प्रसंगवश : नये वर्ष में हर्ष हो

Last Updated 01 Jan 2017 06:24:01 AM IST

घर-गृहस्थी संभालना सदा से मानव जीवन का एक कठिन काम रहा है. लेकिन आज की चुनौतियों के दौर में यह और भी कठिन होता जा रहा है.


गिरीश्वर मिश्र, लेखक

हममें से अधिकांश लोग रोजमर्रे की जिंदगी में तरह-तरह की कठिनाइयों और तकलीफों से गुजरते हैं. हर साल तनाव, अकेलापन और चिंता के अनुभव नई ऊंचाइयों को छूते नजर आ रहे हैं. अक्सर इसे तकनीकी प्रधान बनते आधुनिक जीवन की सौगात माना जाता है, जिसमें समय और गति, दोनों के दबाव तेजी से बढ़ रहे हैं. आजीविका, परिवार का भरण-पोषण और जीवन में अर्थ की तलाश को लेकर सभी परेशान दिख रहे हैं. इस भागदौड़ में बिना रचनात्मक दृष्टि अपनाए कल्याण नहीं दिखता.

सच कहें तो इंसानी जीवन सृजन की संभावनाओं से भरा होता है, जिसकी परिधि पशुता और देवत्व के बीच विस्तृत है. पशु-वृत्तियां तो सहजात रूप में मौजूद होती ही हैं, वहीं देवत्व के बीज भी मौजूद रहते हैं. यदि परिस्थितियां और व्यक्ति की पहल से देवत्व को पोषण मिला तो गुणों का विकास होता है. वह उपलब्धि के शिखर पर पहुंच सकता है. परंतु धरती पर पैर जमाते हुए श्रेष्ठ को मन में ले कर आकाश की ऊंचाई कैसे तय की जाए? यह साधना कैसे हो? यह यात्रा कहां से शुरू हो और किधर से चल कर कहां जाया जाए?

इसी उधेड़बुन में हम सभी परेशान रहते हैं. नए साल की शुरुआत पर अक्सर लोग संकल्प लेते हैं. घर-परिवार, मित्र-मंडली, स्वास्थ्य, रिश्ते-नाते, अध्यात्म कुछ भी इस संकल्प का विषय हो सकता है. पर बड़ी जल्दी ही ख़्ाुद से किया गया वादा भूलने लगता है. जीवन में परिवर्तन उद्देश्य है,  तो संकल्प परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर सकता है. अपने अंदर टटोलना चाहिए, ‘मैं सचमुच किधर जाना चाहता हूं.’ कारण कि जीवन बीत रहा है, समय ठहरा नहीं रहता. हम ऐसे ही पदार्थ से बने हैं, जिनकी आयु सीमित है. शरीर का क्षरण होना तो अनिवार्य और अवश्यंभावी घटना है, पर हमें इसका स्मरण नहीं रहता या फिर हम इसे झुठलाते रहते हैं.

जीवन में नवोन्मेष तभी होगा जब हम अपने में नए गुणों, विचारों और कार्यों को लेकर सन्नद्ध हों. यह अपने ऊपर अनुशासन द्वारा ही आ सकेगा. तभी हम आत्मजयी हो सकेंगे. गलत कामों से बच सकेंगे. इसके लिए अच्छा साथ या सत्संगति जरूरी है.

आज जिस तरह घर और बाहर, देश और विदेश में हिंसा बढ़ रही है, उसमें करुणा, दया, परोपकार आदि विशेष रूप से महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं. दूसरों की पीड़ा जानना और उसे दूर करना हमारा प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए. इसके लिए समानुभूति (इम्पैथी) आवश्यक होगी. जरूरी है कि हम दूसरों को अपने जैसा ही मानें और समझें. हम ख़्ाुद से बड़ा प्यार करते हैं, और दूसरों को अपने जैसा ही समझें तो समझना आसान हो जाएगा कि उसे किस व्यवहार या घटना से पीड़ा होगी या हषर्. तभी निर्देश दिया गया, ‘अपने को जो अच्छा लगे वही बर्ताव दूसरों से करो’ और ‘जो अपने प्रतिकूल हो या स्वयं को अच्छा न लगे वह बर्ताव दूसरों से न करो’. यह तभी हो सकेगा जब हममें सात्विक वृत्ति का उदय होगा.

भ्रम और सत्य, यथार्थ और उसके प्रत्यक्ष को लेकर भेद तब पता चलता है, जब हम निकट से देखते हैं. दूसरी ओर, दूरियां वस्तुओं, रिश्तों और व्यक्तियों को लेकर भ्रम पैदा करती हैं. पर भ्रम चाहे कितना भी आकषर्क क्यों न हो सत्य नहीं हो सकता. इसी तरह सत्य भोंड़ा और कुरूप होने पर भी सत्य ही रहेगा. कभी-कभी भ्रम की कलई खुलने में देर भी होती है, और सत्य का उद्घाटन स्वत: न हो कर परिस्थितियों पर निर्भर करता है. बस, धैर्य और विवेक की जरूरत पड़ती है. तभी जीवन में सार्थकता की तलाश को दिशा मिलती है. सहज पर सजग मानस इसमें हमारा सहायक हो सकता है. तभी चेतना के उच्च स्तरों की ओर हम बढ़ सकेंगे. अतीत से मुक्त हो कर वर्तमान को सृजनात्मक ढंग से जी सकेंगे. ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हमारे प्रत्यक्ष प्राय: भ्रम जैसे ही होते हैं.

हमारी इच्छाएं और आकांक्षाएं हमारे प्रत्यक्ष को रंग देती हैं. सो, हमें ख़्ाुद से अपने बारे में जानना-समझना होगा. ध्यान इस कार्य में बेहद उपयोगी पाया गया है. ध्यान से हमारा अपना आत्मबोध सही दिशा पाता है. ऐसा होने पर ही जीवन की गुणवत्ता बढ़ सकेगी. नए वर्ष में हर्ष हो इसके लिए भागमभाग से बच कर  हमें  ध्यान और अंतर्दृष्टि का स्वागत करना होगा. महर्षि रमण ने कहा था, ‘आत्म में ही वि’ है. आज आत्म आविष्कार पहले से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चला है. यह राह अध्यात्म की ओर ले जाती है. उसे हमें अपने जीवन में जगह देनी होगी.



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment