समाज : नोटबंदी के साये में बौना हुआ विपक्ष
देश नोटबंदी के साये में नये साल में प्रवेश कर रहा है. नोटबंदी की घोषित अवधि समाप्त हो चुकी है, और परिणामी अवधि शुरू हो गई है.
![]() समाज : नोटबंदी के साये में बौना हुआ विपक्ष |
विपक्ष के हमले जारी हैं पर तर्ज बदल गई है, मगर जनता के कष्टों की उनकी पैरोकारी पंचर हो गई है. जनता कतारों में खड़ी हुई. बहुत-सी जगहों पर अब भी खड़ी है. मगर वैसा कहीं नहीं हुआ, जैसा होने की दावेदारी विपक्ष कर रहा था. पार्टियों ने अपने झंडे तले कुछ हो-हल्लाकारी मगर निष्प्रभावी विरोध-प्रदर्शन जरूर किए मगर, जिसे जनता का विरोध कहते हैं, वह दिखाई नहीं पड़ा. न कहीं विद्रोह हुआ और न कहीं बगावत. और अब जब हालात मामूल हो रहे हैं, जनता अपने कतार-कष्ट से उबर रही है, अपनी 50 दिनी तकलीफों को भूल कर पटरी से उतरी जिंदगी को दुबारा पटरी पर लाने में व्यस्त हो गई है, सरकार से तात्कालिक अपेक्षा के तौर पर सिर्फ पूर्व सुविधापूर्ण नोट निकासी की बहाली की ही अपेक्षा कर रही है, तब बुरी तरह विभाजित विपक्ष नोटबंदी के उन दुष्परिणामों की जबरिया तलाश कर रहा है, जिन पर खड़े होकर वह निकटवर्ती विधानसभा चुनावों के लिए अपनी जमीन तैयार कर सके.
अब तक एक बात बहुत साफ हो चुकी है कि सरकार ने यानी मोदी ने काले धन के विरुद्ध नोटबंदी का तकनीकी आर्थिक फैसला चाहे, जिस नीयत से किया हो, लेकिन इसके कारण कतार में खड़े लोगों ने जो कष्ट झेले, वे इस फैसले की तकनीक के कारण कम बल्कि इस तकनीकी प्रक्रिया में काले धन के प्रवर्तकों, उत्पादकों, संरक्षकों, संवाहकों और उनके ताकतवर दलालों द्वारा सीधे-सीधे लगाई गई सेंध के कारण ज्यादा थे. काले धन वालों ने कतारों से लेकर बैंकों तक को अपने कब्जे में कर लिया था. इस कदम को विफल करने में पूरी ताकत झोंक दी थी. सरकार बार-बार नियम बदलने के बावजूद इन पर कोई प्रभावी रोक नहीं लगा सकी. हालांकि इस प्रक्रिया में बहुत-सा काला धन सरकार की पकड़ में भी आया, लेकिन सब जानते हैं कि जितना पकड़ में आया उससे सैकड़ों गुना ज्यादा पकड़ में नहीं आ सका, यानी बहुत बड़ी मात्रा में काला धन नये गुलाबी काले धन में बदल गया. जनता तक सही समय पर सही मात्रा में वांछित पैसा नहीं पहुंचा या पहुंचने में लगातार बाधा पड़ती रही तो इसमें सबसे बड़ा हाथ काले धन की भ्रष्ट व्यवस्था का ही था.
आश्चर्य था कि मोदी इसका पूर्व आकलन नहीं कर पाए. आश्चर्य की बात यह भी थी कि समूचा विपक्ष जनता के कष्टों से लेकर देश की व्यापक अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभावों पर तो लंबी-लंबी हांकता रहा, लेकिन काले धन वालों के काले कारनामे पर और सरकारी अर्थतंत्र में उनकी काली पैठ पर अपनी जुबान पर ताला डाले रहा. मोदी और भाजपा पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भ्रष्टाचार के कुछ सच्चे और कुछ झूठे आरोप तो लगाता रहा, लेकिन व्यवस्थाजन्य काले धन की निर्मिति और उसके जनविरोधी दुष्प्रभावों पर कोई भी सैद्धांतिक या व्यावहारिक तर्क प्रस्तुत नहीं कर सका. शायद इसलिए कि वह काले धन को लेकर चिंतित नहीं था, बल्कि उसकी चिंता थी कि कहीं नोटबंदी के कदम की सफलता मोदी की झोली में किसी बड़े राजनैतिक लाभ को न डाल दे. नोटबंदी की तकनीकी अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी उसकी सबसे बड़ी चिंता यही है.
