नजरिया- अयोध्या : आज भी नॉट आउट

Last Updated 10 Dec 2017 05:21:07 AM IST

इक्कीसवीं सदी इस सवाल का उत्तर खोजते हुए बढ़ रही है कि पहले रोटी जरूरी है या राम. आत्मा की तृप्ति होगी तब अध्यात्म की ओर प्रवृत्ति होगी या फिर अध्यात्म में प्रवृत्ति से खुलेगा आत्मा की तृप्ति का मार्ग?


अयोध्या : आज भी नॉट आउट

नई सदी का ये प्रश्न आध्यात्मिक नहीं, राजनीतिक प्रश्न बन चुका है. मगर पहले सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारे देश की राजनीति इस स्तर तक पहुंच सकी है कि इतने बड़े सवाल का रक्तविहीन हल खोज सके?
अयोध्या में स्थूल राम मंदिर के निर्माण के जरिए इस प्रश्न का जवाब खोजा जा रहा है. एक पक्ष प्रस्तावित निर्माण योजना को यज्ञ बताते हुए दावा कर रहा है कि यही समाज में शान्ति, सद्भाव और एकजुटता की शर्त है. अगर यह यज्ञ नहीं होने दिया गया, तो कथित राक्षसी शक्तियां देश को विनाश की ओर ले जाने में कामयाब हो जाएंगी. मगर यह एकतरफा सोच जबरन थोपी जा रही है. दूसरी सोच को व्यक्त होने का मौका देने तक को लोग-बाग तैयार नहीं हैं. यानी, अपनी सोच व्यक्त करने के लिए कोई तभी आगे आएं जब हमारी सोच को वे स्वीकार करने के लिए तैयार हों. अदालत का हम सम्मान करेंगे, लेकिन तभी तक, जब तक हमारी सोच के हिसाब से फैसले आने की उम्मीद हो. ‘मंदिर वहीं बनाएंगे, उन्हीं ईटों से बनाएंगे जो ‘शिलापूजन’ के नाम पर वहां इकट्ठी हैं और वही लोग बनाएंगे जो पिछले 20-25 साल से इस आंदोलन की अगुआई कर रहे हैं. इस ‘भागवत कथा’ में पूरी पारदर्शिता है. कुछ भी छिपा नहीं है, जिन्हें जो समझना हो, समझ लें.
मंदिर के स्थूल निर्माण और मंदिर के निर्माण में बड़ा फर्क होता है. हिन्दुस्तान की धरती वह धरती है, जहां कभी आत्मा नहीं मरती है. हिन्दू धर्म में ही यह परम्परा है कि पत्थरों में भी प्राण प्रतिष्ठा होती है. जो तोड़ा जाएगा वह ‘ढांचा’ होगा, तो बाबर ने क्या ‘ढांचा’ तोड़वाया था? अगर सचमुच ऐसा था, तो उसका अपराध हमारे अपराध से अलग कैसे माना जाएगा? कहने वाले ये भी कहेंगे कि जिसे आप बाबरी मस्जिद का ढांचा कह रहे हैं, उसे इस नाम से संबोधित न करें. चलिए इसे भी मान लेते हैं. अब अगर ऐसे लोगों की खुशी के लिए इसे ‘विवादास्पद ढांचा’ कहें तो सवाल उठता है कि किसलिए विवादास्पद? अगर बाबरी मस्जिद का ढांचा नहीं कहें तो क्या इसे मंदिर का ढांचा कहें? तो क्या आडवाणी जी समेत सारे कारसेवक मंदिर के ढांचे को ही ध्वस्त कर आए? अगर ऐसा है तो उन्हें खुलकर कहना चाहिए.

