सामयिक : किसान, गांव और गांधी

Last Updated 29 Jun 2017 05:52:29 AM IST

मंदसौर एक नया और ताजा प्रतीक हो गया है भारतीय किसान की बदहाली का. पर मामला सिर्फ किसान की बदहाली का नहीं है.


सामयिक : किसान, गांव और गांधी

हालांकि जब भी कोई ऐसा मामला आता है जिसमें बड़ा जनसमूह शामिल रहता है तो सरकार जो फौरी कार्रवाई करती है उसमें एक तात्कालिकता भी होती है और समस्या से जल्द निजात पाने की हड़बड़ी भी.

महाराष्ट्र में किसानों ने हाल में आंदोलन शुरू किया तो वहां की राज्य सरकार ने भी किसानों के हित में कहे जाने वाले कई कदम उठाए. मध्य प्रदेश में चूंकि पुलिस की गोलियों से कुछ किसानों की मुत्यु हुई तो वहां भी सरकार हरकत में आई और मुख्यमंत्री अनशन पर बैठे. जिस सरकार की पुलिस गोलीबारी कर रही है और किसानों के साथ बेहद अंसेवेदनशील व्यवहार कर रही है उसी का मुखिया अनशन पर बैठने लगे तो ये विडंबना ही है, छल भी.

लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ये भी दिखाना था कि वे संवेदनशील भी हैं और अनशन उनको ऐसा नुस्खा लगा जिसका इस्तेमाल ऐसे मौके पर अपने पक्ष में किया जा सकता है. कुछ राज्य सरकारें किसानों की कर्ज माफी कर रही हैं. कुछ आगे चलकर करेंगी.

भले ही केंद्र सरकार के कुछ मंत्री ये माने और कहें कि कर्ज माफी एक फैशन हो गया है पर इसके सिवा राज्य और केंद्र की सरकारों को कोई रास्ता भी नहीं सूझता, जिससे वे अपनी छवि बेहतर बना सकें और जलती हुई समस्या पर पानी डाल सकें. और ये इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि सचमुच भारतीय किसान कर्ज के मकड़जाल में फंसता जा रहा है.

अगर उसकी कर्जमाफी नहीं की गई तो उसके सामने भविष्य अंधेरा ही बना रहता है. पर फिर ये दुहराना जरूरी है कि मामला सिर्फ  कर्ज माफी का या किसान की बदहाली का नहीं है. इसे समझने के लिए थोड़ा गांधीजी के पास जाना होगा. गांधी जी ने भारत में खादी और ग्रामोद्योग शुरू किया था? क्यों?

इसका जवाब पाने के लिए रॉकेट विज्ञान के अध्ययन की जरूरत नहीं है. संक्षेप में और मोटे तौर पर कहें तो आजादी की लड़ाई के दौरान भारत के सुदूरतम इलाकों की यात्रा के दौरान गांधीजी ने महसूस किया कि भारतीय खेती मानसून पर निर्भर है और इस कारण किसान के पास साल में चार महीने में उस तरह काम नहीं होते, जिसमें वह कुछ उपार्जन कर सके.

इसीलिए गांधीजी ने खादी और ग्रामोद्योग की शुरु आत की थी. और इसे ही आजादी के बाद हम भुला बैठे और मौजूदा राज्य और केंद्र सरकारें भी इसकी तरफ ध्यान नहीं देतीं. अगर कोई  आज भी भारत के सूदूरवर्ती इलाकों की यात्रा करे तो पाएगा कि गांधीजी की प्रेरणा से शुरू हुए  खादी और ग्रामोद्योग केंद्र लगभग बंद से हैं. उनकी तरफ न सरकार का ध्यान है और न समाज का. पर इस पहलू की अनदेखी के नतीजा ये हुआ कि गांव में रोजगार की संभावनाओं को गहरा धक्का लगा. औद्योगिक क्रांति की जिस आंधी में भारतीय कपड़ा उद्योग, खासकर हथकरघा, ध्वस्त हुआ उसने आजादी के बाद के भारत को भी चपेट में ले लिया.

