कश्मीर : निकाल ली गई अमन की तरकीब
कश्मीर में जो बहुत पहले होना चाहिए था, वो अब हो रहा है. अलगाववादी हुर्रियत नेताओं के खिलाफ कानूनी कार्रवाई, आतंकवादियों पर मार और एलओसी पर पाकिस्तान की चल रही नापाक हरकतों का मुंहतोड़ जवाब.
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इसके साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय पटल पर आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को कटघरे में खड़ा कर जवाबदेह बनाने की कोशिश भारत लगातार कर रहा है. केंद्र सरकार दावा कर रही है कि कश्मीर समस्या का समाधान निकलेगा. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत तक यही कह रहे हैं कि कश्मीर जल्दी ही शांत हो जाएगा.
प्रश्न यह है कि सरकार के पास कौन-सी जादू की छड़ी है, जिससे घाटी के हालात सामान्य हो सकते हैं? हालांकि, केंद्र सरकार बार-बार दोहरा रही है कि हम घाटी में अमन कायम करके दिखाएंगे. कश्मीर समस्या में एक अहम विलेन अलगाववादी संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस है. घाटी में हिंसा और अशांति फैलाने में हुर्रियत का योगदान आतंकवादियों की क्रूरता से कहीं अधिक है. आतंकवादी बंदूक के बल पर भय का वातावरण बनाते हैं, लेकिन हुर्रियत धर्म और पैसे के बल पर आम जनता के दिल और दिमाग को गुमराह करने की रणनिति पर चलते हैं. मार्च, 1993 में पाकिस्तान की कश्मीर रणनीति के तहत घाटी के कुछ जमात-ए-इस्लामी और इस्लामिक धर्म के कुछ अन्य नेताओं को संगठित कर हुर्रियत कांफ्रेंस बनाया गया.
ये ऐसे लोग हैं, जो मस्जिदों और इस्लामिक धर्म के अन्य संस्थानों से जुड़े हैं. इन नेताओं के पास धर्म की कुंजी हाथ में होने के कारण आम कश्मीरी के दिलो-दिमाग को प्रभावित करने का उपयुक्त मौका रहा है. हुर्रियत नेताओं का एकमात्र काम भारत विरोधी प्रचार करना है, जिससे भारत एक दुश्मन अत्याचारी देश दिखे. इस प्रचार-प्रसार में मस्जिदों की अहम भूमिका रही है, और इस प्रचार को मान्यताप्राप्त दर्जा देने का काम स्थानीय भाषा में छप रहे कई अखबार और सोशल मीडिया कर रहे हैं. हुर्रियत आतंकवादियों की राजनीतिक आवाज है, जिसको पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के असली प्रतिनिधि के तौर पर पूरे विश्व में पेश करता आया है.
पाकिस्तान के लिए हुर्रियत नेता तोते की तरह उनकी बोली बोलते आए हैं. बदले में पाकिस्तान इन नेताओं को ढेर सारा पैसा देता रहा है. पैसा हवाला के जरिए या धार्मिंक दान के जरिए आता है. पिछले दो दश्क में हुर्रियत नेताओं ने ‘कश्मीर-की-आजादी-के-लिए-जिहाद’ के नाम पर कई हजार करोड़ रुपये लिए हैं. सिर्फ पाकिस्तान से ही नहीं बल्कि अन्य देशों में चल रहे विभिन्न संगठनों से भी पैसा लिया जा रहा है. मगर सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि हुर्रियत के नेताओं को सरकारी गुप्त कोष से पैसा मिलता आया है. कितनी हैरानी की बात है यह. पूर्व सेना प्रमुख और अब केंद्र में मंत्री जनरल वीके सिंह ऐसा कह चुके हैं, और खुफिया विभाग के पूर्व निदेशक एके दुल्लत ने भी यह बात कही है.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय तो हुर्रियत को बातचीत के लिए केंद्र सरकार ने बुलाया भी था, और दो बार लाल कृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता मे वार्ता भी हुई. उन दिनों तो हुर्रियत और अन्य कश्मीरी अलगाववादी नेताओं को अपनी तरफ रिझाने के लिए केंद्र और जम्मू-कश्मीर सरकार ने हर संभव कदम उठाए थे. कहा जाता है कि इनमें से कुछ नेताओं को बड़े अस्पतालों में मुफ्त इलाज, होटलों में रहना, विदेश यात्रा, परिवार के सदस्यों को नौकरी, 24 घंटे सुरक्षा जैसे कई सुविधाएं दी गई और रुपया-पैसा भी.
कहा जा रहा है कि इस सब में 100 करोड़ रुपये से ज्यादा अब तक खर्च किया जा चुका है. तो प्रश्न यह उठता है कि हुर्रियत के खिलाफ कार्रवाई करने में 25 साल क्यों लगे? हुर्रियत और अन्य अलगाववादी नेताओं ने हमेशा पाकिस्तान के समर्थन में काम किया है, तो फिर इतने साल में उनके खिलाफ कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया गया? घाटी में यह बात छिपी नहीं है कि बीते दशक में इन अलगाववादी नेताओं की आर्थिक हैसियत कई गुणा बढ़ गई है.
कई नेता आज करोड़ों की संपत्ति के मालिक हैं. जो बात इतनी आम है वो सरकारी तंत्र को इतने सालों में क्यों नहीं दिखी? दिखी तो कार्रवाई न करने का फैसला किनका था? हुर्रियत ही नहीं जम्मू-कश्मीर में ऐसे कई संगठन, एनजीओ और पार्टयिां हैं, जो देश-विदेश से पैसा बटोरती आई हैं. हुर्रियत के खात्मे के लिए किसी जादुई छड़ी या सुपरमैन की जरूरत नहीं है. जरूरत है तो शुद्ध कानूनी कार्रवाई की. मान लेने में हर्ज नहीं कि हुर्रियत आपराधिक विचारधारा है, और इनके अंत से ही घाटी में शांति संभव है.
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