सीमाओं का संज्ञान
लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को सर्वोच्च न्यायालय ने फटकार लगाते हुए आपराधिक मानहानि के मामले की कार्रवाई पर रोक लगा दी जिस में गांधी ने अपनी 'भारत जोड़ो यात्रा' के दरम्यान सीमा पर भारतीय व चीनी सैनिकों के बीच झड़पों पर टिप्पणी की थी।
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अदालत ने सवाल किया आपको कैसे पता चला दो हजार किमी. भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया गया है। कोर्ट ने पूछा कि क्या उनके पास सबूत है या आप वहां थे।
अगर आप सच्चे भारतीय होते तो ये सब बातें नहीं करते। पीठ ने राहुल के सोशल मीडिया पर विचार व्यक्त करने पर भी प्रश्न चिह्न लगाया और संसद में अपनी बात रखने को कहा। गांधी का कहना है कि उनके भाषण संबंधी अपराधों के बीस से ज्यादा मामले चल रहे हैं, कई लोग उन्हें फंसाने की फिराक में हैं।
गांधी के खिलाफ यह मामला अगस्त, 2023 में लखनऊ मजिस्ट्रेट अदालत के समक्ष की गई थी जिसमें इसी मई में उन्हें सम्मन जारी किया गया था।
कांग्रेस नेता का कहना कि उनका उद्देश्य सेना की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाना नहीं था बल्कि यह सरकारी नीतियों की आलोचना थी। इसे उचित कहा जा सकता है मगर जैसा कि अदालत ने कहा, सांसद होने के नाते गांधी को सरकार के कामकाज या नाकामियों पर जो भी सवाल उठाना है, उसे सदन में उठाने से क्यों हिचकते हैं। राहुल की तरफ से कहा गया कि उन्हें सुनवाई का अवसर दिए बगैर ही सम्मन जारी कर दिया गया जबकि यह सुनी-सुनाई बातों व अखबारी कतरनों पर आधारित था।
यह कानूनन साबित होने तक साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य नहीं था। बेशक, गांधी के प्रति की गई यह शिकायत राजनीति प्रतिशोध का उदाहरण कहा जा सकता है। इससे न सिर्फ अदालतों का वक्त जाया होता है बल्कि सनसनी फैलाने का काम भी होता है। गांधी को जिम्मदार नेता का परिचय देते हुए अप्रमाणित आरोपों से बचना सीखना होगा। सवाल सेना या सुरक्षा बलों पर आक्षेप लगाने भर की नहीं है।
वरिष्ठ नेता के तौर पर बेवुनियादी बातें करना राहुल को शोभा नहीं देता। यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इसी दरम्यान सात साल बाद सीबीआई अदालत ने आप नेता सत्येन्द्र जैन के खिलाफ एक मामले में कोई सबूत न होने की बात स्वीकारी है। यह न्यायिक व्यवस्था व सत्ताधारी दल की नीयत पर प्रश्न चिह्न लगाता है। राजनीतिक प्रतिशोधों या कीचड़ उछालने वाली राजनीति का यह निम्नतर उदाहरण न बन कर रह जाए, इसका विशेष ख्याल रखा जाना जरूरी है।
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