एक हद  तक औद्योगीकरण की जरूरत भी थी लेकिन जिस तरह ग्रामीण रोजगार की पूरी तरह अनदेखी की गई उसने किसानों को पूरी तरह खेती पर निर्भर कर दिया. फिर जनसंख्या की बढ़ोतरी के कारण परिवार में जोत की जमीन के टुकड़े होते गए. ग्रामीण रोजगार पहले भी चौपट हो चुका इसलिए किसान की हालत और पतली होती गई. सिर्फ  खेती से कितनी कमाई होगी?  औद्योगीकरण और शहरीकरण फैलने लगे लेकिन उसमें गांव के किसानों के लिए कितनी संभानाएं थी? जो पढ़े लिये थे उनमें कुछ को  सरकारी नौकरियां  मिलीं और जो नहीं पढ़े लिखे थे, उनमें से ज्यादातर शहरों में मजदूर बन कर गांव से विदा हुए.

अगर अभी भी बचे-खुचे खादी और ग्रामोद्योग केंद्रों को सक्रिय किया जाए तो कुछ हद तक संकट को कम किया जा सकता है. दूसरी बड़ी समस्या है खेती का व्यावसायीकरण. ये गौर करने की बात है कि बिहार जैसे पिछड़े कहे जानेवाले राज्य में किसानों की आत्महत्या की खबरें नहीं आती लेकिन महाराष्ट्र या कर्नाटक से आती हैं. वो इसलिए कि महाराष्ट्र या कर्नाटक जैसे राज्यों में खेती का व्यावसायीकरण हो गया है या हो रहा है. सुनने में व्यावसायीकरण अच्छा लगता है लेकिन इसका वास्तविक मतलब हो गया है विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विदेशी बीजों और कीटनाशकों  के माध्यम से भारतीय खेती पर बढ़ता वर्चस्व.

कपास के विदेशी बीजों के कारण महाराष्ट्र का किसान कितना लुट गया है इसके बारे में काफी कुछ अध्ययन भी हो चुका है. लेकिन उसकी तरफ न नीति-निर्माताओं का ध्यान है और न नेताओं का. इसका एक कारण ये भी है कि विदेशी बीज कंपनियों के भारत में प्रतिनिधि कुछ नेताओं से संबंधित कंपनियां है. इस तरह विदेशी बीज कंपनियों और भारतीय राजनीति का न्यस्त गठबंधन हो चुका है.

खेती के व्यावसायीकरण का दूसरा नतीजा हुआ है उर्वरकों और कीटनाशकों का अधिकतम प्रयोग और भूजल का अध्यधिक दोहन. उर्वरकों और कीटनाशकों को इस्तेमाल के लिए भी भारतीय किसान काफी कर्ज लेता है. पशुपालन की उपक्षा के कारण भी और चारे की बढ़ती कीमतों के कारण भी देश में बड़े पैमाने पर खेती अब ट्रैक्टर से हो रही है. पर ट्रैक्टर के कारण पशुपालन उपेक्षित हो गया और इसलिए देसी उर्वरक बनना रुक सा गया. औद्योगिक उर्वरकों के कारण खेती की उपज क्षमता भी कम हो रही है.

उपज बढ़ाने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा उर्वरक चाहिए और उसके लिए अधिक-से-अधिक कर्ज. यानी भारतीय किसान के  सामने कई चक्रव्यूह है और उसको वेध पाना उसके लिए लगातार जटिल होता जा रहा है. भारतीय किसान ऐसे विषम युद्ध में फंस गया है कि उसकी हार निश्चित है. कोई पूछेगा कि क्या ऐसे में सिर्फ  निराश ही हुआ जा सकता है या सिर्फ अरण्यरोदन की किया जा सकता है. नहीं. रास्ता है. वह रास्ता जो गांधीजी ने सुझाया था. किंतु उनको तो अब सिर्फ  ‘चतुर बनिया’ कहा जा रहा है. ऐसे में आप सरकार से क्या अपेक्षा करेंगे? कर्ज माफी के अलावा. उसमें भी कई तरह के किंतु-परंतु हैं.

रवीन्द्र त्रिपाठी
लेखक


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