मोदी की अगुवाई में

Last Updated 01 Jul 2017 07:16:34 AM IST

जब 2014 में नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए तो इस बात को लेकर दो अलग-अलग मत थे कि क्या वे आर्थिक सुधारवादी के रूप में कट्टर हिन्दूवादी नेता हैं, या कि इसके विपरीत.


मोदी की अगुवाई में

लगता है कि बीते तीन वर्षो के समय ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है.

यकीनन इस दौरान कई दफा देखा गया जब मोदी ने धार्मिक भावनाओं को प्रश्रय दिया. भड़काऊ भाषण देने वाले एक कट्टर हिन्दू पुजारी को भारत के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य, उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाए जाने से इस बात की सबसे ज्यादा तस्दीक होती है. लेकिन मोदी भारत की आर्थिक वृद्धि के अगुवा भी रहे. उनके नेतृत्व में विकास दर 6.4% (2013) से बढ़कर 7.9% (2015) हो गई. नतीजतन, भारतीय अर्थव्यवस्था आज वि में सर्वाधिक तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हो गई है. उन्होंने वर्षो से रुके पड़े सुधारों को आगे बढ़ाया. दिवालिया घोषित करने संबंधी कानून को नये सिरे से दुरुस्त किया जाना और समूचे देश के लिए एक समान कर प्रणाली (जीएसटी) को अंगीकृत किया जाना भी इन सुधारों में शामिल हैं. जीएसटी स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर फैले तमाम करों के मकड़जाल से निजात दिलाएगा.

विदेशी निवेश में भी खासा उछाल आया है, जबकि यह काफी निचले स्तर पर था. भारत जैसा कि केंद्रीय मंत्रिमंडल भी कह रहा है, मोदी के वादे के मुताबिक टाइगर की शक्ल अख्तियार कर रहा है. लेकिन दुखद है कि ये तमाम घटनाक्रम भ्रमित कर देने वाले हैं. जीएसटी, भले ही स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन बेवजह की जटिलताएं उभार देगा. दिवालिया घोषित करने संबंधी नया कानून सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन वित्तीय प्रणाली, जिसमें अभी डूबत ऋणों से दबे सरकारी बैंकों का वर्चस्व है, में सुधार के लिए काफी कुछ किए जाने की जरूरत बनी रहेगी.

अनेक जटिल आर्थिक समस्याओं, भूमि अधिग्रहण से लेकर श्रम कानूनों में सुधार जैसी तमाम दिक्कतों के प्रति केंद्र सरकार का रवैया ढुलमुल रहा है. अलबत्ता, बड़े सुधारों में गिनाए जाने वाले एक बड़े फैसले यानी काले धन की अर्थव्यवस्था को खत्म करने की गरज से भारत के बड़ी राशि के करंसी नोटों को एकाएक चलन से बाहर किये जाने के प्रतिगामी परिणाम अर्थव्यवस्था को झेलने पड़ रहे हैं. अवैध मुद्रा का तो ज्यादा नुकसान नहीं हुआ, लेकिन वैध तरीकों से संचालित तमाम कारोबार झटका खा बैठे हैं. इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही अर्थव्यवस्था में 6.1% की दर से वृद्धि दर्ज की गई. यह वृद्धि दर उस दर की तुलना में धीमी है, जो मोदी के पदारूढ़ होने के समय थी.  भारत के प्रधानमंत्री, संक्षेप में कहें तो, आमूल चूल बदलाव ला देने वाले कोई सुधारक नहीं है, जैसा कि उनकी छवि बनाई गई है. वे अपने पूववर्ती और गरिमापूर्ण व्यक्तित्व के धनी मनमोहन सिंह की तुलना में ज्यादा ऊर्जावान हैं, और उन्होंने विनिर्माण क्षेत्र से लेकर शौचालयों के निर्माण जैसी अपील करने वाली तमाम पहल की हैं. लेकिन वह अपने से कोई बड़ा विचार पेश नहीं कर सके.

