साबरमती के संत का कमाल
बात दिसम्बर 1947 के दूसरे पखवाड़े के शुरुआत की है, जबकि देश के विभाजन से उपजे हिंदू-मुस्लिम दंगों खासकर बंगाल में शांति करने के उपरांत गांधीजी दिल्ली आ गए थे.
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विभाजन से उपजी सांप्रदायिकता से गांधीजी काफी व्यथित थे और उसके परिणाम से वह अंदर से टूट गए थे. वैसे उनकी इच्छा सवा सौ साल जीने की थी. लेकिन देश के हालात देखकर वह कहने लग गए थे कि अब मैं जीना नहीं चाहता. इसी बीच बिड़ला भवन में जहां वह ठहरे हुए थे, उनके पास भरतपुर और अलवर रियासत से भगाए गए या यूं कहें कि वहां से जान बचाकर आए और गुड़गांव के मेवों के प्रतिनिधिमंडल ने आकर मुलाकात की. उन्होंने उनसे अपना घर-बार सब-कुछ खो चुके हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता के शिकार मेवों से मेवात आकर मिलने और उनकी बदहाली का जायजा लेने की गुजारिश की. वे मजबूरी में धीरे-धीरे टुकड़ों में पाकिस्तान जाने वाले थे. जबकि, हजारों की तादाद में वे पाकिस्तान जा भी चुके थे. कहते हैं मेवों के इस प्रतिनिधिमंडल को गांधीजी से मिलवाने में मौलाना आजाद की प्रमुख भूमिका थी. यहां यह जान लेना जरूरी है कि इससे पहले भी मेव गांधीजी से मिलने की कोशिश कर चुके थे.
गांधीजी ने मेवों की बदहाली की दर्द-भरी दास्तान सुनी और उन्होंने 19 दिसम्बर को मेवों के बीच जाने का फैसला लिया. और पंजाब के मुख्यमंत्री डॉ. गोपीचंद भार्गव व रणधीर सिंह हुड्डा के साथ वे दिल्ली से तकरीब 65 किलोमीटर दूर मेवात इलाके के घासैड़ा ग्राम पहुंचे. गांधी जी के आने की खबर सुनकर घासैड़ा में तकरीब एक लाख से ज्यादा मेव इसी आस में इकट्ठे हुए थे कि शायद गांधीजी कोई ऐसा रास्ता निकालें, जिससे उन्हें अपना वतन न छोड़ना पड़े. गांधीजी ने वहां मौजूद लुटे-पिटे उनकी ओर टकटकी लगाए मेवों से कहा कि \'आज मेरे कहने में वह शक्ति नहीं रही, जो पहले हुआ करती थी. एक जमाना था जब मेरी हर बात पर अमल किया जाता था. अगर मेरे कहने में पहले की ताकत और प्रभाव होता, तो आज एक भी मुसलमान को भारतीय संघ छोड़कर पाकिस्तान जाने की जरूरत न होती, न किसी हिन्दू या सिख को पाकिस्तान में अपना घर-बार छोड़कर भारतीय संघ में शरण लेने की जरूरत होती.
यहां जो कुछ हुआ भयानक कत्लेआम, आगजनी, लूट-पाट, औरतों का अपहरण, जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन और इससे भी बदतर जो-कुछ हमने देखा है-वह सब मेरी राय में सरासर बहुत बड़ा जंगलीपन है. ऐसी बर्बरतापूर्ण घटनाओं के किस्से सुनकर मेरा दिल रंज से भर जाता है और सिर शर्म से झुक जाता है. इससे भी अधिक शर्मनाक बात मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों को तोड़ने और बिगाड़ने की है. अगर इस तरह के पागलपन को रोका नहीं गया तो वह दोनों जातियों का सर्वनाश कर देगा. जब तक देश में इस तरह के पागलपन का राज रहेगा, तब तक हम आजादी से कोसों दूर रहेंगे. गांधीजी ने आगे पूछा लेकिन इसका इलाज क्या है? संगीनों की ताकत में मेरा विश्वास नहीं है.
मैं तो इसके इलाज के रूप में आपको अहिंसा का हथियार ही दे सकता हूं. वह हर प्रकार के संकट का सामना कर सकता है और अजेय है. हिन्दू, इस्लाम, ईसाई आदि सभी धर्मो में अहिंसा की वही सीख भरी है. लेकिन आज धर्म के पुजारियों ने उसे सिर्फ घिसा-पिटा सिद्धांत-वाक्य बना रखा है, व्यवहार में वे जंगल के कानून को ही मानते हैं. इसके बाद गांधीजी ने मेवों के प्रतिनिधि द्वारा उन्हें पढ़कर सुनाए गए पत्र का जिक्र किया, जिसमें उनकी सारी शिकायतें दी गई थीं और उन्हें दूर करने के लिए कहा गया था. गांधीजी ने कहा कि मैंने वह पत्र आपके मुख्यमंत्री डॉ. गोपीचंद्र के हाथ में दे दिया है. यह तो वे ही खुद बताएंगे कि पत्र में प्रस्तुत बहुत-सी शिकायतों के बारे में वह क्या करना चाहते हैं. इसे गांधीजी की शख्सियत का कमाल कहें या उन पर लोगों का बेइंतहा भरोसा कि उनके घासैड़ा पहुंचने और मेवों से उनकी सीधी बातचीत के बाद यहां के मेवों ने पाकिस्तान जाने का इरादा त्याग दिया.
यही नहीं पाकिस्तान जा चुके सैकड़ों मेव परिवार भी वहां से हिन्दुस्तान वापस आ गए. ऐसे थे गांधीजी जिनकी घासैड़ा आने के ठीक 40 दिन बाद 30 जनवरी को दिल्ली में एक सिरफिरे ने हत्या हर दी. उनके बारे में अमेरिका के सेनापति मैक आर्थर ने कहा था कि-\'यह एक ऐसा महापुरुष था, जो अपने जमाने से भी कहीं आगे जीता था. किसी-न-किसी दिन दुनिया को उनकी बातें सुननी ही पड़ेंगी, नहीं तो हिंसा के रास्ते दुनिया का विनाश हो जाएगा.\'
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