मीडिया : घृणा की कथाएं

Last Updated 10 Dec 2017 05:13:51 AM IST

एक आदमी किसी को किसी हथियार से मार रहा है फिर वह अपनी इस वीरता को जताने के लिए कैमरे के सामने सीना तानकर आता है.


मीडिया : घृणा की कथाएं

कुछ बोलता है और फिर पलटकर उस आदमी को मारने लगता है जिसे मार रहा था! उसकी मूछें हैं. घुंघराले बाल हैं. लाल शर्ट और सफेद पैंट पहने हैं और पूरे माथे पर पीला सिंदूर भी लगा है. खबर की कई परते हैं. एक परत कहती है :
-कि उसने पहले लव जिहाद को लेकर एक घृणापूर्ण भाषण दिया फिर मारा और जलाया!
-कि मारे गए अफराजुल के किसी दोस्त के संग कभी कोई हिंदू लड़की भागी थी या भगाई गई थी. इस हत्यारे को इस कथित ‘लव जिहाद’ का गहरा रंज था! उसके अन्य वीडियो बताते हैं कि वह एक ‘कट्टर हिंदू’ था और उसी तरह वह गैर हिंदुओं खासकर मुसलमानों के बारे में सोचा करता था.
-वो सोचता था कि इस्लाम के दबाव में इतिहास बदला जा रहा है. वो पद्मावती और पीके को भी इसी तरह के ‘लव जिहाद’ का हिस्सा मानता था.
सच कुछ भी हो सकता है. जिस तरह की ‘हेट स्टोरीज’, जिस तरह के आंदेालन जिस तरह की ‘हेट स्पीचों’से भरी भाषा कुछ बयानों में और खबरों में और चरचाओं नजर आती है. उस तरह की घटनाओं और खबरों को देख-सुन समाज में ऐसे स्वत: स्फूर्त ‘विजिलांते तत्व’ यानी ‘रखवाले’ पैदा हो जाए;जो अब तक नहीं दिखते थे. हैं तो कोई अचरज नहीं. एक तरह की कट्टरता दूसरी तरह की कट्टरता को बढ़ाती है. एक प्रकार की धर्मान्धता दूसरे तरह की धर्मान्धता को बढ़ाती है. और एक बार धर्मान्ध हुए आदमी की अक्ल भी अंधी हो जाती है. वह समझने लगता है कि अकेला वही है, जो अपने धर्म या मजहब की रक्षा कर सकता है.

यह आदमी इसी धर्मान्ध हीरोइक्स से निकला है. क़ोई नहीं जानता कि ‘लव जिहाद’ की किसी कहानी ने उसे ऐसा दुष्कांड करने के लिए सीधे प्रेरित किया. यह भी नहीं कहा जा सकता कि किसी ने उसे उकसाया कि ऐसा कर! लेकिन माहौल में कुछ तो रहा जिसने उसका दिमाग एकदम फेर दिया. यह वही अंध घृणा से सिंचित माहौल है, जो पिछले बरसों में बनता चला गया है. यह हत्यारा इसी की उपज है. आज जिस तरह की घृणा की भाषा हर रोज हमारे आसपास बनती रहती है, जिस तरह की हत्यारी भावनाएं हर ओर किसी न किसी को ललकारती नजर आती हैं. जिस तरह किसी झूठी शान के लिए लोग तलवारें लहराकर स्टूडियोज में धमकियां देते रहते हैं और कोई उनका कुछ ही बिगाड़ पाता, जिस तरह ‘काट दो’ ‘मार दो’ ‘जला दो’ जैसे शब्द हमारे दैनिक शब्दकोश में डाले जा रहे हैं, और जिनको जो ‘शटअप’ कर सकते हैं वे स्वयं चुप्पी साध जाते दिखते हैं. ऐसे में अंध घृणा की जमीन ही तैयार होती है. जिस तरह से अचानक तरह-तरह की ‘लिंच मॉब्स’ का वर्चस्व बढ़ा है, किसी को टोपी पहने देख मारने-पीटने का उनको लाइसेंस मिला है और जिस तरह उनको देख सत्ता चुप्पी मार जाती है उससे‘लिंच मॉब मेंटलिटी’ वालों की हिम्मत बढ़ जाती है.
ऐसे लोगों को लगता है कि अगर हम इस चल रहे अघोषित धर्म युद्ध में अपना धर्म अपनी नस्ल नहीं बचाते तो हमारी खैर नहीं. कल्पित डर बढ़ाता है. हम सब एक दूूसरे से डरे हुए समाज में रहते हैं. यह फील होता है. यह कहंीं लिखा नहीं हैं, लेकिन महसूस होता है ऐसे वीडियो जब-जब दिखते हैं, वे दो तरह के असर डालते हैं. एक असर वह होता है, जो इनकी ‘आलोचना’ से पैदा होता है. मीडिया ऐसे कृत्यों की निंदा करता है. विचारक निंदा करते हैं तो हमें लगता है कि ये सब निंदनीय कृत्य था और सब समझ गए होंगे कि ऐसा नहीं करना चाहिए.
ऐसे हत्यारे सीन उदारमना लोगों के मन में वितृष्णा पैदा करने वाले होते हैं तो किसी अंधे दिमाग को वहशी भी बनाते होंगे. टीवी जो दिखाता है, उसके अर्थ पर उसका कोई कंट्रोल नहीं होता! हर दर्शक अपना-अपना अर्थ बनाता है. इन दिनों गुस्सा बदला, इंतकाम आदि हिंसक शब्द बड़े वेल्यूएबल नजर आते हैं. वे ही बड़ी खबर बनाते हैं, जो घृणा को बदले को कार्रवाई में बदलते हैं. एक खास तरह का ‘जिहाद’ यहीं से शुरू होता है, और अनकहे तरीके से इन दिनों यही चल रहा है. ऐसे में मीडिया क्या करे. न दिखाए तो कहा जाएगा कि छिपा रहा है, और दिखाता है, तो कहेंगे कि उकसा रहा है. ऐसे सीनों को कैसे दिखाया जाए कि किसी के लिए प्रेरक न बनें?  मीडिया को सोचना होगा. ऐसी खबरों को किस तरह दिखाए कि ऐसी घटनाएं किसी के लिए अनुकरणीय न हो पाएं. यह मीडिया को देखना होगा.

सुधीश पचौरी


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