अर्थव्यवस्था:आत्मनिर्भरता का महत्त्व नये सिरे से रेखांकित हुआ
विश्व अर्थव्यवस्था और व्यापार में कई स्तरों पर बढ़ते अनिश्चय के बीच एक बार फिर नये सिरे से विभिन्न देशों ने आत्मनिर्भरता के महत्त्व को पहचाना है।
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आत्मनिर्भरता का अर्थ यह नहीं है कि कोई देश अपनी सभी जरूरतों को अपने स्थानीय उत्पादन से ही पूरा करे। ऐसी परिभाषा आधुनिक समय में तो क्या बहुत पहले भी संभव नहीं थी। आत्मनिर्भरता का अर्थ यह है कि यथासंभव अपनी अधिक महत्त्वपूर्ण जरूरतों को पूरा करने के लिए देश स्थानीय उत्पादन और तकनीकी क्षमता का विकास करें तथा अन्य जरूरतों की आपूर्ति के लिए अपेक्षाकृत अधिक विसनीय स्रेत सुनिश्चित करें। कोई देश आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़ता है और इसे अधिक महत्त्व देता है तो भी उसके लिए विदेशी व्यापार का महत्त्व भी अनेक संदभरे में बना रहेगा।
भूमंडलीकरण के दौर में राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता के उद्देश्य को कम महत्त्व दिया गया। यह कहा गया कि नये बदलावों के दौर में इसकी प्रासंगिकता नहीं रह गई है। यह सोच अनेक वर्षो तक हावी रही पर अब हाल की विश्व स्तर की उथल-पुथल के बीच यह मान्यता फिर बन रही है कि जो देश आत्मनिर्भरता को अधिक महत्त्व देते हैं, वे ही अपने लोगों की जरूरतों को बेहतर ढंग से पूरा करने में अधिक सक्षम हैं और उनकी अर्थव्यवस्था अधिक सुरक्षित और मजबूत है।
आजादी के बाद हमारे देश में आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को समुचित महत्त्व दिया गया। इसके लिए अनेक पूंजी और भारी उद्योगों की स्थापना की गई और जहां भी जरूरत हो इसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र में उपक्रमों की स्थापना की गई। विज्ञान एवं तकनीकी के विभिन्न राष्ट्रीय स्तर के संस्थान स्थापित किए गए जिनमें अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण संस्थान भी थे। दवा उद्योग जैसे महत्त्वपूर्ण उद्योगों के विकास पर समुचित ध्यान किया गया। पंचवर्षीय योजनाएं बनाई गई ताकि ऐसे विभिन्न महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए अधिक योजनाबद्ध ढंग से कार्य किया जाए और विभिन्न महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों के बीच में आपसी तालमेल बनाया जा सके।
एक बड़ी चुनौती खाद्यान्न और कृषि क्षेत्र में थी। यहां भारत ने कुछ उपलब्यिां प्राप्त कीं तो कुछ बड़ी गलतियां भी कीं। इसका परिणाम यह हुआ कि चाहे मुख्य अनाजों गेहूं तथा चावल में भारत आत्मनिर्भरता प्राप्त कर सका पर इसके लिए रासायनिक खाद, कीटनाशक और अन्य दवाओं तथा इनसे जुड़ी ऐसी महंगी तकनीकों पर निर्भर हो गया जो मिट्टी तथा पानी के बुनियादी संसाधन आधार को भी क्षतिग्रस्त करती थीं और किसानों का खर्च भी तेजी से बढ़ाती थीं। इनता ही नहीं, दालों, खाद्य तेलों आदि के आयात पर भारत की निर्भरता बढ़ने लगी।
हाल के समय में जीएम फसलों और इनसे जुड़ी ऐसी तकनीकों के प्रसार के लिए भी निहित स्वाथरे ने बहुत जोर लगाया है जिनसे हमारा देश विश्व की कुछ बड़ी शोषक बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर अधिक आश्रित हो जाएगा। दूसरी ओर, अच्छी खबर यह है कि विभिन्न देशों में बहुत से किसान ऐसे सफल प्रयास कर रहे हैं जिनसे रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाओं आदि पर निर्भरता कम होती है और परंपरागत, देशीय बीजों की रक्षा करने और उन्हें एकत्र करने की अधिक महत्त्व दिया जाता है। ये प्रयास पर्यावरण की रक्षा के भी अनुकूल हैं।
आज विश्व में जिस तरह की उथल-पुथल और मनमानी के निर्णय अंतरराष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में देखे जा रहे हैं, उनसे तो यह और भी स्पष्ट हो गया है कि आत्मनिर्भरता की नीतियां ही भारत जैसे महत्त्वपूर्ण विकासशील देशों के लिए सबसे उचित हैं। इसके साथ टिकाऊ विकास, पर्यावरण रक्षा के अनुकूल विकास और समावेशी विकास को अधिक महत्त्व देना चाहिए जिससे सबसे कमजोर वगरे की जरूरतें पूरी करने पर अधिक ध्यान किया जा सके।