जनता की परेशानी, बुरे हाल और उसकी बगावत का हथियार स्वयं जनता ने विपक्ष के हाथ से छीन लिया है. एक सव्रेक्षण के अनुसार नोटबंदी की घोषित अवधि की समाप्ति तक लगभग साठ प्रतिशत लोग मान रहे हैं कि उनकी तात्कालिक परेशानियां खत्म हो गई हैं, और उनका सब कुछ सामान्य हो गया है. जाहिर है कि जो अभी भी कठिनाई महसूस कर रहे हैं, उनका भी एक बड़ा हिस्सा अगले चंद दिनों में सामान्य होने की श्रेणी में जुड़ जाएगा. विपक्ष भी इस स्थिति को बखूबी समझ रहा है. इसलिए उसने अपने ताजा हमलों में से जनता की कठिनाई को निकाल दिया है. अब वह या तो मोदी पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोपों के सहारे आगे बढ़ना चाह रहा है, या नोटबंदी की मंशा पर शंकाएं खड़ी करके या देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले इसके संभावित दुष्प्रभावों को लेकर. सरकार से हिसाब पूछ रहा है कि कितना काला धन पकड़ में आया, कितने लाख करोड़ वापस मिले, वापस मिले पुराने नोटों में कितना काला धन है, सरकार ने किस-किस पूंजीपति को लाभ पहुंचाया, नोटबंदी से पहले बीजेपी और उसके नेताओं के खाते में कितना पैसा जमा हुआ, आदि, आदि. लेकिन यहां भी वह भ्रष्टाचार और चुनावी राजनीति के सीधे रिश्ते पर कोई सवाल खड़ा करने से कतरा रहा है.
पूंजीपतियों के साथ मोदी के भ्रष्ट रिश्तों की बात तो उठाना चाहता है, लेकिन राजनीतिक पार्टियों के पूंजीपतियों के साथ जो संरचनागत रिश्ते हैं, और जिनके दोहन से सभी राजनीतिक पार्टियों को पैसा मिलता है, उन पर सीधा सवाल खड़ा करने से कन्नी काट रहा है. इसका परिणाम है कि मोदी पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोपों को बीजेपी और स्वयं मोदी इस तरह झाड़ देते हैं, जैसे कोई अपने नये सूट से आंधी की धूल को झाड़ देता है. जैसे यह धूल सिर्फ और सिर्फ झाड़ने के लिए ही हो न कि तव्वजो देने के लिए. बाकी आरोपों और शंकाओं के जवाब मोदी पूरे जोशो-खरोश के साथ दे रहे हैं कि उनका यह कदम भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध है, गरीबों के हित में है, और इससे अगर किसी को फायदा होगा तो सिर्फ और सिर्फ देश के गरीबों का ही होगा. अगर मोदी का यह कथन उनका राजनैतिक पाखंड है, तो विपक्ष के सारे बाण उनके इस पाखंड को भेदने में विफल हो गए हैं.
आज हालत यह है कि जिस नोटबंदी को विपक्ष अपना सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा मान रहा था, वह उसके गले की हड्डी बनने जा रहा है. विपक्ष अगर इस मुद्दे से किनारा करना भी चाहेगा तो भी मोदी उसको किनारा करने नहीं देंगे. वह आज इसकी सफलता के दावे तो कर ही रहे हैं, कल और भी जोर-शोर से करेंगे. अब वह जनता को बताएंगे कि इससे आम लोगों की झोली में क्या-क्या लाभ कैसे-कैसे पहुंचेगा. अपनी बात को जनता तक पहुंचाने और पहुंचा कर प्रभावित करने में मोदी से बड़ा वाग्मी नेता इस समय देश में दूसरा नहीं है. विपक्ष ने अपनी लंतरानियों से मोदी को और अधिक मजबूत कर दिया है, और उन्हें अधिनायकवादी होने की ओर धकेल दिया है, ऐसा अधिनायकवादी होने की ओर जिसके लिए विपक्ष सिर्फ उपहास की वस्तु होता है, गंभीरता से लेने की नहीं. विपक्ष को आगे और अधिक बौना हो जाने के लिए तैयार रहना चाहिए.
Tweet![]() |