शहादत दिवस : जेल में भी नहीं रुके बांकुरे
तेइस मार्च को भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत दिवस के अवसर पर पूरे देश में उनको श्रद्धांजलि दी जा रही है।
![]() |
वैसे तो इन क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानियों का पूरा जीवन ही प्रेरणादायक रहा पर अप्रैल, 1929 से मार्च, 1931 तक का जो दो वर्ष का समय इनने जेल में बिताया वह भी स्मरणीय उपलबियों वाला सिद्ध हुआ। सींखचों के पीछे से भी वे स्वतंत्रता समर में महत्त्वपूर्ण उत्साह की नई लहर लाने में सफल रहे।
भारत की आजादी के समर में कई उतार-चढ़ाव आए। कभी उम्मीद बढ़ी तो कभी निराशा। निराशा का दौर समाप्त कर एक नये उत्साह का संचार करने में भगतसिंह और उनके साथियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भगतसिंह और उनके साथियों की भूमिका साहसी कार्यों की ही नहीं थी। इसके साथ सुलझी हुई सोच भी थी, योजना भी थी। यह योजना यह जानते हुए बनाई गई थी कि भगतसिंह और बटुकेर दत्त के साथ कुछ अन्य साथियों के भी गिरफ्तार होने की संभावना है। अत: योजना का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह था कि जेल में रहते हुए वहां की तमाम सीमाओं और समस्याओं के बावजूद अपने त्याग, हिम्मत और सुलझे विचारों से व्यापक जन-जागृति का कार्य किया जाए। अप्रैल, 1929 में गिरफ्तारी के कुछ समय बाद भगतसिंह और दत्त ने सभी राजनीतिक बंदियों के अधिकारों के महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर भूख-हड़ताल आरंभ कर दी। आजादी की लड़ाई में हजारों सेनानी इन दिनों निरंतर जेलों में आ-जा रहे थे। अत: यह महत्त्वपूर्ण मुद्दा था जिससे लाखों लोग नजदीकी तौर पर जुड़ सकते थे। शीघ्र ही अनेक साथी कैदियों ने भी भगतसिंह और दत्त का साथ देते हुए भूख-हड़ताल आरंभ कर दी। इस दौरान जेल अधिकारियों ने क्रांतिकारी कैदियों पर घोर अत्याचार किए। इसके बावजूद उन्होंने भूख हड़ताल नहीं तोड़ी। जैसे-जैसे यह समाचार बाहर लोगों तक पहुंचा लोगों में इन युवा स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति अपार सहानुभूति की लहर उमड़ने लगी। हजारों लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए, जन-सभाएं आयोजित कीं। सरकार ने धारा 144 लगा दी तो कांग्रेस और अकाली नेताओं जैसे सरदार मंगल सिंह और जफर अली खान ने गिरफ्तारी दी। भूख-हड़ताल के दौरान यतींद्रनाथ दास ने 63 दिन के उपवास के बाद शहादत पाई तो देश में विभिन्न स्थानों पर लाखों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्र हुए। इस तरह तेजी से निराशा के दौर को हटाकर आजादी की लड़ाई के प्रति नया जोश और समर्पण युवाओं में तेजी से उमड़ने लगा।
पंजाब से लेकर तमिलनाडु तक भगतसिंह और उनके साथियों के साहस और त्याग की चर्चा जोर पकड़ रही थी। जब 1930 में भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को मृत्युदंड सुनाया गया तो इसके विरुद्ध संघर्ष के लिए पंजाब के हर जिले में समितियां बनाई गई। तमिलनाडु कांग्रेस समिति ने कहा कि मृत्युदंड वापस लेना जरूरी है। ब्रिटेन में भी इस अन्यायपूर्ण मुकदमे का विरोध करते हुए मुत्युदंड वापस लेने के लिए हस्ताक्षर अभियान चला। इस घटनाक्रम का कांग्रेस की रणनीति पर व्यापक असर पड़ा। पहले कांग्रेस पूर्ण स्वराज का लक्ष्य अपनाने से झिझक रही थी, अब उसने उत्साह और उमंग के माहौल में पूर्ण स्वराज को अपना लक्ष्य घोषित कर दिया। जिस