भारतीयता के पुनर्जागरण का प्रतीक बने राम मंदिर

Last Updated 01 Aug 2020 11:36:29 AM IST

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का ही नहीं, बल्कि उस सपने के भी सच होने का वक्त आ गया है जो संभवत: भारतीयता के पुनर्जागरण का सबसे सुनहरा प्रतीक है। पांच अगस्त को नक्षत्रों और पवित्र मुहूर्त का खास ध्यान रखते हुए राम मंदिर की नींव रखी जानी है।


भारतीयता के पुनर्जागरण का प्रतीक बने राम मंदिर

इस अवसर को लेकर पूरा देश राममय हो चला है और अयोध्या बन गई है सनातन संस्कृति की विस्तारित राजधानी। मंदिर निर्माण की औपचारिक प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही यह कहना भी औपचारिकता मात्र ही रह जाएगा कि इस शुरुआत से लाखों-करोड़ों राम भक्तों का लंबा इंतजार खत्म हो जाएगा। साथ ही इतिश्री हो जाएगी उस आंदोलन की, जिसने भारतीय जनमानस की चेतना को लगभग तीन दशकों तक एक सूत्र में पिरोकर रखने का काम किया। इसे विधि की व्यवस्था भी कह सकते हैं कि भूमि पूजन का यह शुभ कार्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में हो रहा है, जो खुद राम जन्मभूमि आंदोलन के नायकों में से एक रहे।

सर्वविदित है कि मोदी साल 1990 में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण अडवाणी की उस रथ यात्रा के सारथी थे, जिसने मंदिर आंदोलन को निर्णायक रफ्तार देने का काम किया। लेकिन इस बात की जानकारी कम लोगों को है कि अपनी भाषण शैली से लाखों की भीड़ को वश में कर लेने वाले मोदी ने पूरी रथ यात्रा के दौरान एक भी भाषण नहीं दिया था और पूरे समय पर्दे के पीछे रहकर चाणक्य का काम किया।

मंदिर निर्माण और आंदोलन का जिक्र
दरअसल, राम मंदिर निर्माण की कहानी इस आंदोलन के जिक्र के बिना पूरी भी नहीं हो सकती। वो इसलिए क्योंकि आंदोलन से जुड़ा सियासी और संत समाज दशकों की अपनी मेहनत से राम मंदिर को देश की अस्मिता का सवाल बनाने में कामयाब रहा। नब्बे का वो दशक इस लिहाज से अहम था कि मंडल-कमंडल जैसे कई फैक्टर हमारी सामाजिक-राजनीतिक चेतना पर एक साथ अपना असर छोड़ रहे थे। सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा, देश भर में दंगे, कारसेवकों पर गोलीचालन, बाबरी विध्वंस, प्रतिक्रियास्वरूप बांग्लादेश, पाकिस्तान समेत कई देशों में हिंदुओं पर हमले, बीजेपी-शासित चार राज्यों में राष्ट्रपति शासन, यूपी के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को एक दिन की जेल, गोधरा कांड में अयोध्या से लौटते कारसेवकों को जिंदा जलाया जाना, प्रतिक्रियास्वरूप गुजरात में दंगे ऐसी घटनाएं हैं जो भुलाई नहीं जा सकतीं। 1984 में महज दो सांसदों से संसदीय पारी की शुरु आत करने वाली बीजेपी के लिए राम मंदिर आंदोलन ने संजीवनी का काम किया। अगले केवल 12 साल में बीजेपी तेरह दिन, तेरह महीने और फिर पांच साल की पहली विशुद्ध गैर-कांग्रेस सरकार चलाने में कामयाब रही।

2004 से 2014 तक दस साल का सियासी वनवास पूरा करने के बाद बीजेपी की सत्ता में दोबारा वापसी हुई, लेकिन इस जनादेश में केवल राम मंदिर निर्माण की भूमिका ही नहीं थी। देश की जनता ने यूपीए काल के भ्रष्टाचार के खिलाफ वैकल्पिक सुशासन देने के लिए बीजेपी को चुना था। फिर 2019 में राष्ट्रवादी तेवर बीजेपी की वापसी की वजह बने और पार्टी ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने, घुसपैठियों को देश से बाहर निकालने और ट्रिपल तलाक जैसे मामले में सियासी कलेवर वाले फैसले किए। लेकिन राम मंदिर निर्माण का फैसला अदालत की चौखट पर जाए बिना संभव नहीं था। सो, बीजेपी ने अदालती प्रक्रिया को चुस्त-दुरूस्त करते हुए मंदिर के शिलान्यास की राह प्रशस्त की। इस लिहाज से बीते 30 साल का समय बीजेपी के राजनीतिक और धार्मिंक पुनर्जागरण का काल भी कहा जा सकता है। कई बीजेपी नेता बहुत गर्व से कहते हैं कि आज राम मंदिर के निर्माण का कोई विरोध करने वाला नहीं रहा और यही बीजेपी के राम मंदिर आंदोलन की सबसे बड़ी जीत है। दरअसल, बीजेपी देश को समझाने में कामयाब रही कि मुसलमानों के लिए जैसे मक्का-मदीना है, ईसाइयों की वेटिकन सिटी है, तो हिंदुओं के लिए अयोध्या क्यों नहीं हो सकती और अगर अयोध्या होगी तो राम मंदिर वहां नहीं होगा, तो फिर कहां होगा?

