आईआईटी : कम हो रहा आकर्षण
यह धारणा अब टूट जानी चाहिए कि नौकरियों के लिहाज देश के आईआईटी पढ़ाई की सर्वश्रेष्ठ जगहें हैं.
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वजह यह है कि इस साल यहां चले कैंपस हायरिंग के लंबे दौर के बाद इनके जरिये मिलने वाली नौकरियों की संख्या और पैकेज, दोनों में भारी गिरावट दर्ज की गई है. इस दफा एक करोड़ से ऊपर की नौकरियों के ऑफर पाने वाले छात्रों की संख्या 2014 के मुकाबले 50 फीसद घट गई है. बीते वर्षो में महज अमेरिकी कंपनियों के लिए प्रोफेशनल्स तैयार करने वाली फैक्टरियों में तब्दील हो चुके आईआईटी संस्थानों के छात्रों के औसत पैकेज में आई कमी से खतरा अब बन गया है कि इन वजहों से इनकी रही-बची प्रतिष्ठा भी धूमिल न हो जाए.
हाल के दशक में तकरीबन हर साल आईआईटी में हुए कैंपस सेलेक्शन में चयनित छात्रों को ऑफर किए जाने वाले सालाना पैकेज के नए-नए रिकॉर्ड की सूचनाएं आती हैं. लोग यह सोचकर हैरान होते रहे हैं कि लाखों-करोड़ों के पैकेज वाली ये नौकरियां ऐसे देश में कुछ युवाओं को मिल रही हैं, जहां बेरोजगारी आसमान छू रही है.
इधर, नोटबंदी के बाद से बंद हुए कारखानों और निर्माण क्षेत्र के चौपट हुए कामकाज के बाद हजारों-लाखों युवा जहां यह सोचकर परेशान हैं कि उनके परिवार की दो वक्त की रोटी का जुगाड़ अब कैसे हो, वहां अब देसी-विदेशी कंपनियों ने आईआईटी के छात्रों को लेकर जो रु ख दर्शाया है, उससे इन संस्थानों के भविष्य का खतरा भी पैदा हो गया है. इस साल आईआईटी में कैंपस सलेक्शन शुरू होने से पहले ही गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, ओरेकल आदि कंपनियों के प्रतिनिधि कह रहे थे कि कैंपस हायरिंग के जरिए बेहतरीन टैलेंट को चुनते हुए वे युवाओं को सवा करोड़ तक के पैकेज वाली नौकरियां ऑफर करेंगे. पर एकाध मामलों को छोड़कर औसत रूप से ऐसा हो न सका. पिछले साल ज्यादातर स्टार्टअप कंपनियों के मंदे हुए बिजनेस और ऑफर लेटर से मुकरने की घटनाओं के कारण आईआईटी संस्थानों में पहले से ही बेचैनी थी, पर इस साल तो नजारे और भी बुझे हुए रहे.
सवाल है कि अगर नौकरियों के मामले में भी आईआईटी बेनूरी के शिकार हो जाएंगे, तो उनके होने का क्या औचित्य बचेगा? ध्यान रहे कि आज के छात्र आंख मूंदकर सिर्फ आईआईटी के नाम पर किसी संस्थान में नहीं घुस जाना चाहते हैं. बेशक, अभिभावकों में अभी यह चाव बचा है कि वे अपने बच्चों को आईआईटी में दाखिला दिलाना चाहते हैं और इसके लिए महंगी कोचिंग दिलाने में परहेज नहीं करते. कई कोचिंग संस्थान उनकी इस इच्छा का बुरी तरह दोहन भी करते हैं. पर जहां तक छात्रों का मामला है, वे पहले अपने कॅरियर की संभावनाओं को देखते हैं. इसी वजह से कई आईआईटी में उनकी दिलचस्पी खत्म होने को है, जैसे माइनिंग के सिकुड़ते फील्ड की वजह से आईआईटी, धनबाद की अब पहले जैसी प्रतिष्ठा नहीं रही. दूसरे, सरकार जनता को संतुष्ट करने के लिए देश की कई जगहों पर आईआईटी खोलती रही है.
सरकार यह मानकर संतुष्ट है कि किसी संस्थान पर आईआईटी का ठप्पा लगाने भर से छात्र उन पर टूट पड़ेंगे. लेकिन उनमें न तो ढंग की फैकल्टी है और न ही पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर. हो सकता है कि सरकार उन्हें इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया करा दे, लेकिन आईआईटी से निकले छात्रों को नौकरी कौन देगा? वही अमेरिकी कंपनियां, जो अब आईआईटी में कैंपस हायरिंग करने के बजाय ऑफ कैंपस मोड (यानी दूसरे तरीकों से) अपने लायक युवाओं को चुन रही हैं. असल में, अब जरूरत है कि आईआईटी को उनके मूल मकसद की तरफ मोड़ा जाए. यह मकसद था देश के विकास के लिए ऐसी जरूरी टेक्नोलॉजी तैयार करना जिसके लिए हम विकसित देशों पर निर्भर रहे हैं.
आज मैसाच्युसेट्स ऑफ टेक्नोलॉजी जैसे अमेरिकी संस्थान इसीलिए जाने जाते हैं कि वे साइंस-तकनीक के मामले में नई और खोजी प्रवृत्ति अपने छात्रों में डालते हैं. इसके बल पर वहां से निकले छात्र किसी नौकरी के मोहताज नहीं रहते. वे अपनी प्रतिभा के बूते ऐसे-ऐसे करिश्मे करते हैं कि बड़ी से बड़ी कंपनी उन्हें मनचाहे पैकेज पर अपने यहां लाने को लालायित हो जाती है. लेकिन ऐसा करने के बजाय विडंबना है कि हमारे आईआईटी संस्थानों की भूमिका पिछले कुछ वर्षो में विदेशी कंपनियों के लिए सस्ते प्रोफेशनल तैयार करने तक सीमित हो गई है. आईआईटी जैसी जहीन जगहों का मकसद सिर्फ यह तो नहीं होना चाहिए कि वहां से निकले युवा अपनी प्रतिभा के बजाय लाखों-करोड़ों के सालाना वेतन की वजह से जाने जाएं?
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