द कश्मीर फाइल्स : ईमानदार व्याख्या की दरकार

Last Updated 30 Mar 2022 02:31:16 AM IST

देश ने ऐसा दृश्य पहले कभी देखा नहीं था। एक बड़ा समूह हैरत से देख रहा है कि सिनेमा को लेकर ऐसा माहौल कैसे बना! वास्तव में ‘द कश्मीर फाइल्स’ आम दृष्टिकोण से है तो एक फिल्म ही है।


द कश्मीर फाइल्स : ईमानदार व्याख्या की दरकार

यह फिल्म 90 के दशक में कश्मीरी हिंदुओं के विरु द्ध इस्लामी जिहाद के नाम पर पैदा किए गए विध्वंस और आतंक की कहानी है, जिसके कारण उन्हें घाटी छोड़ने को मजबूर होना पड़ा या छोड़ने को बाध्य किया गया। विषय नया नहीं है। इसे मीडिया, डॉक्यूमेंट्री पुस्तकों और कुछ फिल्मों के माध्यम से पहले भी सामने लाया गया। अन्य मंचों पर भी ये उठाए जाते रहे हैं।
‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म अभिनय और कला की दृष्टि से उत्कृष्ट है या नहीं यह विषय समीक्षकों का है।

समीक्षक इसको जितना  अंक दें जनता ने इसे अब तक की सभी भारतीय फिल्मों  की तुलना में सर्वाधिक अंक और सर्वोच्च स्थान दे दिया है। कोई फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट होती है, पिछले फिल्म के दर्शकों और कमाई का रिकॉर्ड तोड़ती है यहां तक सब सामान्य माना जाएगा। इस फिल्म ने इन सबसे परे न केवल भारत बल्कि बाहर भारतीयों एवं भारत में रु चि रखने वाले समूहों के अंदर जैसा आलोड़न पैदा किया वह अद्भुत है। ऐसे वीडियो और तस्वीरें आ रही हैं, जिसमें लोग झंडे लिये, नारा लगाते, गीत गाते, झूमते बड़े-बड़े समूहों में सिनेमाहॉल जा रहे हैं। ऐसे लोग जो वर्षो से हॉल नहीं गए वे भी अपने दोस्तों, परिवार के साथ ‘द कश्मीर फाइल्स’ देखने जा रहे हैं। संवेग इतना है कि लोग अपील कर रहे हैं कि इसे जितनी बार चाहो देखो ताकि सारे रिकॉर्ड तोड़ दे।

इस तरह के सामूहिक व्यवहार एवं माहौल को समझने के लिए थोड़ी गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। आखिर इस फिल्म में ऐसा क्या है जिससे इसके प्रति ऐसी जनलहर पैदा हो गई है? जो कुछ है हमारे सामने है। कश्मीर फाइल्स ने कम समय में कमाई के सारे रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया है। भाजपा की प्रदेश सरकारें इसे टैक्स फ्री कर रही है, पर समर्थन देने के भावनात्मक आवेगों की तस्वीरों को देखें तो यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होगी कि बगैर टैक्स फ्री भी लोग इसी भावना के साथ फिल्म देखने जाते रहते। जहां टैक्स फ्री नहीं है वहां का माहौल भी ऐसा ही है। वस्तुत: टैक्स फ्री बाद में हुआ, फिल्म देखने का जन अभियान पहले आरंभ हो गया। तो क्यों?

जो इस पर छाती पीट रहे हैं दरअसल उनकी समस्या है कि वे अभी भी कुछ बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, नेताओं और एक्टिविस्टों के एक द्वारा बनाए गए पुराने वैचारिक मायाजाल के तहत ही सोचते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा संसदीय दल की बैठक में इसकी चर्चा कर दी, इसलिए स्वाभाविक ही पूरी पार्टी और संगठन परिवार में इसका विशेष संदेश गया है। संभव है इस फिल्म का राजनीतिक लाभ भी भाजपा को आगामी चुनाव में प्राप्त हो।  राजनीतिक दल होते हुए वह इस माहौल को और ज्यादा सुदृढ़ करने और इसका लाभ उठाने की रणनीति बनाकर काम कर रही होगी इसे भी स्वीकार कर लिया जा सकता है। क्या इस पूरी तस्वीर का यही विश्लेषण पर्याप्त है? आप देख सकते हैं, जिनका आरएसएस भाजपा से कोई लेना-देना नहीं वे भी अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर अपील कर रहे हैं, कि ज्यादा से ज्यादा संख्या में चाहे जितना भी टिकट है खरीदो और फिल्म को बार-बार देखो। यह विचार एक-दो दिन में भाजपा ने पैदा नहीं किया होगा।