वीरता और दिलेरी से देशभक्ति के गीत गाते हुए भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव फांसी के तख्ते पर झूल गए, उसका देश पर व्यापक असर हुआ। फांसी से कुछ पहले भगतसिंह ने अपने साथियों को कहा था, ‘देशभक्ति के लिए यह सर्वोच्च पुरस्कार है, और मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने वाला हूं। वे सोचते हैं कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके इस देश में सुरक्षित रह जाएंगे तो यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकेंगे। ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे विचार उस समय तक एक अभिशाप की तरह मंडराते रहेंगे जब तक कि वह यहां से भागने के लिए मजबूर न हो जाए।’
भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी के बाद पूरे देश में जो माहौल बना, उसके बारे में उनके क्रांतिकारी साथी शिव वर्मा ने लिखा है, ‘भगतसिंह की भविष्यवाणी एक साल के अंदर ही सच साबित हुई। उनका नाम मौत को झुठलाने वाली हिम्मत, बलिदान, देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया। समाजवादी समाज की स्थापना का उनका सपना शिक्षित युवकों की कल्पना में बस गया और ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का उनका नारा समूचे राष्ट्र का युद्धनाद हो गया। 1930-32 में जनता एक बनकर उठ खड़ी हुई। कैदखाने, कोड़े और लाठियों के प्रहार उसके मनोबल को नहीं तोड़ सके। यही भावना, इससे भी ऊंचे स्तर पर ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान दिखाई दी थी। भगतसिंह का नाम अपने होठों पर और उनके नारे अपने झंडों पर लिए किशोरों और बच्चों ने गोलियों का सामना इस तरह किया जैसे कि वे मक्खन की बनी हुई हों। इस तरह स्पष्ट है कि साहस, त्याग और बलिदान के साथ सुलझी हुई, सावधानी से बनाई गई योजना के आधार पर भगतसिंह और उनके साथियों ने सबसे कठिन और विषम परिस्थितियों में भी आजादी की लड़ाई को नया जीवन और साहस देने में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह उपलब्धि उन्होंने जेल के सींखचों के पीछे से कैसे प्राप्त की, यह भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सबसे गौरवशाली अध्यायों की अग्रणी पंक्ति में है और आज तक प्रेरणा का बड़ा स्रोत बना हुआ है।’
आज के माहौल में समाज में नई जागृति लाने के लिए और उसे नई दिशा देने के लिए इन क्रांतिकारियों का मूल संदेश महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने जेल से युवाओं के नाम जो संदेश भेजे थे उनमें स्पष्ट कहा गया कि वे पिस्तौल और बम की भूमिका युवाओं से नहीं चाहते हैं, बल्कि वे तो यह चाहते हैं कि दीर्घकालीन सोच लेकर एक शोषणविहीन ऐसा समाज बनाया जाए जो न्याय और समता पर आधारित हो। उन्होंने यह संदेश भेजा कि पहला कार्य भारत को आजाद करवाना है, और औपनिवेशिक शासकों को दूर भगाना है पर उसके बाद भी न्याय और समता पर आधारित समाज बनाने के लिए संघर्ष जारी रहेगा। उन्होंने कहा कि इसके लिए विशेषकर किसानों और मजदूरों के बीच कार्य करना बहुत जरूरी है। इसके अतिरिक्त उन्होंने सब तरह के भेदभाव को समाप्त करने का संदेश दिया। समझाया कि सभी धर्मो की आपसी सद्भावना बहुत जरूरी है और सांप्रदायिक हिंसा को दूर रखना तो बहुत ही जरूरी है। आज इन वीर क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि देते हुए हमें उनके संदेश को भी याद रखना चाहिए।
| Tweet![]() |