परत-दर-परत : दर्शन और प्रदर्शन के बीच की दूरियां

Last Updated 29 Jan 2017 03:44:52 AM IST

देश की राजधानी दिल्ली में छब्बीस जनवरी की परेड देख कर प्रसन्नता होती है.


राजकिशोर

इतने सुंदर लोग, इतनी सुंदर कलाएं, सेना का ऐसा पराक्रम और कौशल, इतना अनुशासन, सुव्यवस्था, त्रुटिहीनता, शालीनता जिसकी सामान्य वक्तों में हम कल्पना तक नहीं कर सकते. अपने देश पर गर्व होने लगता है. लगता है, हम एक सुंदर, व्यवस्थित, अनुशासित देश के सदस्य हैं. कभी-कभी जरूर हसरत होती है कि इतना सब कुछ दिखाया जा रहा है, पर मरता और कराहता हुआ किसान क्यों नहीं दिखाया जा रहा है, बेरोजगार युवाओं की टोली क्यों नहीं दिखाई जा रही है, कुपोषित नंग-धड़ंग बच्चे क्यों नहीं दिखाए जा रहे हैं, झुग्गी-झोपड़ियां क्यों नहीं दिखाई जा रही है?

अगर यहसब भी दिखाया जाता, तो हम मानते कि भारत की सच्ची तस्वीर हमारे सामने पेश की जा रही है. हम अपनी ताकत को जानते हैं, तो अपनी कमजोरियों से नावाकिफ नहीं हैं. हमें अपनी उपलब्धियों पर फक्र है, तो देश के सम्मुख उपस्थित चुनौतियों का भी पता है. लेकिन यह एक स्वप्न ही है. किस देश का शासन अपनी कमजोरियों का सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकता है? कौन-सी सरकार अपनी नाकामियों को स्वीकार कर सकती है? इसलिए कहा जा सकता है कि गणतंत्र दिवस का परेड जितना बताती है, उससे ज्यादा छिपाती है.
इस अवसर पर किसी विदेशी अतिथि को बुलाने की प्रथा है. इस साल एक ऐसे व्यक्ति को चुना गया है जो राजतंत्र का प्रतिनिधि है. इस पर आपत्ति करते हुए कहा गया है कि यह एक लोकतांत्रिक देश के लिए शोभा नहीं देता. अगर हम वाकई लोकतांत्रिक हैं, तो हमें राजतंत्र का ऐसा स्वागत क्यों करना चाहिए?यह आपत्ति बिल्कुल बेदम नहीं है. किसी व्यक्ति को इससे पहचाना जा सकता है कि उसके दोस्त कैसे हैं! इसी तरह, किसी देश को इससे पहचाना जा सकता है कि उसके अतिथि कैसे हैं.

यह सच है कि किस देश में लोकतंत्र होगा और कहां राजतंत्र, इसका चुनाव हम नहीं कर सकते. यह निर्णय तो उस देश के लोग ही करेंगे. कुछ देशों में बादशाहत अभी बची हुई है, और जनतंत्र नहीं आ पाया है, तो यह उन देशों का दुर्भाग्य है, तो इसमें हम क्या कर सकते हैं. लेकिन सिर्फ इसलिए उन देशों के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता. उनसे भी राजनयिक संबंध बनाना पड़ता है. इस तर्क को कौन झुठला सकता है? ऐसे देशों से भी मधुर संबंध बनाए रखने की जरूरत है, और हमारे नेता वहां जा सकते हैं, और उनके नेता हमारे यहां आ सकते हैं.लेकिन गणतंत्र दिवस एक खास दिन है. हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय उत्सव. इस अवसर पर विशेष अतिथि के रूप में किसे बुलाया जाता है, यह हमारे राजनीतिक रु झान को भी व्यक्त करता है. भविष्य में इस मामले में सचेत रहने की जरूरत है.

इसी तरह, गणतंत्र दिवस की परेड में जिस समृद्धि, ऐर्य, खुशहाली का प्रदर्शन किया जाता है, वह परेड से बाहर निकलने के बाद देश में चारों तरफ दिखाई क्यों नहीं देती? क्यों भारत के अधिकांश हिस्से गरीबी, अशिक्षा, गंदगी, अव्यवस्था के अंधेरे में डूबे हुए नजर आते हैं? जिन्हें भारत पर गर्व है, वे इन कुरूपताओं को क्यों नहीं देख पा रहे हैं? साफ है कि दर्शन और प्रदर्शन में फर्क है, जिनके पास दर्शन की शक्ति नहीं है, वह प्रदर्शन में इतनी रु चि ले सकता है. गणतंत्र दिवस की परेड के लिए महीनों पहले से जितनी तैयारी होती है, उसका आधा भी सामान्य वक्तों में दिखाई दे, तो यह हरा-भरा देश सचमुच स्वर्ग हो सकता है.

गणतंत्र दिवस की परेड देख कर उन दृश्यों की याद आती है, जिनकी सृष्टि किसी मंत्री, वह प्रधान या मुख्य हो तब तो और भी ज्यादा, के दौरे पर की जाती है. जिस रास्ते से मंत्री को गुजरना होता है, उसे पहले से ही साफ-सुंदर बना दिया जाता है. सड़क के किनारे स्थायी रूप से लगने वाले खोमचों को उजाड़ दिया जाता है. पेड़ों में कैंची लगा दी जाती है. सड़क के गड्ढों को भर दिया जाता है. जब कोई अधिकार स्कूल का दौरा करता है, तो उसे दिखाने के लिए स्कूल के परिवेश को इतना साफ-सुंदर कर दिया जाता है जैसे वह उस इलाके का आदर्श स्कूल हो. इसी तरह, किसी बड़े अधिकारी को दिखाने के लिए ऑफिस को मल-मल कर साफ किया जाता है, और यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि यहां सब कुछ शिष्ट और व्यवस्थित है.
यह प्रदर्शनवाद यथार्थ के दर्शन में बाधा पैदा करता है, हालांकि ये दौरा करने वाले मंत्री और अफसर अच्छी तरह जानते हैं कि यथार्थ वास्तव में क्या है. कहने की जरूरत नहीं कि आंख-कान मूंदे रखने की इस आदत के परिणामस्वरूप ही स्थितियों में सुधार नहीं आ पाता और कुरूपताएं अपनी जगह बनी रहती हैं.

यह सच है कि दर्शन और प्रदर्शन के बीच की दूरी मान स्वभाव का अंग है. हम वैसा होते नहीं हैं, जैसा दिखना चाहते हैं. पर्व-त्योहार के दिन सभी अपने को अपनी सुंदरतम वेशभूषा में पेश करते हैं. मेहमान आने वाला होता है, तो घर को विशेष रूप से सजाया जाता है. खास-खास मौकों पर स्त्रियों की सुंदरता और साज-सज्जा देखते ही बनती है. विचारणीय प्रश्न यह है कि सामान्य वक्तों में हम इसका आधा भी सुव्यवस्थित और सलीकेदार क्यों नहीं हो सकते? हमारा सौंदर्यबोध विशेष अवसरों पर ही क्यों व्यक्त होता है?



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