मुद्दा : मुस्लिम सियासी दल और मुसलमान

Last Updated 06 Sep 2025 03:29:40 PM IST

लोकतंत्र में हर नागरिक को वोट देने तथा चुनाव लड़ने और अपनी पार्टी बनाने का अधिकार है। विभिन्न समुदायों, जातियों, जनजातियों, प्रदेशों और धर्मावलंबियों ने अपने-अपने दल बना रखे हैं, जो चुनाव लड़ते हैं।


मुद्दा : मुस्लिम सियासी दल और मुसलमान

मुस्लिम यद्यपि भारत में अल्पसंख्यक हैं परंतु उनके भी बहुत से राजनीतिक दल हैं-इंडियन यूनियन  मुस्लिम  लीग, ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तहादुल मुस्लमीन, ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट, मुस्लिम मजलिस, पीस पार्टी और उल्मा कौंसिल तथा धर्मनिरपेक्ष मोर्चा आदि आदि। 

इन मुस्लिम दलों और सेक्युलर पार्टयिों के कारण  मुस्लिम वोट लोक सभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों आदि के इलेक्शन में दलितों और पिछड़ों के वोटों की भांति विभाजित होकर निष्प्रभावी भी हो जाता है। मुस्लिम दलों के कारण ही संघ परिवार को बहुसंख्यकों को हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर एकजुट करने का अवसर मिल जाता है। तथ्य है कि केरल, असम और बिहार के अपवाद के साथ अधिकांश मुस्लिम मतदाता मुस्लिम राजनीतिक दलों को नहीं, बल्कि सेक्युलर दलों यथा समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और टीएमसी आदि को ही वोट देते हैं।

यह भी कटु सत्य है कि उत्तर प्रदेश, असम और बिहार में एनडीए की सरकारें हैं, तो उसका प्रमुख कारण मुस्लिम दल भी हैं। इत्तहादुल मुस्लमीन के अकबरुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं के उत्तेजक नारों से भी भारतीय मुसलमानों का अहित होता है क्योंकि अकबर के तो नारे ही रहते हैं परंतु संघ परिवार के नारे अमली रूप धारण कर निरीह मुसलमानों को हानि पहुंचाते हैं। यही कारण है कि अधिकांश मुस्लिम मतदाता मुस्लिम दलों को कम वोट देते हैं, और सेक्युलर पार्टयिों को ही पसंद करते हैं परंतु सत्य यह भी है कि कुछ अत्यधिक धर्मभीरु और भावुक मुस्लिम उत्तर प्रदेश और बिहार में बैरिस्टर ओवैसी की पार्टी को वोट देते हैं।

परिणामत: उत्तर प्रदेश में अनेक विधानसभा सीटों  पर ओवैसी के उम्मीदवार को मिलते तो दो चार हजार वोट ही हैं परंतु वे हिन्दू भाइयों को विशेष रूप से सवर्ण जातियों को भाजपा के पक्ष में लामबंद कर देते हैं, और सपा के उम्मीदवार अनेक सीटों पर भजपा के उम्मीदवार से हजार दो हजार मतों से हार जाते हैं, और योगी जी फिर से मुख्यमंत्री बन जाते हैं। फिर कोई ओवैसी प्रताड़ित मुसलमानों को बचाने नहीं आता, बस मौखिक निंदा करके बैठ जाते हैं।

इस स्थिति के लिए सपा और कांग्रेस जैसी सेक्युलर पार्टयिों के नेता भी कुछ हद तक जिम्मेदार होते हैं  क्योंकि वे ओवैसी को कम करके आंकते हैं। यदि ‘इंडिया’ गठबंधन कुछ सीटें बिहार और उत्तर प्रदेश में मजलिस को  दे देते तो कदाचित आज इन दोनों बड़े प्रदेशों में एनडीए की सरकारें नहीं होतीं। ‘इंडिया’ गठबंधन को आशंका है कि   ओवैसी को साथ लेने से हिन्दू वोट खिसक सकता है परंतु यदि कांग्रेस केरल में मुस्लिम लीग और असम में मौलाना बदरु द्दीन अजमल के साथ चुनावी गठजोड़ कर सकती है, तो ओवैसी तो मौलाना के मुकाबले अच्छे वक्ता हैं। अत:  उनके साथ भी चुनावी गठबंधन किया जा सकता है।

यद्यपि मैं भी मुस्लिम दलों द्वारा डेढ़ ईट की मस्जिद बनाने के विरुद्ध हूं परंतु यदि बिहार विधानसभा से पूर्व कुछ सीटें महागठबंधन मजलिस को दे दे तो निश्चय ही ‘इंडिया’ को लाभ होगा तथा बिहार में महागठबंधन की सरकार बनने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। इसके अतिरिक्त मैं ओवैसी को यह सलाह देना चाहूंगा कि वह आज भारत में बढ़ती सांप्रदायिकता और हिन्दू  मुस्लिम वोटों के चुनाव के दौरान ध्रुवी करण को रोकने के लिए अपनी पार्टी के नाम में से मुस्लमीन शब्द हटा कर मुहिब्बान वतन (वतन प्रेमी ) लगा दें तो बेहतर होगा और मुस्लिम दुश्मन सरकारों से देश को मुक्ति मिल जाएगी। तब  महागठबंधन को भी मजलिस को अपने साथ रखने में कोई आपत्ति नहीं होगी। 

यहां यह जिक्र करना भी उचित होगा कि बिहार में वोट अधिकार यात्रा के दौरान मधुबनी में मजलिस के कार्यकर्ताओं ने राहुल गांधी, तेजस्वी यादव और दीपांकर भट्टाचार्य के निकट पहुंच कर पोस्टर-बैनर के साथ नारेबाजी की और मांग की कि ‘मजलिस को महागठबंधन में शामिल किया जाए अन्यथा हम ‘इंडिया’ गठबंधन के विरुद्ध अपने उम्मीदवार खड़े करके उसे हरा देंगे। स्पष्ट है  कि महागठबंधन धमकियों में तो नहीं आएगा परंतु इसके नेताओं को ऊंच-नीच देख कर निर्णय करना चाहिए।

यहां यह जिक्र करना भी उचित होगा कि बिहार के 2020 में विधानसभा चुनाव में मजलिस ने 20 उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें से पांच जीत गए थे और मजलिस को 1.24 प्रतिशत वोट मिले थे तथा ‘इंडिया’ गठबंधन की बिहार में सरकार न बनने का प्रमुख कारण मजलिस के उम्मीदवार थे। अत: भाजपा भी कोशिश करेगी कि मजलिस अकेले चुनाव लड़ कर मुस्लिम वोट को विभाजित कर  भाजपा सरकार बनने में अप्रत्यक्ष रूप से मदद करे। इसलिए बिहार के मुस्लिम मतदाताओं, मजलिस और महागठबंधन के नेताओं को गंभीरतापूर्वक इस बारे में निर्णय लेना होगा।

(लेख में विचार निजी हैं)

डॉ. असद रजा


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