कांग्रेस को आप से भी पार पाना होगा

Last Updated 18 Dec 2022 01:43:57 PM IST

सत्ता तो थी ही नहीं, पर आम आदमी पार्टी ने एक और राज्य में कांग्रेस के पैरों तले से जमीन छीन ली।


कांग्रेस को आप से भी पार पाना होगा

बात गुजरात की हो रही है, जहां पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सत्तारूढ़ भाजपा को कड़ी टक्कर दी थी। पाटीदार आंदोलन के साये में हुए उन चुनावों में 182 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा 99 सीटों पर सिमट गई थी और कांग्रेस 77 सीटें जीतने में सफल रही थी। कई राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना था कि अगर कांग्रेस ने समय से चुनावी बिसात बिछाई होती तो शायद भाजपा को उसके महानायक नरेन्द्र मोदी के गृह राज्य में ही मात देने का करिश्मा कर पाती। पर अब हालिया विधानसभा चुनावों में भाजपा जिस तरह 27 साल बाद भी सत्ता बरकरार रखते हुए 156 सीटें जीतने का इतिहास रचने में सफल रही है, उससे तो कांग्रेस की राजनीतिक सोच और चुनावी समझ पर ही सवालिया निशान लग गया है।
मुफ्त-रेवड़ियों की राजनीति में माहिर आप को 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में एक प्रतिशत मत भी नहीं मिले थे। उसके बावजूद वह वहां स्थानीय चुनावों समेत हर संभव मौके पर हाथ-पैर मारती रही, लेकिन भाजपा से मात्र 22 सीटें पीछे रह गई  कांग्रेस पिछले पांच साल में जमीन पर कहीं नजर नहीं आई। कांग्रेस की राजनीतिक निष्क्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले विधानसभा चुनावों में अल्पेश ठाकुर, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी की जिस युवा तिकड़ी की बदौलत वह भाजपा को जबर्दस्त चुनौती देने में सफल रही थी, उसके पहले दो चेहरे इस चुनाव में भाजपा के पाले में खड़े नजर आए। हार्दिक पटेल को तो कांग्रेस ने प्रदेश का कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाया था।
बेशक, आप किसी को बंधक बना कर नहीं रख सकते। राजनेता भी समय और सुविधा के अनुसार पाला बदलते ही हैं।  आखिर, गोवा में शपथ पत्र भरने के बावजूद कांग्रेस के आठ विधायक चुनाव के कुछ महीने बाद पाला बदल ही गए। इसलिए असल सवाल समय और राजनीति की नब्ज पर कांग्रेस की पकड़ का है। हार्दिक तो चुनाव से कुछ पहले ही गए, पर अल्पेश तो बहुत पहले चले गए थे। न भी जाते तो पिछले चुनाव में बहुमत से मात्र 15 सीटें पीछे रह गए दल को अगले चुनाव के लिए जैसी मेहनत और तैयारी करनी चाहिए थी, वह करती कांग्रेस कभी नजर नहीं आई। गुजरात कांग्रेस में मची भगदड़ का यह भी एक बड़ा कारण रहा। देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल को अपनी दशा-दिशा की चिंता न भी हो, पर उसके नेताओं-कार्यकर्ताओं को तो रहेगी ही। पिछले चुनाव परिणाम के मद्देनजर सामान्य राजनीतिक समझ के अनुसार भी कांग्रेस की प्राथमिकता में गुजरात सबसे ऊपर होना चाहिए था। इसलिए भी कि वह मोदी का गृह राज्य है, जहां के प्रतिकूल जनादेश का संदेश दूरगामी साबित होता, पर कांग्रेस की अगंभीरता का आलम यह रहा कि बहुप्रचारित भारत जोड़ो यात्रा तो वहां से गुजरी ही नहीं, खुद राहुल गांधी भी महज एक दिन का समय निकाल कर दो रैलियां करने गए। उसके विपरीत आप ने न सिर्फ  स्थानीय सामाजिक समीकरणों को समझ कर बिसात बिछाई और कांग्रेस के आदिवासी मतों में सेंध लगाने में सफल रही, बल्कि अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसौदिया समेत उसके पास उपलब्ध तमाम दिग्गज वहां प्रचार करते भी नजर आए। संभव है कि आप मीडिया का ज्यादा आकषर्ण पा गई हो, पर जो जमीन पर दिखेगा, उसे ही दिखाया जाएगा। मीडिया कवरेज दे सकता, पर वोट नहीं दिलवा सकता-इस वास्तविकता से मुंह चुराना राजनीतिक परिपक्वता तो हरगिज नहीं।

