवसेना महाराष्ट्र में भाजपा को हमेशा दूसरे दर्जे पर ही रखना चाहती थी. पिछले कुछ वर्षो में यह ख्वाब टूट जाने के कारण ही शिवसेना और भाजपा के संबंध बिगड़े और अब शिवसेना ने भाजपा से गठबंधन तोड़ने का फैसला किया. तीन दशक पहले रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान शिवसेना-भाजपा ने हिन्दुत्व के मुद्दे पर गठबंधन किया था. चूंकि भाजपा राष्ट्रीय पार्टी थी, इसलिए लोक सभा चुनाव में भाजपा को ज्यादा सीटें देने और क्षेत्रीय दल होने के कारण विधान सभा चुनाव में शिवसेना को ज्यादा सीटें दिए जाने का फैसला हुआ था.
शिवसेना राज्य की राजनीति में भाजपा को हमेशा छोटे भाई जैसा बर्ताव करती रही. शिवसेना को यह डर सताता रहा कि बराबरी की सीटों पर लड़कर भाजपा ज्यादा सीटें लाएगी और मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा करेगी. इसलिए गठबंधन टूट गया. शिवसेना ने महाराष्ट्र में लोक सभा और विधान सभा चुनाव अकेले लड़ने के फैसले के लिए बीजेपी को जिम्मेदार ठहराया है. शिवसेना का कहना है कि बीजेपी सहयोगी दलों को महत्त्व नहीं दे रही है इसलिए अब पार्टी ने अपनी भविष्य की रणनीति तय कर ली है. शिवसेना भाजपा पर कोई भी आरोप लगाए मगर भाजपा उसे खतरा नहीं मानती. भाजपा को लंबे समय से अंदेशा था कि ऐसा हो सकता है क्योंकि शिवसेना सरकार में शामिल होने के बावजूद विपक्ष की तरह बर्ताव कर रही थी. वह केंद्र और राज्य सरकार पर लगातार छींटाकसी करती रहती थी. पिछले कुछ समय से राहुल गांधी की भी तारीफ करने लगी थी. शिवसेना को विपक्षी एकता में शामिल करने के लिए ममता उद्धव से मिली थी. भाजपा को यह भी लगता है कि शिवसेना अपनी सौदेबाजी की क्षमता बढाने के लिए यह सब कर रही है. दरअसल, शिवसेना भाजपा दोनों ही हिन्दुत्ववादी दल है इसलिए वे साथ-साथ हैं, मगर उनमें कड़ी प्रतिस्पर्धा अपना प्रभाव बढ़ाने की है और पिछले कुछ समय में भाजपा का प्रभाव तेजी से बढ़ा है. ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि शिवसेना का हिन्दुत्व भावनात्मक ज्यादा और बौद्धिक कम है.
संघ के पूर्व सरसंघचालक केएस सुदर्शन ने कहा था 'शिवसेना का हिन्दुत्व भावनात्मक धरातल पर है. वैचारिक अधिष्ठान के क्षेत्र में उसने विशेष कुछ नहीं किया. दरअसल, शिवसेना ने हिन्दुत्व के भावनात्मक मुद्दे भले ही उठाए हो मगर उसे फैलाने की सुनियोजित कोशिश नहीं की. संघ और भाजपा ने ऐसी कोशिश की जिसका लाभ उन्हें मिल रहा है. शिवसेना उसके साथ लंबे समय तक प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएगी. वैसे शिवसेना का मुद्दा केवल हिन्दुत्व ही नहीं है. वरन उसके दो मुद्दे हैं. हिन्दुत्व और मराठी मानुस; किंतु राज ठाकरे की राजनीतिक दुर्गति से स्पष्ट हो गया कि अब मराठी मानुस के मसले की वैसी अपील नहीं रही. इस घटनाक्रम से कांग्रेस काफी खुश है. उसने शिवसेना के जले पर नमक छिड़कते हुए अपील की है कि वह सरकार भी छोड़े.
शिवसेना ने सरकार में बने रहने का फैसला इसलिए किया है क्योंकि उसे डर यह है कि अगर उसने सरकार छोड़ी तो उसके बहुत से विधायक साथ छोड़कर भाजपा में जा सकते हैं. लेकिन यह सही है कि शिवसेना की घोषणा से राज्य में राजनीतिक अनिश्चितता आ गई है. सबकी निगाहें अब शरद पवार की एनसीपी पर टिक गई हैं. पवार की मोदी से बहुत घनिष्ठता है. शिवसेना यदि सरकार भी छोड़ती है तो पवार सरकार को अपने समर्थन से बचा सकते हैं. भाजपा को एनसीपी के संभावित समर्थन के कारण शिवसेना सौदेबाजी नहीं कर पाई. एनसीपी और भाजपा के इस रिश्ते से उसके सीने पर सांप जरूर लोटते रहे. लेकिन भाजपा को अगला चुनाव एनसीपी के साथ लडना पड़ सकता है. यह स्थिति भाजपा के लिए बेहद शर्मनाक होगी. एनसीपी के कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं. मोदी ने अपने चुनाव अभियान में उसे 'नेचुरल पार्टी आफ करप्शन' कहा था. चुनाव में यदि भाजपा को अकेले नहीं लड़ना है तो उसे एनसीपी के साथ गठबंधन करना होगा. अब अगर एनसीपी के साथ चुनाव लड़ना है तो उसके मंत्रियों के भ्रष्टाचार के मामलों से बरी करना होगा, जिससे भाजपा की छीछालेदार होगी.
वैसे शिवसेना के इस फैसले से भाजपा और शिवसेना दोनों को ही नुकसान होगा. भाजपा अपने बूते बहुमत नहीं ला सकती क्योंकि हिन्दू वोट भाजपा और शिवसेना में बंटेगा. मोदी लहर के कारण वह इतनी जीत हासिल कर पाई और आगे भी संभव नहीं होगा. पिछले चुनावों जैसी सफलता नहीं मिल पाएगी. दूसरे शिवसेना भी एक ताकत के रूप में उभरी है. मगर यदि शिवसेना अपने बूते विधान सभा चुनाव लडेगी तो मुंह के बल गिरेगी क्योंकि विदर्भ और पश्चिम महाकाष्ट्र में उसका प्रभाव है ही नहीं.इसलिए 150 सीटें लाने की सोचना 'मुंगेरी लाल के हसीन सपने' देखना होगा. इसलिए भाजपा और शिवसेना के बारे में कहा जाता है कि दोनों एक दूसरे के पूरक है. कहावत है न मुझे और नहीं तुम्हें ठौर नहीं. इसलिए पिछली बार की तरह दोनों को फिर साथ आना होगा.
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