स्मृतिशेष शिबू सोरेन : मूल्यांकन अभी शेष
देश के शीर्ष आदिवासी नेता और झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन के समकालीन नेताओं में कई ऐसे हैं, जिन्होंने बहुत लंबी सत्ता का इतिहास बनाया और बहुत सी उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन शिबू सोरेन के निधन के बाद दिल्ली और झारखंड में जो नजारा दिखा है, उसने साबित किया कि आदिवासी ही नहीं, गैर- आदिवासियों के दिलों पर भी उन्होंने राज किया।
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बचपन से लेकर आखिरी सांस तक उनके राजनीतिक जीवन का बड़ा हिस्सा संघर्ष में ही बीता पर उन्होंने जल-जंगल-जमीन की जंग में जितनी लंबी लकीर खींची है, वहां तक पहुंच पाना बहुत कठिन है।
दिशोम गुरु के नाम से विख्यात शिबू सोरेन फिलहाल रामगढ़ के अपने पैतृक नेमरा की मिट्टी में विलीन हो गए पर उन्होंने आदिवासी संघर्ष में ऊंचा मुकाम हासिल कर लिया है, उनकी अंतिम यात्रा में यह साफ दिखा। झारखंड की धरती महान नायक बिरसा मुंडा, बाबा तिलका मांझी, वीर बुधू भगत और सिदो-कानू जैसे नायकों की श्रेणी में आजादी के बाद के उनके कामों को भी शामिल करेगी। बहुत कंटीले रास्ते पर धारा के खिलाफ शिबू सोरेन का जो सफर आरंभ हुआ था, उसका समापन संतोष भरा था क्योंकि उन्होंने जिन विचारों पर अपनी राजनीति आरंभ की थी वह उनके जीवनकाल में बहुत विस्तारित हुई और उनकी अगली पीढ़ी ने उनकी विरासत को बखूबी संभाल लिया है।
झारखंड को अलग राज्य बनाने में शिबू सोरेन के योगदान को तो सभी मानते ही हैं पर आदिवासी समुदाय में प्राकृतिक संपदा को बचाने और कुरीतियों के खिलाफ उन्होंने जो संघर्ष किया, वह बेमिसाल है। मैदानी इलाकों की तुलना में साधनविहीन इलाकों में राजनीति करना कठिन काम है पर वहीं काम करते हुए वे जंगल के महान नायक और गुरु जी के नाम से विख्यात हुए। महाजनी प्रथा और नशे के खिलाफ आदिवासियों तथा कमजोर तबकों के बीच उन्होंने जो संघर्ष किया वह भावी पीढ़ियों के लिए मिसाल रहेगा। झामुमो नेता हेमंत सोरेन चौथी बार झारखंड के मुख्यमंत्री उनके ही बनाई संघष्रो की जमीन पर बने हुए हैं।
शिबू सोरन के बचपन में ही पिता की हत्या हो गई तो मैट्रिकुलेशन तक ही उनकी शिक्षा हो सकी। लेकिन बचपन से ही वे गरीबों पर अत्याचार, अन्याय, नशाबंदी और महाजनी सिस्टम के खिलाफ मैदान में उतरे और लंबा संघर्ष करते हुए प्रांतीय और राष्ट्रीय राजनीति में अलग जगह बनाई। तीन बार वे झारखंड के मुख्यमंत्री बने लेकिन बहुत सीमित कालखंड के लिए। तीन बार केंद्र में मंत्री भी रहे। संसद के दोनों सदनों में रहे।
मुखिया पद पर हार से उनकी राजनीति शुरू हुई और मुख्यमंत्री रहते हुए भी वे चुनाव हार गए तो राजनीतिक विरोधियों ने बहुत तंज कसा था। लेकिन उनकी राजनीति खत्म नहीं हुई। आखिरी सांस ली तो वे उच्च सदन के सदस्य थे। राष्ट्रीय स्तर की हैसियत बनाने के बाद भी उनके भीतर का गांव कायम रहा। तीन दशक से मैंने उनको करीब से देखा और निजी तौर पर भी उनसे पहचान रही। वे अपने मूल विचारों पर हमेशा कायम रहे। राजनीतिक समझौते भी किए तो उसकी परिधि में आदिवासियों की भलाई शामिल थी।
