ये सांप्रदायिकता विरोधी धर्मनिरपेक्ष ताकतें

Last Updated 19 Feb 2017 05:25:36 AM IST

उत्तर प्रदेश के इन चुनावों में लोग बंद आंखों से भी देख सकते हैं कि नेताओं का आचरण, उनकी बोली-भाषा, उनके आरोप-प्रत्यारोप, उनके वादे-इरादे और उनके जीत के दावे अशालीनता और झूठ की सारी हदें पार कर गए हैं.


ये सांप्रदायिकता विरोधी धर्मनिरपेक्ष ताकतें.

घर बैठे सर्वोच्च न्यायालय, घर बैठे चुनाव आयोग, चुनावों को हिंदू -मुसलमान होना था, और चुनाव हिंदू-मुसलमान होकर ही रहे. कुछ मौलाना मायावती के पक्ष में फतवे दे चुके हैं, और कुछ अखिलेश यादव के पक्ष में और कुछ इन दोनों से अलग मौलाना ओवैसी पर दांव लगाने की दलीलें दे रहे हैं. अब तक पूरे हो चुके चरणों की जीत-हार का आकलन इससे किया जा रहा है कि कितने मुसलमान किधर गए, उन्होंने अखिलेश को चुना या मायावती को. और आगे के चरणों का चढ़ावा भी इससे तय होगा कि किस क्षेत्र के मुसलमान कितनी बड़ी-छोटी संख्या में किसके पक्ष में बटन दबाएंगे. इस समूचे खेल में हिंदू-मुस्लिम नेताओं ने अपनी-अपनी जमातों से क्या कहा, क्या समझाया, उन्हें कैसे डराया-भड़काया और क्या किया-धरा, यह सब खुले खेल के तौर पर हुआ, हो रहा है, और इसे सब जानते हैं. लेकिन हमारे कथित सांप्रदायिकता विरोधी दलों और उनके नेताओं ने क्या किया या वे क्या कर रहे हैं, इसे भी देखना जरूरी है. यह देखना भी जरूरी है कि इन धर्मनिरपेक्षों की धर्मनिरपेक्षता कहां पहुंच रही है, और इनका सांप्रदायिकता विरोध आखिर, उत्तर प्रदेश को कहां ले जा रहा है.

उत्तर प्रदेश में इस समय जीत की दावेदारी करने वाली जो तीन राजनीतिक चुनावी संरचनाएं हैं, वे हैं, अगड़ी जातियों के मूलाधार के साथ हिंदुत्व के नाम पर शेष अन्य दलित-पिछड़ी जातियों को संघटित करने वाली भाजपा की संरचना; पिछड़ी जाति यादव के मूलाधार वाली मुसलमानों को संघटित करने वाली संरचना; और तीसरी दलित जाति जाटव के मूलाधार वाली अन्य दलितों के साथ-साथ मुसलमानों को संघटित करने वाली संरचना. इन तीनों संरचनाओं में अकेले भाजपा की संरचना ऐसी है, जो न तो धर्मनिरपेक्ष है और न सांप्रदायिकता विरोधी. बाकी दोनों संरचनाओं का दावा यह है कि वे धर्मनिरपेक्ष भी हैं, और सांप्रदायिकता विरोधी भी. लेकिन इन दोनों संरचनाओं की धर्मनिरपेक्षता और इनका सांप्रदायिकता विरोध बिना किसी स्पष्ट सैद्धांतिकता के भाजपा के साथ उनकी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से तय होते हैं.

इन दोनों संरचनाओं की मजबूरी है कि उनके अपने-अपने जातीय आधार इतने मजबूत नहीं हैं कि वे अपने अकेले बूते उतनी विधायक शक्ति हासिल कर सकें, जितनी कि सत्ता में प्रतिष्ठित होने के लिए जरूरी है. इन दोनों ही संरचनाओं को वांछित विधायक शक्ति पाने के लिए मुसलमानों का साथ चाहिए. मुसलमानों का साथ इन्हें इसी शर्त पर मिलता है, या मिल सकता है कि ये दोनों भाजपा के विरोध में स्वयं को मुसलमानों के हितैषी घोषित करें. दोनों में से कोई भी यह कहने की ईमानदारी नहीं बरत सकता कि वे वस्तुत: सत्ता के लिए ऐसा कर रहे हैं. अपने सत्ताई इरादे को ढंकने का मुखौटा उन्हें धर्मनिरपेक्षता में मिलता है. भाजपा का विरोध करने और मुसलमानों को साथ लेने के दोनों काम उनके इस सूत्र से सध जाते हैं कि वे धर्मनिरपेक्ष हैं, या कि सांप्रदायिकता विरोधी हैं. यहां उनके लिए समूची धर्मान्धता और सांप्रदायिकता  सिर्फ भाजपा में निहित हो जाती है, या भाजपा के हिंदुत्ववादी चरित्र में.