दुविधाग्रस्त कारोबारी फर्मो को मदद करने में उनके जोरदार प्रयासों से उनकी छवि बड़े कारोबारी घरानों के मित्र के रूप में ज्यादा उभरी. लेकिन अर्थव्यवस्था के सामने मुंह बाये खड़ी समस्याओं के तरतीबी समाधान निकालने की गरज से उन्होंने कुछ खास नहीं किया है. बीते बीस सालों में पहली बार हुआ है कि उद्योग क्षेत्र की ऋण की उपलब्धता घटी है; मोदी को सरकारी बैंकों का पुर्नपूंजीकरण करना चाहिए और ऋणों के प्रवाह को दुरुस्त करना चाहिए. उन्हें श्रम कानूनों का सरलीकरण  करना चाहिए. अभी श्रम कानूनों की जटिलता के चलते कंपनियां ज्यादा श्रमिकों को काम देने से बचती हैं. संपत्ति खरीद का क्षेत्र अभी भीषण दलदल में फंसा हुआ है; कम से कम सरकार इतना तो कर ही सकती है कि खातों/रजिस्टरों में सुधार लाए ताकि विवादों की ज्यादा गुंजाइश ही न बचे. देश में आज जैसी राजनीतिक स्थिति है, वैसी उम्दा स्थिति सुधारों के लिए कभी नहीं रही.

बीते दशकों में मोदी सरकार सबसे मजबूत सरकार है.  ज्यादातर बड़े राज्यों में केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की ही सरकारें हैं. विपक्ष हताशा में है. लेकिन भारत में आर्थिक लिहाज से कुछ फायदे के हालात भी हैं. भारत तेल का बड़ा आयातक है; काफी समय से तेल के दाम नीचे रहने से भारत को आर्थिक वृद्धि में इजाफा करने संभवत: सालाना दो प्रतिशत अंकों की वृद्धि हासिल करने में मदद मिल रही है. बढ़ती आयु की आबादी की समस्या ने काफी समय तक पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं को हलकान किए रखा और अब यह समस्या चीन को चपेट में लेती जा रही है. इसके विपरीत भारत में आबादी युवा है. आर्थिक वृद्धि की राह में तेजी से आगे बढ़ निकलने के लिए भारत के पास व्यापक अवसर होंगे. अभी भारत वि की सबसे 20 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सर्वाधिक गरीब है. आने वाले वर्षो में भारतीय अर्थव्यवस्था अनेक अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ सकती है. कह सकते हैं कि मोदी एक स्वर्णिम अवसर को गंवा रहे हैं. सच तो यह है कि उन्होंने अपनी प्राथमिकता में आर्थिक सुधार की बात को स्पष्ट ही नहीं किया है. 

प्रधामंत्री के रूप में मोदी ने उग्र हिंदू तत्वों को प्रश्रय देने में कोई कसर न छोड़ी. उनकी सरकार ने हाल में खासे लाभार्जक बीफ-निर्यात कारोबार के मद्देनजर पशुओं की खरीद से संबंधित अनेक नये नियम लागू करके अफरा-तफरी मचा दी. डर यह है कि अगर अर्थव्यवस्था डगमगाई तो मोदी अपनी लोकप्रियता को बनाए रखने के लिए सांप्रदायिक  तनाव पैदा कर सकते हैं. मोदी के कार्यकाल के दौरान सार्वजनिक नीति खासकर सांप्रदायिक संबंधों को लेकर नीति पर विमर्श मद्धम पड़ गया है. हिंदू राष्ट्रवादी उन लोगों को मार-पीटने के लिए दौड़ पड़ते हैं, जो भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपरा से सरकार के छिटकने की बात कहते हैं. मोदी के प्रशंसक उन्हें ऐसे नेता के रूप में पेश कर रहे हैं जिसने भारत को उसकी क्षमताओं का भान कराया है.  (साभार)



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