आत्मनिर्भरता बढ़ाने के लिए विकास को योजनाबद्ध करना भी जरूरी है। इस दृष्टि से देखें तो जिस तरह भारत में योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाओं को जल्दबाजी में समाप्त कर दिया गया, वह उचित नहीं है। इस बारे में हमें नये सिरे से विचार करना चाहिए कि विकास की राह को योजनाबद्ध कैसे किया जाए। इससे विभिन्न उद्देश्यों में तालमेल बेहतर ढंग से हो सकता है, और आत्मनिर्भरता के विभिन्न उद्देश्य बेहतर ढंग से प्राप्त हो सकते हैं।
अर्थव्यवस्था और आर्थिक सुधार किस राह पर आने चाहिए, इस संबंधी विमर्श बहुत हद तक धनी-पश्चिमी देशों और वहां के जाने-माने संस्थानों और अर्थशास्त्रियों से प्रभावित होता रहा है पर इसके परिणाम अधिक सुखद नहीं रहे हैं। समय आ गया है कि भारत जैसे प्रमुख विकासशील देश विकास और अर्थनीति संबंधी अपनी स्वतंत्र राह को अधिक महत्त्व दें। इस तरह हम विश्व स्तर पर भी ऐसी मौलिक सोच दे सकेंगे जो विशेषकर विकासशील देशों के लिए बहुत लाभदायक होगी। इस संदर्भ में महात्मा गांधी के विचारों पर नये सिरे से आज के संदर्भ में ध्यान देना जरूरी है। कुछ महत्तपूर्ण संदभरे में उनकी सोच आज भी बहुत प्रासंगिक है। इस सोच का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि ग्रामीण विकास को अधिक महत्त्व दिया जाए और ग्रामीण विकास में भी आत्मनिर्भरता को अधिक महत्त्व दिया जाए। जहां इस सोच के आधार पर महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है, वहां किसानों का खर्च कम करते हुए भी कृषि उत्पादकता को पहले जितना बनाए रखना संभव हुआ है, और कहीं-कहीं तो इसे बढ़ावा भी दिया जा सका है।
जहां पर किसान महंगे रासायनिक खाद और कीटनाशक छोड़कर स्थानीय संसाधनों गोबर, गोमूत्र, पत्तियों आदि पर आधारित खाद और हानिकारक जंतुओं को दूर रखने की दवाओं को अपना रहे हैं, वहां उनके उत्पादों अनाज, दलहन, तिलहन, सब्जी, फल आदि की गुणवत्ता भी सुधर रही है और स्वास्थ्य लाभ भी हो रहा है। इसी सुधार में अगला कदम यह है कि खाद्यों की प्रोसेसिंग गांव के स्तर पर ही अधिकतम की जाए। यदि तिलहन से तेल गांव स्तर पर प्राप्त किया जाए तो शुद्ध तेल भी मिलता है, और पशुओं के लिए खली भी मिल जाती है। गांव में रोजगार सृजन होता है, और बेहतर आय किसान को मिलती है। इसी तरह घी और मक्खन जैसे उत्पाद गांव के स्तर पर ही बनें तो छाछ और लस्सी के रूप में पोषण भी मिलता है, और आय भी बढ़ती है। दलहन, धान, गेंहू, मोटे अनाजों, फल, सब्जी सभी की बेहतर प्रोसेसिंग गांव और कस्बे के स्तर पर हो तो ये लाभ और बढ़ सकते हैं।
यह सब महात्मा गांधी की गांवों की आत्मनिर्भरता की सोच के अनुरूप ही है पर साथ में यह सोच इससे भी आगे जाती है। खादी की सोच हमें बताती है कि बड़ी मशीनों और नई तकनीकों के आगमन का अर्थ यह नहीं है कि अब हर जगह इन्हें ही छा जाना है। हमें अपनी स्थिति के अनुसार, रोजगार की संभावना को बढ़ाने को भी ध्यान में रखना है, परंपरागत हुनर और कौशल की रक्षा को भी ध्यान में रखना है, और साथ में आज की वास्तविकता और व्यवहारिकता को भी ध्यान में रखना है तथा इन सभी को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेने हैं। इन सभी को ध्यान में रखेंगे तो हैंडलूम और खादी जैसे क्षेत्रों के साथ सौर ऊर्जा जैसे नये क्षेत्रों में भी हम महत्त्वपूर्ण मौलिक योगदान विश्व स्तर पर दे सकते हैं। विश्व में आर्थिक बहस पश्चिमी और प्रचलित अवधारणाओं पर चल रही है, पर हम अपनी मौलिक सोच अपनी स्थितियों और जरूरतों के अनुरूप आपसी विमर्श और अध्ययन से बनाएं तो यह हमारे लिए भी उपयोगी होगा और इससे अन्य विकासशील देशों को भी बेहतर सोच मिलेगी।
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