संघ, इससे जुड़े अन्य संगठन तथा दूसरे हिंदू संगठनों ने लंबे समय से जो माहौल बनाया है उसका असर है। किंतु इनके विचारों में भी सच्चाई नहीं होती और लोगों की भावनाओं को नहीं छूती तो माहौल ऐसा नहीं बनता। सच्चाई यह है कि भारत का मानस आमूल बदलाव की ओर अग्रसर है। भाजपा को राजनीतिक स्तर पर इसका लाभ मिल जाता है, क्योंकि वह इसको अभिव्यक्त करती है, समय-समय पर समर्थन करती है। वह समर्थन पर्याप्त नहीं हो यह हो सकता है किंतु दूसरा कोई राजनीतिक दल इस तरह की अभिव्यक्ति और समर्थन देने वाला सामने नहीं है। ज्यादातर दल भाजपा के दबाव में हिंदुत्व पर थोड़ा बहुत आगे आते हैं, लेकिन उनमें अभी भी सकुचाहट है। सेकुलरवाद की विकृत व्याख्या ने उनके मानस पर ऐसा जंग लगाया है कि उसको झाड़ कर वे खुलकर बाहर आने को तैयार नहीं है। इस फिल्म के विरुद्ध उन सबकी प्रतिक्रियाएं ऐसी ही है। आखिर फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, कांग्रेस, कम्युनिस्ट या दूसरी पार्टयिां आदि यह क्यों नहीं समझ रही है कि उनकी निंदा-आलोचना के बावजूद लोगों का समूह बनाकर सिनेमा हॉल में जाने की संख्या घट नहीं रही।

फिल्म के विषयवस्तु पर बहुत कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। सच यही है कि पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय से हिंदुत्व, भारतीय संस्कृति तथा राष्ट्र के रूप में भारत की महान गौरव परंपरा आदि को लेकर संघ परिवार और दूसरे संगठनों ने जो जन अभियान चलाया उससे वह भाव जागृत होकर अपने आप विस्तृत होता गया है। मुख्यधारा की मीडिया में अनेक पत्रकार  मुखर होकर उन विषयों पर सवाल पूछ रहे हैं या उन्हें उठा रहे हैं जिन पर चुप रहा जाता था। सोशल मीडिया पर ऐसे माहौल को फासिस्टवाद और न जाने क्या-क्या नाम दिया जाता है। वस्तुत: यह सब बदलते हुए और बदले भारत का स्वर है। यह सही है कि इसमें सकारात्मकता के साथ नकारात्मकता भी है, अस्थिरता है, थोड़ी चंचलता है। संक्रांति काल में ऐसा होता है। लोगों में संस्कृति-धर्म-पूर्वजों- इतिहास-राष्ट्र-समाज को लेकर सच के आईने में गौरवबोध पैदा हो रहा है। इस समय कश्मीर फाइल्स से एक छोटा अध्याय आया है, जिसने उम्मीद जगाई है कि आगे अफगानिस्तान पाकिस्तान, बांग्लादेश से लेकर संपूर्ण भारत में बर्बर हमले और भारतीय सभ्यता-संस्कृति को कुचलने का जो अपराध हुआ, हमारे धर्मस्थलों, को जिस तरह रौंदा गया वह वो सब सामने आए।

साथ ही उनके विरु द्ध लगातार हुए संघर्ष, समय-समय पर प्राप्त विजय और इस श्रेणी के लोगों ने जिस तरह अपने त्याग बलिदान तथा व्यवहारों से मानक स्थापित किया धर्म संस्कृति राष्ट्र समाज की रक्षा की हो सब पूरे सच के साथ सामने आए। तभी तो ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद नालंदा फाइल्स, तक्षशिला फाइल्स, विक्रमशिला फाइल्स, गंधार फाइल्स, अयोध्या फाइल्स, मेवाड़ फाइल्स, गोरी फाइल्स, गजनवी फाइल्स, बख्तियार खिलजी फाइल्स, शिवाजी फाइल्स, महाराणा प्रताप फाइल्स, मथुरा फाइल्स ,काशी फाइल्स, सोमनाथ फाइल्स न जाने ऐसे कितने फाइलों की मांग कर रहे हैं। विरोधी इस बदलाव को समझें अन्यथा वे छाती पीटते रहेंगे और बदलाव की आंधी उनकी आवाज को नक्कारखाने में तूती बनाती रहेगी।

अवधेश कुमार


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