बेशक, ऐसे नायकों के बारे में मीडिया एक अलग पूर्वाग्रह रखता है। इसीलिए शिबू सोरेन के जीते जी उनका उचित मूल्यांकन नहीं हुआ पर समाज को जगाने वाले नायक के रूप में उनकी अमिट पहचान इतिहास में दर्ज होगी। कम लोगों को पता है कि उन्होंने आदिवासी समाज की शिक्षा-दीक्षा से लेकर कुरीतियों के खिलाफ व्यापक अभियान चलाया। रात्रि पाठशाला चलाने के साथ उन्होंने शराब से लेकर कई कुरीतियों के खिलाफ अलख जगाने का काम किया। इस चेतना का जागरण भी किया कि बगैर अलग राज्य बने आदिवासियों का भविष्य सुरक्षित नहीं हो सकेगा। इसीलिए इसके साथ भले ही छत्तीसगढ़ या उत्तराखंड राज्य बन गया हो लेकिन किसी राज्य के लिए लंबे संघर्ष का इतिहास केवल झारखंड का रहा है।
1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना के बाद आदिवासियों का संघर्ष राष्ट्रीय क्षितिज तक दिखा और अन्य प्रांतों के लिए प्रेरक भी बना। झारखंड खनिज संपदा में देश का सबसे संपन्न राज्य है। भारत के स्वाधीनता आंदोलन में भी यह अग्रणी रहा था और एक दौर तक यहां कांग्रेस का वर्चस्व रहा। खुद शिबू सोरेन के पिताजी भी कांग्रेस से जुड़े थे। 1940 में रामगढ़ में कांग्रेस अधिवेशन मौलाना आजाद की अध्यक्षता में हुआ था जिसमें झारखंड की धरती पर महात्मा गांधी, पं. जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और ताना भगत समेत तमाम नायक शामिल हुए थे और यहीं से ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के विचार की भी नींव पड़ी थी।
इसके चार साल बाद शिबू सोरेन का जन्म हुआ जब देश आजाद होने के कगार पर खड़ा था। झामुमो का संघर्ष और जागरूकता भी एक वजह है जिस कारण झारखंड अपने जल-जंगल-जमीन के साथ अपनी संस्कृति और परंपराओं को सहेज कर रखने में सफल रहा।15 नवम्बर, 2000 को नया राज्य बनने के बाद यह शिबू सोरेन के कारण हर सरकार के एजेंडे का हिस्सा रहा। बेशक, भारत के कुल क्षेत्रफल का 2.4 फीसद हिस्सा झारखंड के पास है, और देश की आबादी का 2.7 फीसद पर, आकार में झारखंड पेरू जितना बड़ा है। पेरू दुनिया का 40वां सबसे बड़ा देश है। प्राकृतिक और भूगर्भ संसाधनों से भरपूर झारखंड में ही देश का सबसे बड़ा कोयला और लौह अयस्क भंडार है पर खनन से विस्थापन नियति बना हुआ है। नक्सलवाद कम होने के बाद भी चुनौती बरकरार है। राज्य की करीब 66.85 फीसद आबादी खेती पर आश्रित है लेकिन खेती चुनौतियों से भरी है।
राष्ट्रीय दलों की अपनी अलग सोच और बाध्यताएं होती हैं, जबकि क्षेत्रीय दलों का एक सीमित दायरे में लक्षित समूह होता है। इसलिए झारखंड में शिबू सोरेन की रचना झामुमो नये विचारों के साथ जल-जंगल-जमीन को एजेंडे में रख कर आगे भी चलेगा। उसका नया नेतृत्व संचार और सूचना क्रांति से भी लैस है पर शिबू सोरेन को आदिवासी नेतृत्व ऐसे नायक के रूप में हमेशा याद रखेगा जिनके पार संघर्ष की बड़ी थाती थी। इसलिए सोहनलाल द्विवेदी की ये पंक्तियां उनके ऊपर फिट बैठती हैं-
अचल रहा जो अपने पथ पर लाख मुसीबत आने में
मिली सफलता जग में उसको, जीने में मर जाने में
(लेख में विचार निजी हैं)
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