मीडिया : तिरछा है इस क्रोध का चेहरा

Last Updated 29 Jan 2017 03:54:47 AM IST

ये क्रोध के दिन हैं. जहां-तहां क्रोध फूटता रहता है, मीडिया उसे दिन-रात दिखाता रहता है.


सुधीश पचौरी

क्रोध को देख आदमी क्रोधित दिखने को मूल्यवान मानने लगता है, और क्रोध की मुद्रा अपनाने लगता है. पिछले दिनों वह जलीकट्टू में दिखा. अब कंबला के लिए बेंगलूरू में दिखने वाला है, और हो सकता है उसका अगला चेहरा महाराष्ट्र में दिखे. फिर कहीं और दिखे फिर कहीं और दिखे. मरीना बीच पर जो सात दिन लंबा जो क्रोध दिन-रात दिखा, उसमें कई तरह के क्रोध फनफनाते थे, जो जलीकट्टू की जिद में बदल गए.

मीडिया ने दिन-रात दिखाया तो उससे और द्विगुणित होकर क्रोध फैला और वह एक ‘पॉपुलर और आकषर्क मुद्रा’ बन गया. मरीना बीच पर अड़े नौजवान बताते रहे कि कावेरी का मसले पर तमिल का अपमान हुआ है.हिंदी के थोपे जाने से अपमान हुआ है. अम्मा के स्वर्गीय होने से अनाथत्व आया है, और तमिल पहचान ‘पेटा’ की और कानून की तानाशाही के दमन दबाव रहने को मजबूर किया जा रहा है..! क्यों? हमदबकर नहीं रहने वाले! मीडिया ने इस प्रकट क्रोध के प्रकट कारणों पर विचार किया करवाया. वह अप्रकट कारणों की ओर नहीं गया.

इन तमाम कारणों के साथ एक बड़ा कारण ‘नोटबंदी के विरुद्ध एक दमित और अव्यक्त क्रोध’ भी हो सकता है. यह किसी ने नहीं विचारा जबकि नोटबंदी के खिलाफ एक अव्यक्त क्रोध भी अस्मितावादी क्रोध के साथ कहीं न कहीं शामिल रहा हो सकता है. इसे मीडिया के बरक्स जनता के उस अ-संवाद को देखें और उस एक फटाफट ऑनलाइन सर्वे को याद करें जिसने इस क्रोध को भांप कर उसे कंट्रोल करने के लिए कुछ इस तरह परिभाषित किया कि नोटबंदी से जनता खुश है. नोटबंदी के साथ है. हो सकता है कि जनता प्रकटत: शायद उस तरह साथ हो जिस तरह साथ बताई गई लेकिन अचानक नोट बदलने के लिए मजबूर की गई जनता के पास चुपचाप लाइन में लगने और पैसा लेने के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था कि अपनी नाराजी प्रकट करती.

नोटंबदी के प्रवक्ताओं ने कुशलता से अहसास को जमाया कि काला धन हटेगा और गरीबों को मिलेगा. समाजवाद आएगा. इसलिए तकलीफ सही जाने योग्य है. अगर नोटबंदी में अमीर को दबाकर गरीब को उठाने की छलना न होती तो वह उस तरह पसंद नहीं बताया जा सकता था जिस तरह बार-बार बताया गया. बार-बार बताया जाकर एक असत्य भी सत्य हो गया. यह काम मीडिया का था कि वह इस दबे हुए क्रोध को बोलने देता. अगर बोलने देता तो शायद मरीना बीच का तमिल प्राइड वाला शो उस तरह न बनता जिस तरह बनता दिखा और मीडिया के लाइव कवरेज द्वारा सौगुना बनाया गया.

नतीजा यह कि आनन-फानन में सरकारें झुकीं कानून कमजोर नजर आया और तमिल प्राइड ने जीत का जन मनाया. लेकिन कंपटीटिव अस्मिताओं ने और मीडिया में दृश्य बनकर रहने के बढ़ते शौक ने कर्नाटक की पहचान के सवाल भी उठा दिए. टीवी में कवर होतीं पहचानवादी जिदें किसी फिल्म की तरह ही सुपरहिट दिखना चाहती हैं. ‘हम किसी से कम नहीं’ वाला मंजर है, जो खुल गया है जो मीडिया के लिए खास तैयार हो रहा है. विकासवादी ढांचे के बरक्स यह एक तरह की ‘घर वापसी’, अंध सांस्कृतिकवाद की वापसी और ‘अनक्रिटीकल कल्चर’ की वापसी है.

सवाल यह कि जलीकट्टू का लौटना क्या पांच हजार साल पुरानेपन का लौटना है, या कि कल को कर्नाटक में आठ सौ साल पुरानी दो बैलों की दौड़ की बहाली उसी कंबला को वापस कर सकती है,जिसको प्राप्त करने के लिए जिद की जा रही है? इस अंध सांस्कृतिकवाद के जनून में जलीकट्टू या कंबला की वापसी कर लीजिए, कल को आप ‘सती प्रथा’ या ‘बाल विवाह’ की परंपरा को बहाल करने के की जिद करेंगे और मीडिया अपनी टीआरपी के लिए शायद उसे भी बनाए दिखाए. उसमें परंपरा के नाम पर शायद सबसे घिनौनी चीजें बहाल हो जाएं तब भी क्या को कल्चर या प्राइड की वापसी हो सकेगी? जी नहीं! होगा तो इतना कि कल्चर की वापसी के नाम पर कुछ नए ब्रांड बन जाएंगे.

नई कंज्यूमर इंडस्ट्री खड़ी हो जाएगी और फिर नए प्राइड की बात होने लगेगी. इसका कारण यही है कि हमारे सामाजिक विकास के समकालीन दौर में क्रोध क्रोध की तरह नहीं आता. क्रोध के असली कारण को दबाकर आता है और कुछ का कुछ मांगने लगता है क्योंकि जो क्रोध है, जो मांगें हैं, वे दमन और दबाव के डर से विकृत हो जातींहैं. इन दिनों हम संस्कृति की जगह वि-संस्कृतियों के युद्धों में प्रवेश कर रहे हैं. बच्चे जब क्रोध व्यक्त नहीं कर पाते तो क्रोध तिरछा होकर ही निकलता है!

सुधीश पचौरी
लेखक


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