मुसलमानों की धार्मिकता या उनकी सांप्रदायिकता के विरोध में ये दोनों जाति-आधारित संरचनाएं न स्वयं को धर्मनिरपेक्ष घोषित करती हैं, और न सांप्रदायिकता विरोधी. इनकी धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता विरोध की हदें केवल भाजपा के विरोध तक पहुंचती हैं. उसके बाद न इन्हें  धर्मनिरपेक्षता से कोई लेना-देना होता है, न सांप्रदायिकता विरोध से.
दलित और यादव राजनीतिक संरचनाओं का जातीय आधार इन्हें \'सांप्रदायिक ताकतों\' को रोकने का एक विशेष और सुविधाजनक औजार उपलब्ध करा देता है. दोनों की संरचनाओं के समर्थक जाति समूह सत्ताकांक्षी हैं, और अपनी-अपनी सत्ताकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने धर्म के बजाय अपने-अपने जातीय संघटन को ज्यादा तरजीह देते हैं, जिसके कारण इनके नेतागण मुसलमानों के साथ सौदाकारी गठजोड़ की स्थिति में आ जाते हैं.

अगर इनके पास अपने-अपने जातीय आधार नहीं होते तो उनके पास मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने को कोई अन्य पूंजी नहीं होती. और अगर बहुत-सी सीटों पर मुस्लिम मत चुनावी जीत के लिए निर्णायक नहीं होते तो वे सांप्रदायिकता के विरोध के इस औजार को हाथ तक नहीं लगाते. तब शायद वे जातीय विग्रहों को भुनाने की कोशिश ज्यादा करते. वस्तुत: भारतीय समाज में जो जातीय और सांप्रदायिक विग्रह हैं, वे ही उत्तर प्रदेश के सभी राजनीतिक दलों की चुनावी राजनीति का पोषण कर रहे हैं. जो राजनेता चुनावी मंचों से घोषणा करते हैं कि वे जाति और संप्रदाय की राजनीति नहीं करते वे वस्तुत: सफेद झूठ बोलते हैं, फिर चाहे वे राजनेता इस दल के हों या उस दल के.

सच्चाई यह है कि \'सांप्रदायिक ताकतों\' को सत्ता में आने से रोकने की चाहत रखने वाली कथित सांप्रदायिकता विरोधी ताकतें सांप्रदायिक सापेक्षता और जाति सापेक्षता की खतरनाक राजनीति कर रही हैं. वे एक के विरुद्ध दूसरे को खड़ा करके न केवल दोनों ही संप्रदायों के बीच की अविश्वास और वैमनस्य की खाई को चौड़ा कर रही हैं,  बल्कि उनके बीच की कट्टरताओं को बढ़ावा देकर समन्वयकारी संस्कृति की संभावनाओं को भी नष्ट कर रही हैं. एक संदर्भ तीन तलाक के मसले का उठा लिया जाए तो  देखकर हैरानी कम दुख ज्यादा होता है कि मुस्लिम महिलाओं की तीन तलाक विरोधी आवाज को समर्थन भाजपा खेमे से मिल रहा है, और जिन दलित और \'समाजवादी\' खेमों से वस्तुत: समर्थन मिलना चाहिए था, वे उसे किसी की निजी धार्मिक व्यवस्था में जबरिया और अवांछित हस्तक्षेप करार दे रहे हैं. ये खेमे भूल जाते हैं कि हिंदू धर्म की व्यवस्थाओं में वांछित हस्तक्षेप नहीं होता तो आज वे कहीं नहीं होते.

दरअसल, देश का समूचा संविधान ही धार्मिक व्यवस्था में हस्तक्षेप है. सार्विक मताधिकार से लेकर स्त्री-पुरुष की वैधानिक समानता के अधिकारों तक की सारी सांविधिक व्यवस्थाएं धार्मिक व्यवस्थाओं में सीधे हस्तक्षेप से ही अस्तित्व में आई हैं. लेकिन \'सांप्रदायिकता विरोधी\' ये कथित ताकतें राजनीतिक स्वार्थ से अंधी होकर हर उस संभावना के विरुद्ध खड़ी हो गई हैं, जिससे देश का सामाजिक माहौल सही दिशा में अंगड़ाई लेता हो. इन्होंने \'धर्मनिरपेक्षता\' और \'सांप्रदायिकता\' जैसे पदों की इकतरफा व्याख्या से सामाजिक अंत:प्रक्रिया के लिए इन्हें निर्थक कर दिया है. यह एक डरावने भविष्य की ओर संकेत करने वाली स्थिति है.

विभांशु दिव्याल


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