उत्तर प्रदेश : अखिलेश या मुलायमवाद
अब सवाल सीधा है कि मुलायमवाद जारी रहेगा या अखिलेशवाद उसे बियाबान में डाल देगा.
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समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और पार्टी के महामंत्री रामगोपाल यादव को छह साल के लिए पार्टी से निकाल कर इस युद्ध की घोषणा कर दी. इसके बाद सरकार बचेगी या नहीं, इससे बड़ा सवाल यह है कि विधान सभा चुनाव में क्या होने वाला है? यह टकराव चुनाव नतीजे को ही प्रभावित नहीं करेगा, बल्कि लंबे दौर के लिए राज्य और देश की राजनीति की तस्वीर भी बदल सकता है.
फिर भी, सरकार बचाने की अखिलेश के गणित पर एक नजर डालना सही होगा. अगर अखिलेश अपने दावे के मुताबिक 175 विधायकों का समर्थन बनाए रख पाते हैं तो उनकी सरकार कांग्रेस (27 विधायक) और रालोद के समर्थन से बचा सकती है. लेकिन क्या केंद्र सरकार और राज्यपाल उन्हें यह मौका लेने देंगे? चुनाव आयोग भी किसी दिन चुनाव का ऐलान कर सकता है. लेकिन इससे भी बड़ा सवाल है कि सामाजिक न्याय की राजनीति का अब क्या होगा? अखिलेश और रामगोपाल को पार्टी से निकालने का ऐलान करते वक्त मुलायम के चेहरे पर दर्द झलक रहा था. आखिर जिस पार्टी को उन्होंने बड़ी मेहनत से बनाया, राज्य में जिस राजनीति का बीज बोया, आज वह बिखर रहा है. उन्होंने कहा कि इतिहास में बाप-बेटे के ऐसे टकराव की मिसाल नहीं मिलेगी. टिकट बंटवारे पर घमासान की आशंकाएं तो पहले से थी. मगर यह इस सीमा तक जाएगी इसका अंदाजा नहीं लग पा रहा था.
नया दौर कांग्रेस से गठजोड़ या तालमेल के पक्ष में अखिलेश के काफी आगे बढ़ने के साथ शुरू हुआ. शिवपाल ने अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करने की धमकी दी तो अखिलेश पूरी 403 सीटों की सूची पार्टी सुप्रीमो मुलायम को दे आए. लेकिन मुलायम ने अखिलेश के उम्मीदवारों को दरकिनार करके 325 उम्मीदवारों की सूची जारी की और कांग्रेस या किसी पार्टी से गठबंधन या तालमेल की संभावना खारिज कर दी. जवाब में अखिलेश ने अपने 235 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी. फिर 1 जनवरी को अखिलेश खेमे ने विशेष राष्ट्रीय अधिवेधन बुला लिया, जिसके बाद मुलायम ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया. बेशक, इस नजारे को देखकर 1995 में आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडु और एन.टी. रामाराव के बीच टक्कर की याद ताजा हो गई, जिसमें अंतत: नायडु का पार्टी पर कब्जा हो गया और रामाराव हमेशा के लिए बियाबान में चले गए.
रामराव ने 1980 के दशक में तेलुगु गरिमा को भुनाने के लिए पार्टी बनाई पर नायडु ही उसके असली सांगठनिक सूत्रधार बने. इस वजह से रामराव की सेहत बिगड़ने के बाद नायडु उन्हें अलग करके भी पार्टी को अपने साथ लेकर चल पाए. लेकिन अखिलेश उस तरह के सांगठनिक नेता नहीं हैं. वे पहली बार 2012 के चुनाव के पहले प्रदेश भर की अपनी साइकिल यात्रा में ही पार्टी संगठन से ढंग से परिचित हो पाए. मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती दो वर्षो में उनकी प्रशासनिक मौजूदगी भी नहीं दिखती थी.
सरकार और पार्टी दोनों में उनसे ज्यादा पैठ शिवपाल यादव की रही है. तब शिवपाल सबसे ताकतवर सहकारिता मंत्री हुआ करते थे. फिर, 2014 के लोक सभा चुनाव में भाजपा के हाथों बुरी पराजय से सपा और अखिलेश सरकार हिल उठी. सपा को सिर्फ 5 सीटें मिली थीं. इस बुरे झटके से अखिलेश को अपने विकास एजेंडे को आगे बढ़ाने की मोहलत मिली. उन्होंने छह बड़ी विकास परियोजनाओं पर ध्यान दिया. इसमें लखनऊ में मेट्रो और आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे को रिकॉर्ड समय में पूरा करने का श्रेय अखिलेश खुद को देते हैं. यही नहीं, अखिलेश पर अभी किसी तरह का आरोप भी नहीं है.
इससे खासकर युवा तबके में उनका आकर्षण बढ़ा. मगर विकास की यह छवि चुनाव में जीत दिलाने के लिए काफी नहीं है. उसके लिए खासकर उत्तर प्रदेश में जाति और सामुदायिक समीकरणों की दरकार होती है. राज्य में 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों और कई शहरों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं को रोकने में नाकामी के कारण सपा का मुस्लिम-यादव समीकरण भी गड़बड़ा गया है. इसी को ध्यान में रखकर अखिलेश कांग्रेस और कुछ दलों से गठजोड़ करना चाहते थे. दरअसल, कांग्रेस 2012 के विधान सभा चुनाव में भले 28 सीटें जीती हो, उसे चाहे जितना कमजोर माना जाए पर उसका जुड़ना कई वोट बैंकों में एक आस्ति पैदा करता है. इससे मुसलमानों की दुविधा खत्म हो सकती है. ब्राrाणों में भी कुछ दिलचस्पी पैदा हो सकती है और खासकर अवध के इलाके में गैर-यादव पिछड़ी जातियों में भी कुछ असर पैदा हो सकता है, जहां 2009 में कांग्रेस 22 संसदीय सीटों की जीत में सबसे अच्छा प्रदर्शन कर चुकी है.
इस मामले में अखिलेश की सोच से शायद मुलायम इत्तेफाक नहीं रखते. मुलायम शायद सोच रहे हैं कि गठजोड़ से कांग्रेस मजबूत हुई तो गैर-भाजपा सेकुलर वोट उसकी ओर खिसक सकते हैं. इसी वोट को कांग्रेस से अलग करके मुलायम ने राज्य में अपने को मजबूत किया है. लेकिन इस चक्कर में अगर सपा को बुरी हार का मुंह भी देखना पड़ सकता है.
इससे मुसलमानों में खासकर बहुसंख्यक पासमांदा बिरादरी (गरीब मुसलमान) ज्यादा मजबूती से मायावती और बसपा की ओर खिसक सकती है. मायावती की 125 मुसलमान उम्मीदवारों की सूची में लगभग सभी इसी पासमांदा बिरादरी के हैं. इसी तरह गैर-यादव पिछड़ी जातियों के वोट भी भाजपा और कांग्रेस की ओर खिसक सकते हैं. लेकिन, एक दूसरी संभावना यह है कि अब अखिलेश के पक्ष में सहानुभूति की लहर दौड़ सकती है. अगर ऐसा हुआ तो शिवपाल की छवि भ्रष्टाचार और आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को शह देने की पर्याय बन सकती है. अखिलेश कांग्रेस और रालोद के साथ भाजपा विरोधी मोच्रे के दावेदार बन सकते हैं. आगे-आगे देखिए अखिलेशवाद विजयी होता है या मुलायमवाद कायम रहता है.
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