परत-दर-परत : श्रेष्ठता ग्रंथि का यह प्रतीक आवश्यक क्यों है?
प्रत्येक दल में कोई न कोई ऐसा नेता होता है, जो बीच-बीच में विवादास्पद बयान दे कर अपनी ही पार्टी के लिए मुश्किल खड़ी कर देता है. राहुल गांधी जनेऊधारी हिंदू हैं, यह कह कर कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला ने बला मोल ले ली है.
परत-दर-परत : श्रेष्ठता ग्रंथि का यह प्रतीक आवश्यक क्यों है? |
मजेदार बात यह कि कोई स्पष्ट उत्तर अभी सामने नहीं आया है कि धर्म-जाति की दृष्टि से राहुल क्या हैं? हमें इस पचड़े में पड़ने की जरूरत ही क्या है, क्योंकि राजनीति वे हिंदू या पारसी के रूप में नहीं, बल्कि एक भारतीय के रूप में करते हैं. मुझे आपत्ति उनकी पार्टी के नेता सुरजेवाला द्वारा राहुल के जनेऊधारी होने पर जोर देने से है.
आज के जमाने में क्या सचमुच जनेऊ का कोई महत्त्व है? सच तो यह है कि जो लोग परंपरागत रूप से जनेऊ धारण करते रहे हैं, वे क्रमश: इसे त्याग रहे हैं. लेकिन जनेऊ गायब हो रहा है, इससे उसका महत्त्व कम नहीं हो गया है. कम हो गया होता तो सुरजेवाला के लिए कहना काफी होता कि उनके नेता निश्चय ही हिंदू हैं. जनेऊ का धार्मिंक दृष्टि से जो भी महत्त्व हो पर सामाजिक दृष्टि से विषमता और ऊंच-नीच का प्रतीक है. जो भी जनेऊ पहनता है, वह चौबीसों घंटे घोषित करता है कि दूसरों से श्रेष्ठ है. जनेऊ समाज को बांट देने का धार्मिंक औजार है.
संसार की सबसे पुरानी समस्या विषमता है. लेकिन हिंदुओं ने जाति व्यवस्था के रूप में सामाजिक विषमता के एक विशिष्ट स्वरूप का आविष्कार किया है. शेष दुनिया में लोग प्रयत्नों से श्रेष्ठता अर्जित करते हैं, पर हिंदू समाज में यह जन्म से ही उपार्जित हो जाती है. ब्राह्मण का बच्चा है तो स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ है. श्रेष्ठता का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है? इसी अर्थ में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि हिंदू समाज समाज नहीं, जातियों का समूह है. वह व्यवस्था है, जिसमें बीस प्रतिशत से भी कम लोगों ने अपने को श्रेष्ठ और जनेऊ धारण करने का अधिकारी घोषित कर रखा है. अस्सी प्रतिशत को जन्म से ही हीन घोषित कर दिया है, भले ही इनमें से कोई बड़ा हो कर डॉ. अम्बेडकर जैसा विद्वान बन जाए. अपनी विशिष्टता साबित करने के लिए लोग हमेशा से ही कुछ विशिष्ट पहनते आए हैं. राजा मुकुट पहनता है. ब्राह्मण यज्ञोपवीत धारण करता है. खास तरह की पगड़ी पहनने के अधिकार सरदार या पंचायत के प्रमुख को होता है. इन्हीं लोगों ने दलितों और स्त्रियों के लिए नियम बना रखे थे कि वे क्या पहनेंगे और क्या नहीं? अपने विख्यात भाषण ‘जाति का विनाश’ में डॉ. अम्बेडकर इसके कई उदाहरण देते हैं. एक उदाहरण है : ‘मराठों के देश में, पेशवाओं के शासन काल में अछूत को उस सड़क पर चलने की अनुमति नहीं थी जिस पर कोई सवर्ण हिंदू चल रहा हो ताकि उसकी छाया पड़ने से हिंदू अपवित्र न हो जाए. उसके लिए आदेश था कि एक चिह्न या निशानी के तौर पर कलाई या गले में काला धागा बांधे रहे ताकि कोई हिंदू गलती से उससे छू जाने पर अपवित्र न हो जाए. पेशवाओं की राजधानी पूना में अछूत के लिए आदेश था कि कमर में झाड़ू बांध कर चले ताकि वह जिस मिट्टी पर पैर रखे, वह उसके पीछे से काम कर रहे झाड़ू से साफ हो जाए ताकि उस मिट्टी पर पैर रखने से कोई हिंदू अपवित्र न हो जाए. पूना में अछूत के लिए जरूरी था कि जहां भी जाए, गले में मिट्टी की हांड़ी बांध कर चले और जब थूकना हो तो उसी में थूके ताकि जमीन पर पड़ी हुई अछूत की थूक पर अनजाने में किसी हिंदू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र न हो जाए.’
दूसरा उदाहरण मध्य भारत के बलाई जाति के लोगों का है. डॉक्टर साहब ने अपने इसी भाषण में बतलाया है, ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की रिपोर्ट (4 जनवरी, 1928) के मुताबिक, (इंदौर राज्य के) इंदौर जिले के सवर्ण हिंदुओं यानी कालोटों, राजपूतों और ब्राह्मणों, कनिरया, बिचोली-हफ्सी, बिचोली-मर्दाना तथा पंद्रह अन्य गांवों के पटेलों और पटवारियों ने अपने-अपने गांव के बलाइयों से कहा कि अगर तुम लोग हमारे साथ रहना चाहते हो तो तुम्हें आठ नियमों का पालन करना होगा. इनमें से कुछ नियम इस प्रकार थे : बलाई ऐसी पगड़ी नहीं पहनेंगे जिसकी किनारी में सोने का लेस लगा होगा. वे रंगीन या फैंसी किनारी वाली धोती नहीं पहनेंगे. बलाई औरतें सोने या चांदी के गहने नहीं पहनेंगी. फैंसी गाउन या जैकेट नहीं पहनेंगी. बलाइयों ने इस तानाशाही को मानने से इनकार कर दिया तो उन पर जुल्म शुरू हो गया. इसी तरह, एक जमाने में केरल में सवर्णो की तानाशाही थी कि दलित स्त्रियां वक्ष ढंक कर सड़क पर नहीं निकलेंगी. इस पराधीनता से बाहर आने के लिए दलित स्त्रियों को बहुत संघर्ष करना पड़ा.
यह है जनेऊ की राजनीति और जनेऊ का समाजशास्त्र : फेसबुक पर जब मैंने जनेऊ की औचित्यहीनता पर बहस छेड़ी तो जनेऊ के पक्ष में बहुत-से शर्मा, पाठक, मिश्र, पांडेय, उपाध्याय सामने आ गए. लेकिन दो-तीन मित्रों ने पूछा कि जनेऊ का समर्थन करने के पहले यह तो बताइए कि उसकी उपयोगिता क्या है, तो एक की भी जुबान नहीं खुली. उनके तर्क का ढर्रा यह था कि जनेऊ को हिंदू धर्म में पवित्र माना गया है, इसलिए वह पवित्र है. कुछ लोगों के लिए पवित्र होगा वह, पर उसे पहनने से फायदा क्या है, इस प्रश्न का उत्तर उनके पास नहीं था, क्योंकि इक्कीसवीं सदी में यह कहने की हिम्मत वे इसलिए नहीं जुटा पाए कि जनेऊ सामाजिक विषमता और भेदभाव का सबसे ज्यादा प्रकट प्रतीक है. जनेऊ नहीं होगा तो ब्राह्मण या ठाकुर को पहचाना कैसे जाएगा?
| Tweet |