चिंतन : आप प्रतिपल नये हों, शुभकामनाएं

Last Updated 01 Jan 2017 06:09:05 AM IST

अंग्रेजी कैलेंडर के पहले माह जनवरी की पहली तिथि. अंग्रेजों का नया साल. लेकिन भारत के मन में इस माह कुछ भी नया नहीं होता.


हृदयनारायण दीक्षित

सब कुछ बासी-बासी. न रूप, न रस, न गंध, न स्पर्श, न सूर्य प्रकाश के तेजोमय आशीष, न कोयल की कूक और न लोक की हूक. प्रकृति ने जम्बूद्वीप के इस भरतखंड को बड़े प्यार से गढ़ा है. नदियां, वन-उपवन, समुद्र और पर्वत. छह ऋतुएं हैं. जनवरी में नदियां भी उल्लसित नहीं होतीं. वन-उपवन नव और अभिनव नहीं होते. सोचता हूं कि जनवरी में नया क्या है? काहे का नव वर्ष? 

काल का विभाजन मुझे अच्छा नहीं लगता. काल नियंता है. अखंड और अनंत. अनंत विस्तार है काल का. इकाई का कोई अर्थ नहीं. हम काल विभाजन करते हैं. मन को संतुष्ट कर लेते हैं, लेकिन काल अविभाज्य है. इकाइयों की गणना का अपना रस हो सकता है. नए या पुराने के अनुभव हमारे चंचल मन की तरंगें हैं. यहां सब कुछ संपूर्ण है. अखंड, अविभाज्य और अनंत. कालरथ गतिशील है. अनंत से अनंत की ओर. न आदि न अंत. तो भी हम काल-गणना करते हैं. काल-बोध का आनंद नहीं लेते. हम अद्भुत राष्ट्र हैं. विद्वान अंग्रेजी में सोचते हैं, खुश होते हैं. अंग्रेजी बोलते हैं. जनवरी में नये होते हैं. बसंत में मधुगंधा नहीं होते. ऋतुराज बसंत का स्वागत नहीं करते. वष्रा ऋतु अतिरिक्त मधुरसा होती है. वे इसका रस नहीं लेते. अंग्रेजी नववर्ष का कृत्रिम उत्सव. बधाई.

बेशक, अंग्रेजी जनवरी बिंदास है, लेकिन बसंत जैसी मधुवाता नहीं. आखिर, नया साल जनवरी से ही क्यों? बसंत से क्यों नहीं? फागुन या चैत्र से क्यों नहीं? मार्च या अप्रैल से क्यों नहीं? अंग्रेजी विद्वानों ने बिना सोचे-समझे ही दस माह का कैलेंडर बनाया. बात नहीं बनी तो बाद में जनवरी व फरवरी जोड़ दी. सितम्बर सातवां माह था. नवां हो गया. आठवां अक्टूबर था, दसवां हो गया. दिसम्बर का अर्थ ही दसवां होता है, लेकिन 12वां हो गया. काल अस्तित्व के परे नहीं है. भारतीय चिंतन में सृजन और पल्रय की धारणाएं हैं. पल्रय में गति समाप्त हो जाती है, इसलिए काल नहीं होता. सृजन में अस्तित्व उगता है. गतिशील होता है, गति से समय आता है.

तब समय की गणना. दिन, रात, मास, वर्ष या साल काल के ही अंग हैं. ऋग्वेद में सृष्टि सृजन के पूर्व के अस्तित्व का वर्णन है. तब न रात्रि थी, न दिन अर्थात समय नहीं था. वायु भी नहीं थी. ‘वह एक’ अस्तित्व वायुहीन वातायन में अपनी क्षमता के बल पर सांस ले रहा था-अनादीवातं स्वधया तदेकं. सब तरफ गहन अंधकार और जल ही जल-अप्रकेत सलिलं था. वह अगाध जलों से प्रकट हुआ.

‘प्रकट’ नया जन्म नहीं है. प्रकट होने तक समय नहीं था. अस्तित्व प्रतिपल एक जैसा है. नया या पुराना मन-बुद्धि के रचे खेल हैं. अस्तित्व प्रतिपल नया है. गये और आये का भेद नहीं. बीते और प्रत्यक्ष की समय विभाजक रेखा नहीं. हरेक सूर्योदय नया है, हरेक चन्द्र भी. कली नई है, पुष्प भी नये हैं. वष्रा की हरेक बूंद नई है. प्रकृति का हरेक रूप-रस नया है. लेकिन नये का अलग अस्तित्व नहीं है. वह पुराने का ही विस्तार है. अतीत व्यतीत नहीं होता. दिक्काल रूप बदलता है. अस्तित्व नूतन नहीं, चिरंतन है. सदा से है, सदा रहता है. कभी भी नष्ट नहीं होता. देश-काल के प्रभाव में हम उसे नया या पुराना देखते कहते हैं. तो भी बधाई. आप प्रतिपल नए हों. आनंदमग्न हों. शुभकामनाएं.



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