ब्रह्म विद्या
ब्रह्म-विद्या का अर्थ वह विद्या है, जिससे हम उसे जानते हैं, जो सब जानता है.
आचार्य रजनीश ओशो |
ज्ञान के स्त्रोत को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है. इसलिए भारत ने बाकी विद्याओं की बहुत फिक्र नहीं की. ब्रह्म-विद्या की फिक्र की. लेकिन उसमें अड़चन है, क्योंकि ब्रह्म-विद्या जानने को कभी लाखों-करोड़ों में एक आदमी उत्सुक होता है. पूरा देश नहीं. और भारत के जो श्रेष्ठतम मनीषी थे, वे ब्रह्म-विद्या में उत्सुक थे.
और भारत का जो सामान्य जन था, उसकी कोई उत्सुकता ब्रह्म-विद्या में नहीं थी. लेकिन सामान्य जन और विद्याओं को विकसित नहीं कर सकता. परम मनीषी करते हैं. और परम मनीषी उन विद्याओं में उत्सुक ही न थे. इसलिए भारत ने बुद्ध, महावीर, कृष्ण, पतंजलि, कपिल, नागराजन, वसु बंध, शंकर को जाना भारत ने. इनमें से कोई भी अल्बर्ट आइंस्टीन हो सकता है, प्लांक हो सकता है. लेकिन भारत का जो श्रेष्ठतम मनीषी था, वह परम विद्या में उत्सुक था. और भारत का जो सामान्य जन था, उसकी तो परम विद्या में कोई उत्सुकता ही नहीं थी. उसकी उत्सुकता दूसरी विद्याओं में है. पश्चिम में दूसरी विद्याओं को विकसित किया क्योंकि पश्चिम के बड़े मनीषी और विद्याओं में उत्सुक थे. इसलिए अद्भुत घटना घटी. पश्चिम ने सब विद्याएं विकसित कर लीं और आज पश्चिम को लग रहा है कि आत्म-अज्ञान से भरा हुआ है.
और पूरब ने आत्म-ज्ञान विकसित कर लिया और उसे लग रहा है. कि हमसे ज्यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया में कोई नहीं है. हमने अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया दांव. उन्होंने दूसरी अति कर ली. आत्म विद्या को छोड़कर बाकी सब विद्याओं पर दांव लगा दिया. बड़ी उलटी बात है. वे आत्म-अज्ञान से पीड़ित हैं, और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता से. वह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का जब संतुलन हो, तो पूर्ण संस्कृति विकसित होती है. इसलिए न तो पूरब और न पश्चिम ही पूर्ण है. फिर भी अगर चुनाव करना हो अगर तो परम विद्या ही चुनने जैसी है. सारी विद्याएं छोड़ी जा सकती हैं क्योंकि और सब पा कर कुछ भी पाने जैसा नहीं है. कृष्ण कहते हैं-मैं परम विद्या हूं सब विद्याओं में. लेकिन यह बात आप ध्यान रखना, और विद्याओं का वे निषेध नहीं करते हैं. और विद्याओं में जो श्रेष्ठ है, उसकी सूचना भर दे रहे हैं. यह नहीं कह रहे कि सिर्फ अध्यात्म-विद्या को खोजना है, बाकी सब छोड़ देना है.
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