रामराज्य अभी नहीं तो कब?
लेकिन इन सवालों के बदले कई दूसरे सवाल बीजेपी से भी किए जाते हैं। जब-जब रामलला की बात होती है तब-तब रामराज्य की भी बात उठ जाती है। वैसे तो राम मंदिर निर्माण से रामराज्य का कोई सीधा संबंध नहीं है, मगर अयोध्या आंदोलन से जुड़े राजनीतिक-धार्मिंक विमर्श के कारण उससे रामराज्य की अपेक्षा भी जुड़ती है। हिंदी पट्टी के ज्यादातर प्रदेशों में डबल इंजन की सरकारें हैं यानी केंद्र के साथ ही राज्य में भी बीजेपी सरकार। इसलिए पूछा जाने लगा है कि रामराज्य अभी नहीं तो कब? रामराज्य का सीधा मतलब सुशासन होता है। इसका मतलब अन्याय का अंत है, न्याय की प्रतिष्ठा है। सिर्फ  हिंदी पट्टी ही नहीं, समूचे हिंदुस्तान में रामराज्य यानी सुशासन की जरूरत लोग महसूस कर रहे हैं। दुर्भाग्य से इस कल्पना से यथार्थ अभी बहुत दूर है।

राम मंदिर के शिलान्यास की तारीख 5 अगस्त को चुनी गई है। यह वह तारीख है जिस दिन 2019 में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 का विलोपन हुआ था और इस राज्य को दो हिस्सों में बांटकर उन्हें केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया था। राम मंदिर आंदोलन के माथे पर सांप्रदायिकता का कलंक साथ-साथ आक्षेपित रहा है। ऐसे में शिलान्यास के मुहूर्त को भी जम्मू-कश्मीर से जोड़ देने पर इस अवसर को राजनीतिक रंग देने का आरोप भी अमिट रहेगा। खुद शंकराचार्य स्वरूपानन्द सरस्वती ने राम मंदिर के शिलान्यास के मुहूर्त को अशुभ बताया है। अशुभ मुहूर्त को राजनीतिक कारणों से अगर शुभ में बदल दिया जाता है, तो चाहे आस्थावान लोग हों या नास्तिक, दोनों के मन में खटका तो रहेगा। यही वजह है कि शिलान्यास के अवसर पर भी उंगलियां उठ रही हैं।

बहस तो इस बात को लेकर भी है कि क्या शिलान्यास का मौका देश के प्रधानमंत्री को दिया गया है? अगर हां, तो इससे जुड़ा दूसरा प्रश्न उठ जाता है कि क्या कोई गैर-बीजेपी सरकार का व्यक्ति प्रधानमंत्री होता तो उन्हें भी यह अवसर दिया जाता? इन प्रश्नों से इतर एक सच्चाई यह है कि आंदोलन के महत्त्वपूर्ण क्षणों में उनकी सक्रिय भागीदारी और योगदान रहा। आज वे देश के प्रधानमंत्री हैं और उन्होंने मंदिर निर्माण में आ रही बाधाओं को दूर करने का काम किया है। ऐसे में वे अयोध्या आंदोलन के जनक लालकृष्ण आडवाणी की दावेदारी पर इस वजह से भी भारी पड़ गए क्योंकि वे देश के प्रधानमंत्री भी हैं।

अमरनाथ यात्रा जैसा हो जाएगा दरजा
अयोध्या हिन्दुओं का तीर्थस्थल पहले से है, लेकिन राम मंदिर निर्माण के बाद इसका दरजा भी अमरनाथ यात्रा जैसी तीर्थ यात्राओं जैसा हो जाएगा। यह आने वाले समय में हरिद्वार, ऋषिकेश, बद्रीनाथ, कामरूप, पुरी जैसे हिंदू तीर्थ स्थलों के बीच सबसे महत्त्वपूर्ण होकर उभरेगा। अयोध्या में रामलला अभी अस्थायी मंदिर में हैं, फिर भी पिछले साल करीब 1.5 लाख श्रद्धालु बाहर से आए। अयोध्या का पहुंच मार्ग अगर ठीक से विकसित हो जाता है, तो यहां श्रद्धालुओं की दैनिक संख्या पचास हजार तक पहुंच सकती है। महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि अयोध्या हिंदुओं के लिए ही नहीं, बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों के लिए भी महत्त्व रखती है। ऐसे में अयोध्या अंतरराष्ट्रीय तीर्थ स्थल के तौर पर उभरेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। देश के बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी और गौतम अडानी का शिलान्यास के मौके पर शामिल होना यह बताता है कि उनकी भी इसमें रुचि है। यह रुचि सिर्फ  धार्मिंक कायरे में रुचि न रहकर अयोध्या नगरी को तीर्थ केंद्र के तौर पर विकसित करने के रूप में भी होगी, ऐसा अनुमान है। धार्मिंक पर्यटन का मॉडल अयोध्या को केंद्र में रखकर कैसे विकसित किया जाए, इस पर देशव्यापी चर्चा चल रही है। सकारात्मक रूप से सोचें तो अयोध्या ने अपने विकास का मार्ग राम मंदिर के केंद्र में सुनिश्चित कर लिया है।

उपेन्द्र राय


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