प्रसंगवश : न्याय का निहोरा

Last Updated 03 Dec 2017 02:31:11 AM IST

समाज में व्यवस्था तथा सुख-शांति बनाए रखने पर ही देश का विकास संभव है.


प्रसंगवश : न्याय का निहोरा

इसके लिए जरूरी है चुस्त-दुरुस्त कानून व्यवस्था. न्याय में भरोसा तभी आता है, जब व्यवस्था में अन्याय के प्रतिरोध की जगह हो. (अन्याय से) पीड़ितों को प्रभावी मदद मिल सके. आज अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं, और अपराध का भय भी कम होता दिख रहा है. दूसरी ओर, मुकदमे का नाम सुनते ही साधारण लोगों को चक्कर आने लगते हैं. कचहरी, वकील, पेशकार, मुंसिफ, जज और पुलिस सब मिल कर एक अलग ही (दानवी या मायावी!) दुनिया रचते हैं. कोई संदेह नहीं कि न्याय की दुरावस्था से आम आदमी के जीवन की गुणवत्ता नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कुछ दिनों पूर्व घोषणा की थी कि उनकी सरकार ने देश में प्रचलित परन्तु व्यर्थ हो चुके बारह सौ पुराने अनावश्यक कानून रद्द कर दिए हैं. इनके अलावा, करीब दो हजार और कानून भी चिह्नित किए गए हैं, जिन्हें निष्प्रभावी करने का प्रस्ताव विचाराधीन है. परंतु देश में आज न्याय की जो सामान्य स्थति बनी हुई है, वह बड़ी ही सोचनीय है, और अभी भी बहुत कुछ करना शेष है.

आमजनों को कानून का लाभ मिले, इसके लिए उचित सूचना मिलना जरूरी है परंतु अब वह इतनी विशिष्ट होती जा रही है कि सुशिक्षित लोग भी उसका पूरा लाभ नहीं उठा पाते. अभी भी अंग्रेजी ही न्याय की भाषा बनी हुई है. इसी प्रसंग में उल्लेख किया जा सकता है कि कानून की पढ़ाई भी अपर्याप्त और अप्रासंगिक है. नये पांच साल वाले पाठ्यक्रम कानूनदां कम और अच्छे बाबू (या कानूनी मैनेजर!) अधिक पैदा कर रहे हैं. लंबित मुकदमों की संख्या डरावनी हो चली है. विभिन्न अदालतों में तकरीबन तीन करोड़ मुकदमे विचार हेतु दाखिल हैं.

इसका मुख्य कारण न्यायाधीशों की घटती संख्या है. जो पद हैं भी वे खाली पड़े हैं. सरकार की ढुलमुल नीति और हीला-हवाली वाली गति के कारण समय पर न्यायाधीशों की नियुक्तिनहीं हो पाती. मामले निपटने में खूब समय लगता है. कई बार विचाराधीन (अंडर ट्रायल) कैदी वर्षो जेल में पड़े रहते हैं, उनमें कई ऐसे भी होते हैं, जिनके मुकदमा लगने और सुनवाई होने के पहले ही उनके संभावित दंड की काफी अवधि (या उससे ज्यादा) गुजर चुकी रहती है. न्याय प्रक्रिया की एक बड़ी कठिनाई यह है कि आम आदमी के लिए न्याय मंहगा होता जा रहा है. इसलिए न्याय तक उसकी पहुंच घटती जा रही है. पेशे की शुचिता को लेकर लोगों के मन में विश्वास घट रहा है. वकील, जज और संबद्ध अधिकारियों की मिलीभगत के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं. न्याय प्रक्रिया में ‘घूस’ स्थापित व्यवस्था का रूप ले चुकी है.

कानूनी सुधारों की दिशा भी उलझाने वाली होती जा रही है. उदाहरण के लिए दहेज का एक एक्ट पहले से ही था. अब गृह कलह और घरेलू हिंसा का जो नया एक्ट बना है, उसमें एक पक्ष दूसरे के ऊपर हिंसा, चोरी, जुल्म आदि अनेक आरोप लगाता है, जिसके लिए कई मुकदमे बनते हैं, और मुवक्किल को कई-कई कोर्ट में जाने की जरूरत पड़ती है. फलत: कठिनाई बढ़ती जा रही है. ऐसे ही आज सर्वाधिक मुकदमे ‘चेक बाउंस’ होने को लेकर हैं, जिनका प्रभावी समाधान नहीं निकल सका है. यह भी एक कठिन स्थिति है कि देश के विभिन्न राज्यों में एक ही तरह के मुकदमों के निपटारे के लिए भिन्न-भिन्न प्रावधान हैं. यदि मोटर गलत लेन में हुई तो दिल्ली में तो मौके पर ही चालान कट जाता है, और जुर्माना अदा करने की सुविधा है.

उत्तर प्रदेश में बिना कोर्ट के कुछ भी नहीं होता. इन प्रश्नों पर विचार करते हुए विधि आयोग ने स्पष्ट रूप से संस्तुति की है कि यातायात की अलग से कोर्ट बिठाई जाए. आयोग ने सुधार के लिए कुछ और संस्तुतियां भी की हैं. उसकी मानें तो जजों की कम संख्या से निपटने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों में जजों की सेवा-निवृत्ति की आयु बढ़ाई जानी चाहिए. साथ ही, उपलब्ध न्यायिक संसाधनों की मात्रा भी बढ़ाई जानी चाहिए.

आज जनता और न्याय व्यवस्था के बीच कोई सीधा संवाद नहीं है. दूसरी ओर कानूनी प्रक्रिया में बड़ी संख्या में पेचीदगियां बनी हुई हैं, उसमें इतने उलझाव हैं कि आम आदमी पग-पग पर कानूनी किरदारों द्वारा ठगा जाता है. उसे निजात नहीं मिल पा रही, उलटे मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. बाबा आदम के जमाने की कानून की प्रक्रिया निश्चय ही क्रांतिकारी परिवर्तन की अपेक्षा करती है, जिससे प्रभावी ढंग से न्याय मिल सके. इसके लिए कई मोचरे पर सुधार जरूरी है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती.

गिरीश्वर मिश्र


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