परत-दर-परत : बुद्धिजीवी और जनसाधारण के बीच

Last Updated 01 Jan 2017 06:17:56 AM IST

सभी देशों में बुद्धिजीवी और जनसाधारण के बीच दूरी होती है, लेकिन भारत में यह दूरी आश्चर्यजनक रूप से बहुत अधिक है.


राजकिशोर, लेखक

यह बात हमने इंदिरा गांधी और संजय गांधी के संदर्भ में देखी थी. नरेन्द्र मोदी के संदर्भ में देख रहे हैं. बुद्धिजीवी वर्ग में आक्रोश का ठिकाना नहीं है. खासकर नोटबंदी को ले कर. तमाम कठिनाइयां सहने के बाद जनसाधारण का मोहभंग नहीं हुआ है. वह अभी भी आशान्वित है कि इसके अच्छे परिणाम निकलेंगे. इंदिरा को इमरजेंसी के कारण सत्ता से हटना पड़ा, लेकिन दो वर्ष के बाद ही वे पुन: सत्ता में लौट आई. इमरजेंसी के प्रशंसक अब भी जहां-तहां मिल जाते हैं. बुद्धिजीवी वर्ग इंदिरा की वापसी को देखता रह गया था. सब कुछ के बावजूद संजय लोकप्रिय नेता थे. उनकी उच्छृंखलता के कारण बुद्धिजीवी वर्ग उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करता था, लेकिन आमजन में उनके प्रति आकषर्ण था.

क्या इन घटनाओं के बीच कुछ साम्य है? मोदी में वे सारे गुण दिखाई देते हैं, जो नेहरू-गांधी परिवार के उपर्युक्त दोनों नेताओं में थे. इसे हम व्यक्तित्व की कठोरता और कड़े मिजाज के रूप में पहचान सकते हैं. जनता के मन में यह भावना सर्वत्र दिखाई देती है कि शासक को कठोर होना चाहिए. वही सही फैसले लेकर उन्हें कार्यान्वित भी कर सकता है. इंदिरा गांधी कड़ी प्रशासक थीं,  बांग्लादेश की लड़ाई उन्हीं के नेतृत्व में लड़ी गई थी. उन्होंने ब्लू स्टार भी कराया था. संजय गांधी भी कठोर थे, इसीलिए नसबंदी का कार्यक्रम चला सके. हालांकि वह इतने बेहूदा तरीके से चलाया गया था कि उसकी याद कर लोग अभी भी सिहर उठते हैं. आश्चर्य की बात है कि अब तक के सभी  प्रधानमंत्रियों में सबसे कड़े मिजाज का होने पर भी मोदी कोई वैसा करतब दिखा नहीं पाए हैं. जिस सर्जिकल स्ट्राइक का खासा शोर रहा, वह भी फुस्स साबित हुआ, बल्कि हुआ यह है कि अब सीमा पर हमारे ज्यादा सैनिक मारे जा रहे हैं.

भारत स्वतंत्रता के बाद से ही भ्रष्टाचार भारत में पहला भ्रष्टाचार विरोधी अधिनियम 1949 में बना था. तब से इस कानून को लगातार संशोधित किया जाता रहा. लेकिन भ्रष्टाचार भी बढ़ता गया. यह भी हुआ कि राजीव गांधी को बोफोर्स घूस कांड की बदनामी के साथ सत्ता से अलग होना पड़ा. वीपी सिंह की राजनीति का प्रमुख मुद्दा भ्रष्टाचार से संघर्ष था, उन्हें ख्याति मंडल आयोग के कारण मिली. भ्रष्टाचार के विरु द्ध उन्होंने कोई ठोस कदम नहीं उठाया. मोदी के प्रति जनसाधारण के आकषर्ण का उनका यह वादा भी था कि वे भ्रष्टाचार की जड़ खोद कर रहेंगे. न केवल विदेशों में जमा काला धन भारत लाएंगे, बल्कि भारत में भी इसके विरु द्ध जंग छेड़ेंगे. यह उनके शासन की सबसे बड़ी मृग-मरीचिका साबित हुई है. नोटबंदी को साहसिक फैसला माना जाता है. लेकिन इसमें साहसिक क्या है? एक प्रधानमंत्री के मन में आया कि पुराने नोट बंद कर दो तो भ्रष्टाचार का दम निकल जाएगा. जनता भी महसूस करती है कि अभी तक तो ऐसा कुछ हुआ नहीं है, फिर भी प्रधानमंत्री के तेवर देख कर उसे लगता है कि नोटबंदी के बाद भ्रष्टाचार जरूर कम होगा. दूसरी ओर, बुद्धिजीवी वर्ग का मानना है कि यह एक बेकार का निर्णय था. उससे जनसाधारण को अपार कष्ट हुआ. आर्थिक विकास की गति मंद पड़ने वाली है.

सवाल है कि बुद्धिजीवी और जनता के बीच इस दूरी का इलाज क्या है? जनता मूर्ख होती है, भेड़चाल की शिकार होती है, उसमें न्याय और लोकतंत्र के संस्कार नहीं होता, लोक-लुभावन नारों में आसानी से फंस जाती है; इस तरह की व्याख्याएं अनेक बार सुनने को मिलती हैं, पर इस सपाटबयानी या जन-असहिष्णुता से काम नहीं चलने वाला. पश्चिमी देशों में आज जो सामान्यत: लोकतांत्रिक संस्कार हैं, उनका निर्माण वहां के बुद्धिजीवियों ने ही किया था. वहां एक-एक बुद्धिजीवी ऐसे निकले, जिनने समाज को हिला कर रख दिया. रूसो, वोल्तेयर, जॉन स्टुअर्ट मिल और कार्ल मार्क्‍स की धमक आज तक सुनी जाती है. चूंकि वे खुदगर्ज और अवसरवादी नहीं थे, इसीलिए उनकी बात सुनी गई.

भारत के बुद्धिजीवी की दो प्रमुख समस्याएं हैं. एक, अंग्रेजी जनसाधारण से उनके जुड़ाव में सबसे बड़ी बाधा है. दूसरे, भारत में अधिकतर बौद्धिक कर्म अंग्रेजी में ही होता है. यह कुछ-कुछ हमारी परंपरागत समस्या है. बहुत लंबे समय तक संस्कृत आधिकारिता की, विद्वत्ता की, राजभाषा रही. फिर यह स्थान फारसी ने लिया. उसे अंग्रेजी ने अपदस्थ किया, तभी से अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहा है, बल्कि बढ़ता ही गया था. इसका निष्कर्ष यह है कि जब तक सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का बोलबाला है, भारत का बौद्धिक विकास नहीं हो सकता. ज्ञान कुछ लोगों के पिटारे तक सीमित रहेगा. इससे भी बड़ी समस्या यह है कि हमारे विद्वान जनता की समस्याओं के बारे में लगातार सोचते रहते हैं, लेकिन किसी भी समस्या को सुलझाने के लिए जमीन पर उतरना जरूरी नहीं समझते. यहां तक कि डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने अपना सारा महत्त्वपूर्ण साहित्य अंग्रेजी में ही लिखा, जिसे उनके अनुयायियों का एक प्रतिशत हिस्सा भी नहीं समझता था. बेशक, देश में शिक्षा की कमी है, पहले तो और भी ज्यादा कमी थी. लेकिन इसी जनता को तिलक, गांधी, भगत सिंह और सुभाष बाबू ने झकझोर कर रख दिया था. उस पुरानी स्पिरिट को अपनाए बिना भारत का भविष्य अंधकारमय ही दिखाई देता है.



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