लोहिया जयंती : सामाजिक सरोकारों वाला क्रांतिदूत
आज 23 मार्च है डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्मदिन। वणिक समाज के लोग अपने कार्यक्रम में उनकी फोटो लगाएंगे, उनको अपने समाज का गौरव बताएंगे और ये भूल जाना चाहेंगे तथा इसका जिक्र भी नहीं करना चाहेंगे कि उसी डॉ. लोहिया ने देश में जाति तोड़ो अभियान चलाया था।
![]() लोहिया जयंती : सामाजिक सरोकारों वाला क्रांतिदूत |
कुछ लोग यह भी याद नहीं रखना चाहेंगे कि डॉ. लोहिया ने कई लाख जनेऊ तुड़वा कर जलवा दिए थे। ये तो बिल्कुल याद नहीं रखना चाहेंगे कि डॉ. लोहिया ने ही संसोपा ने बांधी गांठ-पिछड़े पाए सौ में साठ-नारा दिया था, जिसने मंडल कमीशन की बुनियाद रखी।
कुछ दूसरे हम जैसे लोग भी उन्हें शायद याद करेंगे जो उनके चित्र से अपने ड्राईग रूम या ऑफिस सजाते हैं। हम जैसे लोग उनके इतिहास को याद करने की कोशिश करेंगे, उन्हें याद करने की कोशिश करेंगे केवल व्यक्ति के रूप में, नेता के रूप में और थोड़ा सा स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी शायद याद कर लें। पर उनकी बातों पर ध्यान नहीं देंगे, उनके विचारों को अपनी अलमारियों के सबसे पीछे वाले खाने के लिए छोड़ देंगे। डॉ. लोहिया चाहते तो पूरी जिंदगी सांसद रह सकते थे। चाहते तो नेहरू सरकार में लगातार महत्त्वपूर्ण मंत्री रह सकते थे। चाहते तो दिल्ली के एक शानदार बंगले का सुख उठा सकते थे पर फिर इतिहास चक्र कौन लिखता, कौन सीता और सावित्री और द्रौपदी के बहाने औरतों की स्वतंत्रता की चर्चा छेड़ता। चित्रकूट में रामायण मेला लगा कर संस्कृति को सहेजता कौन? देश विभाजन के गुनाहगार की चर्चा नहीं कर सकते थे वे। राम, कृष्ण, शिव या केवल कृष्ण लिख कर इनके बहाने जीवन संस्कृति, जिम्मेदारियों, मर्यादाओं और न्याय की चर्चा नहीं कर पाते वे। तब कहा सगुण और निर्गुण की बात हुई नये संदभरे में। तब नहीं हुई होती चर्चा संसद में अमीरी और गरीबी की इतनी बड़ी खाई की तीन आना बनाम छ आना की बहस के साथ। तब कौन भारत को चीन के आक्रमण से आगाह करता। कौन होता जो तिब्बत की लड़ाई लड़ता। तब शायद गोवा की आजादी और लंबी हो जाती और नेपाल में जागरण का सूरज देर से पहुंचता। कौन दहाड़ता कि हिमालय बचाओ और जिस पानी की आज चर्चा है, उसकी बुनियाद किसने रखी होती गंगा बचाओ का अभियान चला कर और उसके बहाने सभी नदियों को बचाने की आवाज लगा कर। तब कौन कहता कि दुनिया को सात क्रांतियों की जरूरत है, वो रंग भेद के खिलाफ हो यानी चमड़ी की हो, वो स्त्री-पुरु ष के बीच भेद की हो, वो जाति के आधार पर भेदभाव के खिलाफ हो, वो धर्म के आधार पर भेदभाव के खिलाफ हो, गरीबी-अमीरी के भेदभाव के खिलाफ हो इत्यादि। तब कौन इबारत लिखता चौखंभा राज की जिसके आधार पर आज का भारत गांव से देश तक चार सरकारों से संचालित होता है।
यदि डॉ. लोहिया ने सब सुख स्वीकार कर लिए होते तो कौन तोड़ता आजादी के बाद भी हमें मुह चिढ़ाती अंग्रेजों की मूर्तियों को और महीनों इसके लिए जेल काटता राजनारायण जैसे साथियों के साथ और मूर्तियां आज भी हमारे सीने पर मूंग दल रही होतीं। तब कौन लड़ाई छेड़ता अंग्रेजी हाय हाय की जिसकी एक परिणिति अभी दिखलाई पड़ी है जब आईएएस के इम्तिहान से अंग्रेजी की बाध्यता समाप्त कर दी गई है। तब कौन लड़ता नौजवानों के लिए विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में जा-जा कर और उन्हें आने वाले समय में लोकतंत्र का मजबूत हथियार बनाता। कौन कहता कि किसान को उसकी उपज का मूल्य दो और गरीब को उसका हक। वे नहीं कह पाते-संसोपा ने बांधी गांठ और पिछड़े मांगे सौ में साठ और आज का सामाजिक न्याय का परिदृश्य भी शायद दिखलाई नहीं पड़ता या अभी शैशव अवस्था में घुटने पर चल रहा होता।
जो सब छोड़ने को तैयार होते हैं, वही नये समाज की रचना करते हैं, वही सामाजिक-आर्थिक क्रांतियां करते हैं। वही ऊंच-नीच के भेदभाव से लड़ते हैं। ऐसे लोग ही होते हैं क्रांतिदूत, समाज परिवर्तक और महामानव। जी हां, मैंने यह सब ऐसे ही महामानव के बारे में लिखा है जिसका नाम था डॉ. राममनोहर लोहिया और 23 मार्च जिनका जन्मदिन है। मुझ जैसे लोग, जो उन्हें पढ़-जान कर राजनीति में आ गए, पता नहीं कि उनके अभियान को कुछ इंच भी सरका पाए या नहीं। पर आज मुझ जैसे उनके तमाम दीवानों का उस चिंतक और त्यागी डॉ. लोहिया को सलाम।
आइए, उनके कुछ विचारों पर हम भी विचार कर लें। उन्हें पूरे देश का सलाम। (लेकिन अब कितना दुर्भाग्यपूर्ण दिन आ गया है कि समाजवाद का मतलब केवल कुछ जातियों का हित हो गया है। पिछड़े सौ में साठ नहीं, जिस पिछड़े में सभी धर्म और जाति कि महिलाएं भी थीं लोहिया जी के सरोकारों में और अन्य से घृणा नहीं, बल्कि सबके सहयोग से समाजिक न्याय की बात थी। पर अब तो कुछ जातियों के ठेकेदारों द्वारा अन्य सभी को गली देना ही सामाजिक न्याय का हथियार है, और उन जातियों के अधिकारियों कर्मचारियों द्वारा अन्य सभी का संभव अपमान और उपेक्षा ही सामाजिक न्याय है) जैसे वो हर आंदोलन आज तक फेल होता रहा जहां हिंसा, अपशब्द या घृणा आ गई, उसी तरह यह आंदोलन भी घृणा और अपशब्दों का शिकार हो दम तोड़ रहा है)।
सच्चे वैचारिक लोगों के लिए अफसोस की बात है। पर नये-नये लिखना-पढ़ना-बोलना सीखे लोग भारत की मिट्टी को जानते नहीं और अपने कर्मो से नाश करने में लगे है इस आंदोलन का।
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