समाज : लंपटता से संक्रमित देश का देहात

Last Updated 29 Jan 2017 04:03:51 AM IST

राजनीति झूठ, पाखंड, कपट और छल का दूसरा नाम है. जनता या कहिए कि मतदाता को लुभाने, फुसलाने या बरगलाने के लिए राजनेतागण किसी भी हद तक जा सकते हैं.


समाज : लंपटता से संक्रमित देश का देहात

कुछ भी कह-बोल सकते हैं, कैसे भी आश्वासन परोस सकते हैं, कोई भी वादा कर सकते हैं और उसे अपने पक्ष में करने के लिए उसकी विरुदावली में भाषायी लच्छेदारी का महावितान बुन सकते हैं. जनता के प्रति नेताओं की यह दयानतदारी चुनावों के समय अपने उरूज पर होती है, जैसा कि इस समय चुनाव-घोषित राज्यों में दिख रहा है. कोई नेता कह रहा है कि देश की 90 प्रतिशत जनता ईमानदार है; कोई कह रहा है कि जनता सर्वज्ञ है, समझदार है; कोई कह रहा है कि जनता सर्वोपरि है, सर्वशक्तिमान है, अंतिम फैसला देने वाली है, आदि आदि. लेकिन सच यह है कि कोई भी नेता जब जनता को यह विराट देवत्व सौंप रहा होता है, तो उसका अंतर्निहित कूट इरादा जनता को फुसला कर उसकी ‘ईमानदारी’, ‘समझदारी’, ‘सर्वशक्तिमत्ता’ को अपने पक्ष में भुनाने का होता है.

राजनेता जनता को लेकर चाहे जितने ‘महान’ बोल बोलें लेकिन वास्तविकता यह है कि जनता को उन्होंने न तो ईमानदार रहने दिया है, न समझदार और न सर्वशक्तिमान. उन्होंने जनता के बीच के जातीय, सांप्रदायिक आदि विभाजनों को ही गहरा नहीं किया है, बल्कि उसे अपनी ही तरह सत्ताकांक्षी, लालची, अवसरवादी, चालाक, जुगाडू, झगड़ालू, भ्रष्ट और बेईमान बना दिया है. चुनावी लोकतंत्र की छाया में शहरी जनता के चरित्र में जो बदलाव आए हैं, उसकी झलक हमें प्राय: मीडिया की विभिन्न विधाओं में देखने को मिल जाती है, लेकिन ग्रामीण जनता के चरित्र और चरित्रगत व्यवहारों को न समाचार मीडिया छूता है, न सिनेमा और न टेली धारावाहिकों का मनोरंजनी मीडिया.

कुटिल चुनावी राजनीति ने गांव-देहात के चरित्र को किस हद तक भ्रष्ट कर दिया है, इसकी प्रामाणिक तस्वीर कहीं देखने को मिलती है, तो उन कथा-कहानियों में जो सचेतन कथाकारों की कलम से निकल कर आती हैं. यहां मैं कथाकार सुभाषचंद्र कुशवाहा के कहानी संग्रह ‘लाला हरपाल के जूते’ की कुछ कहानियों का जिक्र करना चाहूंगा जो बताती हैं कि आज के भारतीय गांवों का यथार्थ कितनी जहरीला हो गया है.
इसकी एक कहानी है ‘पेड़ लगाकर फल खाने का वक्त नहीं’. कहानी में ईमानदार किस्म का कहानी का मुख्य किरदार अपने मित्र संतराम की नेता बनने में मदद करता है. जो संतराम जनता के सुख-दुख में भागीदारी करने की बात करता था, वह तमाम दल बदलते हुए अपने इर्द-गिर्द दलालों का घेरा बनाते हुए मंत्री तक बन जाता है.

