मीडिया : पूरे घर को बदल डालूंगा

Last Updated 01 Jan 2017 06:35:47 AM IST

‘पूरे घर के बदल डालूंगा’ की कैच लाइन वाला, ब्लेक एंड व्हाइट जमाने के दूरदर्शन में दिखने वाला असरानी कृत वह विज्ञापन इन दिनों रह-रह कर याद आता है.


सुधीश पचौरी, लेखक

नवें दशक का हिट विज्ञापन था. इस तरह चलता था : असरानी के घर का एक बल्ब फ्यूज हो जाता है तो वे बल्ब खरीदने निकल पड़ते हैं. दुकानदार उनको बल्ब-ट्यूब बनाने वाली पॉपुलर ब्रांड कंपनी के बल्बों के टिकाऊपन के बारे में बताता है, तो जोश में आकर वह बोल उठते हैं :‘पूरे घर के बदल डालूंगा!’ असरानी का घर विज्ञापन का घर था. बल्ब भी विज्ञापन का ब्रांड.

विज्ञापन की कैच लाइन असरानी कुछ इस हाइप के साथ कहते थे कि दर्शक मुस्कुराने लगता था. जिस ब्रांड की कैच लाइन मुस्कुराहट लाती है, याद रह जाती है. विज्ञापन शास्त्र की भाषा में इसे ‘रिकॉल वैल्यू’ कहा जाता है. यही ग्राहक को ब्रांड तक लाती है. असरानी बल्बों के फ्यूज होने से आजिज ऐसे मकान मालिक लगते हैं, जो ऐसा बल्ब चाहते हैं जो जल्दी-जल्दी फ्यूज न हों. बल्ब बेचने वाला दुकानदार बल्ब की खूबियां भी कुछ इस तरह बताता है कि असरानी उसकी बातों पर तुरंत भरोसा कर लेते हैं. उत्साह से भरकर कहने लगते हैं कि ‘पूरे घर के बदल डालूंगा!’ इस कैच लाइन का मतलब यह नहीं था कि असरानी सारे घर के बल्ब बदलने वाले हैं. मतलब इतना ही था कि ये बल्ब इतने दमदार हैं कि जल्दी फ्यूज नहीं होते. आपको अगर लगाने हैं तो इन्हीं को लगाइए!

बल्ब बदल गए. टंगस्टन तार वाले पीली रोशनी देने वालों की जगह सीएफएल के महंगे बल्ब आ गए. घरों में जलने लगे. दस-पंद्रह साल तक बिकने के बाद उनको मॉकर्ेेट करने वाली विज्ञापन कंपनियां नए एलईडी बल्बों के विज्ञापन बनाने दिखाने लगीं. प्रिंट में खबरें आने लगीं कि सीएफएल भी ठीक नहीं हैं. एलईडी बल्ब अपनाइए. बिजली की बचत करते हैं. देर तक चलते हैं. इन दिनों वही चलन  में हैं!  लेकिन टंगस्टन वाले बल्ब मरे नहीं. वे बनते रहे. मिलते रहे. अपनी पीली रोशनी के साथ जलते रहे. बुझते रहे. फ्यूज होते रहे. बदले जाते रहे! आज जब वे बुझ जाते हैं तो कोई असरानी कहने नहीं आता  कि ‘पूरे घर के बदल डालूंगा!’ लेकिन लोग अब भी उनको खरीदते हैं. अब भी दस-पंद्रह रुपये में परचून की दुकान पर मिलते हैं. एलईडी का एक बल्ब ढाई-तीन सौ रुपये में आता है. इसलिए गरीब उसी टंगस्टन के तार वाले बल्ब को जलाते हैं.

बल्ब के बदलाव की यह कहानी उस ‘शात सत्य’ को समझाती है कि ‘चीजों को जितना अधिक बदला जाता है, उतनी ही वे वैसी की वैसी रहती हैं.’ मेकअप से रूप बदला जा सकता है, लेकिन रूह नहीं. दिल-दिमाग जल्दी नहीं बदलते. बदलते हैं तो धीरे-धीरे. प्यार-मनुहार से. नहीं तो वहीं लौट कर आ जाते हैं, जहां से उनको बदलने के लिए कहा गया था. यही हश्र नकदी को ई-बटुए में बदल देने का हो सकता है! ई-बटुआवादी कहेंगे कि बदलाव की आलोचना करने वाले निराशावादी हैं. लेकिन हम कहेंगे कि आदमी बदले तो कितना और किस तरह, इसे उसे ही तय करने दो! असरानी वाला विज्ञापन गाहक को आनंद देकर बदलने का सिर्फ मनोरंजक आइडिया बेचता था. डराता-धमकाता नहीं था! डराकर बेचना अच्छी मारकेटिंग नहीं कहलाती! एक उदाहरण सोवियत संघ के शासक स्टालिन का है, जिसने तय किया कि ‘सब कुछ बदल डालूंगा’ और ‘नया आदमी’ बना डालूंगा.

हुआ यों कि सोवियत क्रांति के बाद सबको पक्के आधुनिक सुविधाओं वाले घर दिए गए. वे रहने भी लगे क्योंकि आदेश था. लेकिन जब स्टालिन के बाद सोवियत कमान ढीली होने लगी. बाहर के पत्रकार विजिट करने लगे तो उनने पाया कि अनेक मुहल्ले थे, जिनमें पक्के-आधुनिक मकानों में रहने वालों ने मकानों के भीतर उसी तरह के पुराने तंबू तान रखे थे, जिनमें उनको पुराने समय में रहने की आदत थी. बाहर से देखने पर वे एकदम आधुनिक जीवन जीते दिखते थे, लेकिन अंदर तंबुओं में रहते थे. इनमें उनको कंफर्ट महसूस होता था! सोवियत में संघ के जबरिया बदलाव का अंतत: क्या नतीजा हुआ? कितनी बड़ी कीमत देनी पड़ी, सब जानते हैं. स्पष्ट है कि जबर्दस्ती थोपे गए बदलाव ताबड़तोड़ तूफानी गति से किए जाते बदलाव अंतत: कुछ नहीं बदल पाते! इसीलिए बदलाववाद के इन तूफानी दिनों में असरानी का वह विज्ञापन अक्सर याद आता रहता है, जो कहता है कि कितने ही बल्ब बदल लो, लेकिन टंगस्टन वाला बल्ब अब भी आपके काम का है! और अब उसे कोई नामी कंपनी नहीं बनाती और न उसका कोई विज्ञापन आता है, फिर भी वह बाजार में मिलता है, और रोशनी देता रहता है!



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