प्रसंगवश : स्वराज्य जन्मसिद्ध हक्क आहे
इस बार का गणतंत्र दिवस खास था. खास इसलिए कि आज से एक सदी पहले 1916 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की सिंह गर्जना गूंजी थी कि ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’.
![]() गिरिश्वर मिश्र |
आज के धुरीहीन और नैतिक गिरावट वाले राजनैतिक माहौल में उनका स्मरण सुकून और भरोसा देने वाला है. तिलक ने गणतंत्र के विचार को लेकर इस गुलाम देश में एक मशाल जलाई थी. अंग्रेजी शासन वाले उस दौर में देश के लिए स्वतंत्रता स्वप्न सरीखी थी.
तिलक ने 1881 से 1920 तक पूरे चार दशक तक देश की स्वतंत्रता के लिए पूरी तरह समर्पित हो कर काम किया. उन्होंने अनुभव किया भारत के लोग अच्छे जीवन के अधिकारी हैं. उनकी स्मृति में वह भारत था, जो 12वीं सदी तक वैश्विक स्तर पर एक प्रतिष्ठित राष्ट्र था. ज्ञान के अनेक क्षेत्रों में उसकी अपनी महान परम्पराएं थीं. आर्थिक दृष्टि से भी उसकी अच्छी स्थिति थी. पर बाहरी देशों ने आक्रमण कर यहां की सम्पदा को लूटा और नष्ट किया. बाद में अंग्रेज व्यापारी के रूप में आए और शासक बन बैठे. उन्होंने भारत को भारत के लिए अपरिचित बनाने की साजिश की और अंग्रेजी शिक्षा और नौकरशाही के सहारे समाज के मानस को बदलने की भरपूर कोशिश की.
तिलक ने भारत राष्ट्र को न केवल नैतिक नेतृत्व प्रदान किया, बल्कि राष्ट्रीय सम्मान के अवसर भी खोजे. तिलक ने भारत की ज्ञान और संस्कृति की परम्पराओं को समझा, उनसे प्रेरणा ली और समाज में देश के लिए गौरव का भाव भरा. उन्होंने परिस्थिति को बदलने के लिए कई तरह की कोशिशें कीं. उन्होंने शिक्षा में सुधार के लिए दक्कन शिक्षा सोसाइटी, फर्ग्यूसन कॉलेज और न्यू इंग्लिश स्कूल जैसी संस्थाओं की स्थापना की. समाज के साथ संवाद के लिए मराठी में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘महरटा’नामक अखबार शुरू किए और अंग्रेजी राज में गरीबी और अन्याय की सच्चाई को सामने रखा.उनके लिए स्वराज्य की बात कोरी भावना न थी. उनका मूल उद्देश्य जनता को जगाने और पूरे राष्ट्र में जीवन का संचार करना था. 1916 में ‘होम रूल लीग’ ( स्वराज्य संघ ) स्थापित की. स्वराज्य का अर्थ जनता का राज था. तिलक ने गणतंत्र और सम्पूर्ण स्वतंत्रता की पुरजोर वकालत की. उन्होंनेजोरदार ढंग से यह कहा कि ‘हम अपना घर अच्छी तरह संभाल सकते हैं और चला सकते हैं.’ उनका स्पष्ट मत था कि स्वाधीनता जीवन का लक्ष्य है, और इसे हमें अर्जित करना चाहिए.
तिलक के जीवन में स्वतंत्रता की आकांक्षा सर्वप्रमुख थी. वे मानते थे कि भाषाओं, मतों और विश्वासों की भिन्नता के बावजूद भारत वैदिक संस्कृति के सूत्र से बंधा हुआ है. अमेरिकी स्वतंत्रता को ध्यान में रखकर वे क्षेत्रीय स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता के हिमायती थे. पंथनिरपेक्ष सरकार और सबके लिए समान अवसर हों. पहले विश्व युद्ध की आहट आ रही थी, और तिलक ने देश में स्वराज्य का डंका बजाया. ‘गीता रहस्य’ तिलक की युगांतरकारी रचना थी, जिसने स्वतंत्रता संग्राम का दार्शनिक आधार प्रदान किया.
बाद में गांधी जी ने स्वराज्य के विचार को आगे बढ़ाया और उसे सुराज के भाव तक पंहुचाया. गांधी जी के शब्दों में तिलक आधुनिक भारत के वास्तुकार थे. अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बने क्योंकि वे उन्हें भारत में राजनैतिक उपद्रव का मुख्य रचनाकार मानते थे. लाला लाजपत राय, बालगंगाधरतिलक और बिपिन चन्द्र पाल, लाल-बाल-पाल की त्रयी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक नया विमर्श दिया.
तिलक मानते थे कि व्यक्ति के कल्याण से देश के कल्याण का अधिक महत्त्व है. यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता से सामाजिक कल्याण के लिए खतरा पैदा होता है, तो समाज और राज्य को चाहिए कि वे गैर-कानूनी और अनैतिक व्यवहार को नियंत्रित करें. तिलक ने लोक-शक्ति का महत्त्व पहचाना, समाज के सभी वगरे को जोड़ा और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का महत्त्व समझाया. ऐसा कर वे ‘लोकमान्य’ हुए. उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के चार स्तंभों को प्रतिपादित किया था : स्वराज्य, स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा. इस सूत्र ने अंग्रेजों से लड़ने का एक धारदार परंतु अहिंसक हथियार तैयार किया था.
स्वदेशी का विचार देशी खेती, उद्योग, अपनी आर्थिक नीति, प्रौद्योगिकी पर बल देती थी. राष्ट्रीय शिक्षा की उनकी अवधारणा में प्राचीन और आधुनिक, दोनों तरह के ज्ञान का समावेश था. उन्होंने नि:स्वार्थ भाव से राष्ट्रीय रु चि के लिए काम करने का आह्वान किया.
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