आज से 25 साल पहले जो तोड़ी गई वह आस्था की इमारत थी. मगर जो टूटा वह था दिल. इंसान का दिल. हिन्दुस्तान का दिल. तब भी आस्था की इमारत को बाबर या उसके बंदों ने ‘ढांचा’ बताया होगा और आज के ‘सेवक’ भी उसे ढांचा बता रहे हैं, लेकिन इस हथौड़ेबाजी में कितनी आत्माएं छलनी हुई, न बाबर या उसके सेवकों ने सोचा कभी, न ही कोई आज समझने को तैयार दिखता है. हथौड़े चलाने वाले जब तक अपनी आत्मा की अदालत में इसका फैसला नहीं करेंगे कि उन्होंने हथौड़े कहां चलाए हैं, तब तक वे ‘निर्माण’ नहीं कर पाएंगे. विध्वंस से बड़ा होता है निर्माण. विध्वंस के लिए बुद्धि या विवेक का जागना जरूरी शर्त नहीं होता, लेकिन निर्माण के लिए बुद्धि-विवेक का जागा हुआ होना अनिवार्य शर्त होती है.
राजनीतिक समझ को अपवित्र करने का काम यकीनन तुष्टीकरण की राजनीति ने बढ़-चढ़कर किया है. अव्वल तो इस देश का निर्माण ही तुष्टीकरण के कमज़ोर आधार पर हुआ, जहां की रेत आज भी उड़-उड़ कर आंखों में पड़ती रहती है. फिर कभी शाहबानो, तो कभी रामलला के दर्शन के लिए ताला खुलवाना. कभी मुसलमानों को खुश करना, कभी हिन्दुओं को नाराज न करना. किसी एक राजनीतिक दल को क्यों दोष दिया जाए जब सभी प्रमुख दल इसी तुष्टीकरण पर राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे हैं?
राजनीति में अक्सर विवादास्पद बयान देने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने वकील की हैसियत से जब अदालत में राम मंदिर निर्माण को टालने की दलील दी, तो इस बार भी वह विवादों में घिरने से नहीं बच सके. आस्था की इमारत के विध्वंस और निर्माण से जुड़े इस विवाद का असर 2019 के आम चुनाव पर न पड़ने दिया जाए, कपिल सिब्बल यही कहना चाहते थे. उन्होंने यह विचार व्यक्त किया भर था कि गुजरात के चुनाव में इसके राजनीतिक लाभ लेने का अखाड़ा खुल गया. बीजेपी ने इसे चुनावी मुद्दा बना दिया. सिब्बल की जो आशंका डेढ़ साल बाद के लिए थी, उसे सच होने में 24 घंटे भी नहीं लगे. चुनाव के दौरान बेरोजगारी, भूख से मौत, कुपोषण, असमान आय, अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई जैसी समस्याओं को दूर करने पर बात होनी चाहिए. तकनीकी विकास, औद्योगीकरण, कृषि उत्पादन पर चर्चा होनी चाहिए. सत्ताधारी दल को तथ्यों के साथ सामने आना चाहिए. विपक्षी दलों को आने वाले समय के रोडमैप लेकर वोट मांगने पहुंचना चाहिए. मगर, ‘रोटी’ का सवाल टालने के लिए ‘राम’ को सामने कर दिया जाता है. राजनीति का यही आ’राम’ आम जनता के लिए अभिशाप बन गया है.
जो राजनीति किसी ढांचे और आस्था की इमारत में फर्क नहीं कर सकती, उसे भगवान ‘राम’ के नाम पर स्वार्थ सिद्धि की अनुमति कैसे दी जा सकती है? जिन्हें भूख से हो रही मौत नहीं जगा सकती हो, उनकी नींद आस्था के नाम पर होने वाली मौतों से कैसे टूट सकेगी?
अदालत के मंदिर में दो मामले हैं. एक में ज़मीन का विवाद है, तो दूसरे में आस्था की इमारत गिराने के आपराधिक षड्यंत्र रचने का विवाद है. फौजदारी मुकदमे का नतीजा पहले आना चाहिए, तभी दीवानी मुकदमों के नतीजे सामने आ पाएंगे. सज़ा के बिना समझदारी विकसित नहीं होती. अदालत के मंदिर से यही आवाज़ निकलती आई है. इस बार भी इस आवाज़ को बुलन्द होने दिया जाना चाहिए. अदालत पर ही सबकी नज़र टिकी है. मगर, इस बार जिम्मेदारी बड़ी है. अदालत की चौखट के भीतर की दलीलें भी बाहर ‘नफरत की राजनीति’ को ऑक्सीजन दे सकती हैं. और अदालत इसकी अनदेखी नहीं कर सकती.
एक मसले का हल खोजते हुए दूसरी मुश्किलें नहीं पनपने दी जा सकतीं. नेता कोई हो, कितना भी बड़ा हो, किसी समुदाय का हो, उसे इस बात की इजाजत नहीं दी जा सकती कि वह समाज को अपने ढंग से हांके. देश की आत्मा को जिंदा रखने के लिए देह की आत्मा को मरने से बचाना होगा. न भूख से होती मौत का तमाशाई बना जा सकता है, न राम की अनदेखी कर आध्यात्मिकता त्यागी जा सकती है. मंदिर निर्माण के नाम पर अगर हम रक्तरंजित भविष्य को न्योता देते हैं तो यह राम की अनदेखी है. सद्भावना और सर्वसमाज के हितों की बुनियाद पर खड़ा होता है-रामराज. इसलिए रोटी और राम की युगलबंदी ही हमारे देश की गुलाबी संस्कृति और उसकी खुशबू को ज़िन्दा रख सकती है. आज की जरूरत यह है कि हम समाज में वह विवेक पैदा करें कि नफ़रत की राजनीति को ‘राम नाम सत्य है’ कहकर हाथ जोड़ा जा सके. यानी, संदेश यही है कि चाहे रोटी या फिर राम, ‘राजनीति’ को दो आराम.

उपेन्द्र राय
‘तहलका’ के सीईओ एवं एडिटर इन चीफ


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