अब उसके लिए न उसके पुराने संबंध कोई अर्थ रखते हैं, न गांव की जनता के दुख-सुख. ‘रमा चंचल हो गई है’ कहानी बताती है कि जब सरकारी योजनाएं भ्रष्ट अधिकारियों और प्रधान जैसे भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों के हाथों क्रियान्वित होती हैं, तो कैसे समूचे गांव को जातीय वैमनस्य, औरत-विरोधी मानसिकता, भ्रष्टाचार और हीनाचरण की भट्टी में झोंक देती हैं. ‘बात थी उड़ती जा रही’ कहानी पंचायती राज व्यवस्था के वास्तविक चरित्र को उघाड़ कर रख देती है. जब गांव की प्रधानी दलित महिला के लिए आरक्षित कर दी जाती है, तो जैसे सारा गांव ही चालाकी, मक्कारी, धूर्तता और दबंगई का अखाड़ा बन जाता है. ताकतवर सवर्ण जातियां दलितों-कुचलों को अधिकार देने के पंचायती राज व्यवस्था के ‘घोषित लक्ष्य’ में किस तरह पलीता लगाती हैं, कैसे समूची व्यवस्था का दोहन करती हैं, और कैसे अपने विरोध को दबाती हैं, यह कहानी इसका दस्तावेज है. इसी तरह ‘फांस’ कहानी बताती है कि गांव के दबंग बाबू साहब गांव के कमजोर किसानों की जमीन बेहद चालाकी से कैसे हड़प लेते हैं, और कैसे उन्हें तबाह कर देते हैं.

यह समझने के लिए कि गांव के दबंग धूतरे का शिकार होकर गांव के लोग अपने क्षुद्र स्वाथरे के लिए किस तरह स्वयं धूर्तता पर उतर आते हैं, कहानी ‘सब कुछ जहरीला’ पढ़ी जा सकती है. अवैध दारू भट्टी से खिंची दारू पीकर जब कुछ लोग मर जाते हैं, और सरकार मृतकों के परिजनों तथा प्रभावितों के लिए मुआवजा घोषित करती है, तो ये ‘भोले’ ग्रामीण दारू भट्टी, भट्टी मालिक और मौतों को भूलकर छल-प्रपंच के सहारे मुआवजा पाने की होड़ में लग जाते हैं. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में दलितों और यादवों की लड़ाई की कीमत ईमानदार और संजीदा किस्म के लोगों को किस तरह चुकानी पड़ती है, इसकी झलक मिलती है ‘यही सब चलेगा’ कहानी में.

एक सुशिक्षित, मेधावी और आदर्शवादी व्यक्ति जो जाति से यादव है, मगर अपने नाम के आगे यादव नहीं लगाता क्योंकि वह महात्मा ज्योतिबा राव फुले की सामाजिक क्रांति से प्रभावित है, उन्हीं के नाम से अपने गांव में एक विद्यालय खोलना चाहता है. जब उसकी पत्रावली दलित सरकार के पास पहुंचती है, तो यह इस बिना पर निरस्त कर दी जाती है कि एक यादव महात्मा फुले के नाम का इस्तेमाल कैसे कर सकता है. और जब यादव सरकार आ जाती है, तो उसकी पत्रावली इसलिए निरस्त कर दी जाती है कि एक यादव सरकार के रहते फुले के नाम पर विद्यालय खोलने की हिमाकत कोई कैसे कर सकता है. एक सही व्यक्ति के लिए न इस सरकार में जगह है, न उस सरकार में.

मैंने सतही ढंग से इन कहानियों का जिक्र किया है, लेकिन इन्हें पढ़ने पर महसूस होता है कि गांव-देहात के लोगों के सामाजिक संबंध, उनके बीच का सहज सौहार्द, उनकी सहानुभूतिपरक नैतिकता, उनकी नैसर्गिक न्याय चेतना, उनका सामूहिक पारस्परिक व्यवहारबोध जैसे मानवीय संवेदन कितने क्षतिग्रस्त और कितने विकृत हो गए हैं. जब गांव-देहात की अनम्य मानी जाने वाली सहकारी संस्कृति इतनी लंपट हो गई है, तो शहरों की स्थिति क्या होगी? चुनावी राजनीति के दौर में आपराधिक, भ्रष्ट और संवेदनाविहीन लोग नियामक गतिविधियों के केंद्र में स्थापित हो गए हैं और सामान्य, ईमानदार तथा कमजोर लोग इनके शिकंजे में फंस गए हैं. लेकिन देश के पाखंडी राजनेता और कथित मीडिया बुद्धिजीवी बुरी तरह भ्रष्ट कर दी गई आम जनता के विवेक और न्याय की डुगडुगी बजाने में जरा भी शर्म नहीं करते. वस्तुत: ऐसा करके वे स्वयं अपने आपको वैध ठहराने का प्रयास करते हैं. जो लोग जनता के बल पर इस देश में किसी परिवर्तन की कल्पना करते हैं, उन्हें सबसे पहले जनता के इस चरित्र पर चिंतन करना चाहिए. और जनता के वास्तविक चरित्र को समझने के लिए राजनेताओं पर नहीं, बल्कि जन पक्षधर साहित्य पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए.

विभांशु दिव्याल
लेखक


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