गुजरात में अपने शर्मनाक प्रदशर्न के लिए कांग्रेस केजरीवाल की आप और असदूद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम द्वारा वोट काटे जाने को जिम्मेदार ठहराते हुए उन पर भाजपा की मदद का आरोप लगा रही है, पर यह अर्धसत्य ही है। एआईएमआईएम 13 सीटों पर लड़ने के बावजूद खाता नहीं खोल पाई। उसका मत प्रतिशत भी ऐसा नहीं रहा कि हार-जीत में निर्णायक भूमिका निभा सके। हां, आप अवश्य 13 प्रतिशत मत हासिल करते हुए पांच सीटें जीतने में सफल रही। स्वाभाविक ही आप और एआईएमआईएम को मिले मत भाजपा विरोधी मतों का हिस्सा रहे होंगे। यह भी कि अगर ये दोनों दल चुनाव मैदान में नहीं होते तो कांग्रेस की ऐसी दुर्गति नहीं होती, पर तब भी भाजपा सत्ता से बेदखल तो हरगिज नहीं हो जाती। भाजपा को हराने के लिए तो पहले कांग्रेस को कमर कसनी थी, जो उसने नहीं कसी-कारण जो भी रहे हों। कांग्रेस की यह सोच स्वयं में अलोकतांत्रिक है कि भाजपा विरोधी मतों में बंटबारा रोकने की खातिर अन्य दलों को चुनाव मैदान में नहीं उतरना चाहिए। अगर ऐसा है तो फिर कांग्रेस पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में चुनाव क्यों लड़ती है? महागठबंधन का अंग होते हुए भी बिहार में उसके हैसियत से ज्यादा सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का परिणाम क्या निकला था? यह भी कि हालिया दिल्ली नगर निगम चुनाव लड़ कर कांग्रेस ने अंतत: किसे फायदा पहुंचाया? जाहिर है, भारत में बहुदलीय लोकतंत्र है। सभी राजनीतिक दलों ही नहीं, निर्दलियों को भी चुनाव लड़ने का अधिकार है। नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता विरोधी मतों में ऐसे ही बंटबारे की बदौलत भी कांग्रेस दशकों तक देश और प्रदेशों में सत्ता पर काबिज रही।
  दरअसल, कांग्रेस दीवार पर लिखी इस स्पष्ट इबारत को भी नहीं पढ़ना चाहती कि देश की राजनीति में वह अब हाशिये पर जा चुकी है। हिमाचल प्रदेश में सत्ता छीन लेने के बावजूद यही वास्तविकता है कि कांग्रेस अकेले दम भाजपा को नहीं हरा सकती। हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ही ऐसे राज्य हैं, जहां कांग्रेस-भाजपा के बीच सीधी टक्कर है। कर्नाटक में भी कांग्रेस को जेडी एस से गठबंधन की दरकार होगी। ऐसे में भाजपा विरोधी मतों का बंटबारा रोकने के लिए विपक्षी एकजुटता की पहल उसकी मजबूरी है, लेकिन दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस से सत्ता छीनने के बाद गुजरात में भी उसके पैरों तले से जमीन छीन लेने वाली आप भला क्यों ऐसा चाहेगी?
जाहिर है, गुजरात विधानसभा चुनावों के बाद राष्ट्रीय दल की मान्यता पा चुकी आप अब मोदी को और भी आक्रामक चुनौती देते हुए अन्य राज्यों में भी कांग्रेस का विकल्प बनने की कोशिश करेगी ताकि विपक्षी एकता का केंद्र वह स्वयं बन पाए।  आप इस बात से भी उत्साहित है कि उसके पास अरविंद केजरीवाल हैं, जिनके नाम और चेहरे पर दिल्ली के बाहर अन्य राज्यों में भी वोट मिल जाते हैं। ऐसे में जबकि हमारी बहुदलीय राजनीति भी व्यक्ति केंद्रित हो गई है, बिना लोकप्रिय नेतृत्व के कांग्रेस के लिए आप से अपनी जमीन बचा पाना आसान तो हरगिज नहीं होगा।

राज कुमार सिंह


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