आत्महत्या : अति महत्त्वाकांक्षा की परिणति

Last Updated 19 Dec 2022 01:44:21 PM IST

हाल में राजस्थान के कोटा शहर में तीन छात्रों द्वारा की गई आत्महत्या समाज के समक्ष अनेक यक्ष प्रश्न खड़े करती है, जिनके उत्तर आज तलाशने ही होगे।


आत्महत्या : अति महत्त्वाकांक्षा की परिणति

अपने जीवन लीला समाप्त करने वाले तीनों छात्र कोटा में इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी करने के लिए आए थे। लगभग 3800 करोड़ रुपये का कोचिंग व्यवसाय संचालित करने वाला यह शहर भविष्य के सुनहरे सपनों को बेचता है। प्रतियोगिता की दौड़ में मानसिक दबाव को न झेल पाने वाले छात्र आत्महत्या के मार्ग को चुनने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार देश में औसतन दस हजार बच्चे प्रति वर्ष आत्महत्या करते हैं। बच्चों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के आंकड़ों से स्पष्ट है कि इसको रोकने के प्रयास कागजों पर ही हो रहे हैं। अभिभावकों, अध्यापकों, कोचिंग संस्थाओं, समाज आदि को मिलकर सोचना होगा कि बच्चों की आत्महत्याओं को कैसे रोका जाए। प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस बनाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए तैयार है।

बच्चों के कोमल कंधों पर अभिभावक अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और कुंठाओं का इतना अधिक बोझ डाल देते हैं कि बच्चे अपने सपनों को ही छोड़ देते हैं। कोचिंग संस्थाएं भी मानसिक दबाव पैदा करने में कसर नहीं छोड़तीं। मेडिकल, इंजीनियरिंग, आईआईटी, एमबीए, आईएएस आदि कोचिंग संस्थान अपने आप को इस प्रकार ग्लैमराइज करते हैं कि जीवन में हासिल करने लायक बस यही एक उद्देश्य है। सफल छात्रों को इस प्रकार से हीरो बना कर पेश किया जाता है कि तैयारी करने वाला छात्र आसानी से इनके जाल में फंसता जाता है। कोचिंग संस्थानों के एक-एक बैच में 500 से 600 छात्र होते हैं। बच्चों की योग्यता के आधार पर उनको अलग-अलग बैठाया जाता है। आगे निकलने की होड़ में छात्र स्वयं को अकेला महसूस करने लगते हैं, डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं। जब स्वयं को असहाय पाते हैं, तो आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर हो जाता है।

2019 में आत्महत्या करने वाले 1557 छात्र 18 वर्ष से कम उम्र के थे। इनमें से 30 प्रतिशत से अधिक छात्रों ने परीक्षा में असफल रहने पर आत्महत्या की थी। मेडिकल और इंजीनियरिंग की सीमित सीटों के कारण प्रतियोगिता में सफल होने का दबाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। 2022 में जेईई मेंस में करीब 10 लाख लोगों ने परीक्षा दी थी, जिनमें से केवल 40,172 उत्तीर्ण हुए अर्थात उत्तीर्ण होने की दर मात्र 4 प्रतिशत है। आईआईटी की 16,000 सीटों के सापेक्ष उत्तीर्ण होने की दर मात्र 1.6 प्रतिशत थी। नीट में 17 लाख से अधिक छात्र परीक्षा में बैठे थे जिसमें यह दर 5 प्रतिशत रही। आईएएस की लगभग 1000 सीटों के लिए लगभग 6 से 7 लाख लोग परीक्षा देते हैं। सरकारी नौकरी के प्रति आकषर्ण के कारण युवा अपने जीवन के उत्पादक वर्ष इन कोचिंग संस्थानों में ही बिता देते हैं। हमें समझना होगा कि जीवन प्रतियोगिता नहीं है, और न ही हम मशीनों का निर्माण कर रहे हैं।

समाज में लोगों की सामूहिक जिम्मेदारी है कि बच्चों को मेहनती, समझदार और अच्छे इंसान बनने के लिए प्रेरित करे जिससे कि वे जीवन में सफल हो सकें। जीवन के संघर्ष में अंक तालिकाएं काम नहीं आतीं, बल्कि बच्चे को व्यावहारिक ज्ञान ही दिशा दिखाता है। इस परिवर्तन की शुरुआत अभिभावकों को करनी होगी। समझना होगा कि प्रतियोगिता में सफलता ही जीवन का मापदंड नहीं है। प्रत्येक बच्चे की प्रकृति अलग होती है, स्वभाव और मानसिक स्तर अलग होता है। प्रत्येक स्कूल और कोचिंग संस्थान के लिए काउंसलर और मनोवैज्ञानिक की नियुक्ति को अनिवार्य किया जाना चाहिए। तनाव एवं दबाव प्रबंधन से संबंधित कक्षाओं के संचालन को बढ़ावा देने हेतु इसे सीबीएसई के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। 13 से 19 वर्ष तक के बच्चों को, जब वे भावनात्मक परिवर्तन के दौर से गुजर रहे होते हैं, के मानसिक स्तर पर विषेश ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। इस उम्र में मां-बाप, अध्यापक, कोचिंग संस्थान, समाज आदि की असंवेदनशीलता बच्चों में गुस्सा, चिड़चिड़ापन और विद्रोह भर देती है जिससे बच्चा अपने केंद्र बिंदु से ही दूर हो जाता है। शिक्षा व्यवस्था भी इस प्रकार की होनी चाहिए कि छात्र जिज्ञासु बनें न कि  मानसिक दबाव महसूस करें।

जरूरी  है कि बच्चों को कोई स्किल सीखने के लिए प्रेरित किया जाए जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। यद्यपि नई शिक्षा नीति में इन विषयों को समाहित किया गया है परंतु समय ही बताएगा कि यह नीति कसौटी पर कितनी खरी उतरती है। कोटा में आत्महत्याओं से हमें सबक अवश्य सीखना होगा कि आखिर, हम कैसे भविष्य का निर्माण करना चाहते हैं। युवा ही देश की विरासत को बढ़ाने और विकास को आकार देने में सक्षम हैं। केंद्र एवं राज्य सरकारों को मिलकर इस दिशा में ठोस प्रयास करने होंगे।

डॉ. सुरजीत सिंह गांधी


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