प्रसंगवश : खेती-किसानी की मुश्किलें

Last Updated 10 Dec 2017 05:08:56 AM IST

‘भारत गांवों का देश है’ इस प्रसिद्धि के बावजूद शहर और गांव का द्वंद्व भारतीय समाज की अनोखी पहेली का रूप लेता जा रहा है.


प्रसंगवश : खेती-किसानी की मुश्किलें

वैश्विकरण और निजीकरण के दौर की शुरुआत के साथ नब्बे के दशक से भारत में जो सामाजिक-आर्थिक बदलाव आया उसमें गांव शहरों के मुकाबले तेजी से पिछड़ते गए. छोटी-मोटी गृहस्थी चलाने के लिए कम से कम एक हेक्टेयर खेत की जरूरत होती है. पर कई कारणों के चलते खेत का आकार घटता गया. आज एक हेक्टेयर से कम जोत वाले कृषक ही ज्यादा हैं. उनकी संख्या 82.8 प्रतिशत हो गई है. ऐसे ही कुल कृषि योग्य भूमि का आधा भाग ही सिंचित हो पाता है.
किसान को फसल की उचित कीमत भी नहीं मिलती. सरकार दाम नहीं बढ़ाना चाहती ताकि महंगाई पर रोक रहे. फलस्वरूप आधे किसान कर्जदार हैं. एक अनुमान के मुताबिक प्रति किसान पर औसतन सैतालिस हजार रुपये का कर्ज बैठता है. किसान बदहाली झेल रहे हैं, और किसानों की आत्महत्या का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अभी भी नहीं थमा है. खेती और किसान परिवार,  दोनों नष्ट हो रहे हैं.

पिछली गर्मिंयों में अच्छी फसल के अच्छे मूल्य के लिए किसान आंदोलन कर रहे थे. एमएस स्वामीनाथन रपट की संस्तुति के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू करने की मांग कर रहे थे. विभिन्न क्षेत्रों में किसान अलग-अलग जिंसों की अच्छी कीमत चाह रहे थे. हिमाचल में टमाटर तो गुजरात में मूंगफली, तेलंगाना में मिर्च तो मध्य प्रदेश में सोयाबीन को लेकर किसान आंदोलन चल रहा था. जून के महीने में महाराष्ट्र के किसानों ने हड़ताल की थी, और उनने मुंबई की ओर कूच किया. तब सरकार ने 30,000 करोड़ रुपये की कर्जमाफी का ऐलान किया था. विरोध की लहर मध्य प्रदेश तक पहुंची. मंदसौर में आंदोलन के दौरान पांच किसानों की पुलिस की गोली लगने से मृत्यु हो गई. उत्तर प्रदेश में भी कर्जमाफी की गई. पिछले महीने किसान संसद दिल्ली में मिली थी. 180 किसान संगठनों के 40,000 किसान मिले और अखिल भारतीय किसान संघर्ष संयोजन समिति बनाई. इस सप्ताह पूर्व प्रशासनिक अधिकारी और भारत के भूतपूर्व वित्त मंत्री रह चुके यशवंत सिन्हा ने महाराष्ट्र के पश्चिमी विदर्भ के अकोला नगर में किसानों की मांग के समर्थन में मोर्चा खोल दिया. जनभावना के पक्ष में प्रतिरोध की उनकी पहल निश्चय ही काबिले-तारीफ है. विदर्भ के इन किसानों की मांगें थीं कि कपास उत्पादन करने वाले किसानों को बोंड इल्लियों के हमले से हुए नुकसान की भरपाई हो,  बोगस या फर्जी बीटी बीज बेच कर किसानों को  ठगने वाली कंपनियों को दंडित किया जाए, कर्जमाफी के लिए बैंक कर्मी और प्रशासनिक अधिकारी ग्राम पंचायत में पहुंच कर काम करें, मूंग, उड़द और सोयाबीन की खेती करने वाले किसानों की फसल नष्ट होने पर शत-प्रतिशत भरपाई हो, खेती के पंप को अनवरत बिजली मिले, सोना गिरवी रखने की छूट की योजना की अनुचित दशाओं को दूर किया जाए और पूरे खाद्य उत्पाद की नाफेड द्वारा खरीदी की जाए. अकोला में लगातार 72 घंटे के धरने के आगे सरकार को झुकना पड़ा. किसानों की मांगें मान ली गई. सिन्हा ने किसानों से अपील की कि वे वचन दें कि आगे खुदकुशी की राह नहीं अपनाएंगे. इस मौके पर गांधी जी के पौत्र तुषार गांधी ने कहा कि किसानों का यह आंदोलन गांधी जी के ‘चम्पारण आंदोलन’ की याद दिलाता है.
यह संयोग ही है कि इस वर्ष किसानों के लिए महात्मा गांधी द्वारा निलहे अंग्रेजों के खिलाफ चलाए गए बिहार के प्रसिद्ध ‘चम्पारण सत्याग्रह’ की शताब्दी मनाई जा रही है. फर्क सिर्फ  इतना है कि किसानों का इस बार का सत्याग्रह अपने देश की जनता की चुनी हुई सरकार के खिलाफ है. उद्योग को ही विकास का पर्याय मान कर हमने योजनाबद्ध रूप से कृषि की उपेक्षा शुरू कर दी. कृषि उत्पादन पर बल तो दिया गया परंतु धरती की उर्वरा शक्ति हुई. आम कृषक का बाजार के साथ रिश्ता नहीं बन पाया. देसी बीज खत्म होने लगे. सिंचाई और बिजली की सुविधाएं आसानी से उपलब्ध नहीं हैं. कृषि को स्वायत्त व्यवसाय न रख कर परमुखापेक्षी बना दिया गया है. कृषक को धरती, हवा, पानी जैसी प्राकृतिक नेमतों के प्रति संवेदनशील रहना होता है. वस्तुत: कृषि हमें अपनी माटी से जोड़े रखती है. इसे जीवित रखने पर हम जमीन और यथार्थ से न उखड़ेंगे. कृषि कर्म स्वभावत: ऐसा है कि उसमें सबकी भागीदारी होती है, जिससे सामाजिक विकास और निजी स्तर पर गुणों के विकास का यह प्रमुख साधन है. इसे देश की मुख्यधारा में लाने पर ही देश का सर्वांगीण विकास हो सकेगा.

गिरीश्वर मिश्र


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