हिजाब प्रकरण : सतर्क करने वाला फैसला

Last Updated 22 Mar 2022 12:41:55 AM IST

शिक्षालयों में हिजाब पहनने का विवाद इतनी आसानी से नहीं निपटेगा यह स्पष्ट था। कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला आया नहीं कि सर्वोच्च अदालत में याचिकाएं दायर हो गई।


हिजाब प्रकरण : सतर्क करने वाला फैसला

जाहिर है पहले से इसकी तैयारी हो चुकी थी और उच्च न्यायालय के आदेश का अनुमान भी लगा लिया गया था। किंतु कर्नाटक उच्च न्यायालय कह रहा है इस्लाम मजहब में हिजाब पहनना मजहब प्रथा का अनिवार्य हिस्सा नहीं है तो उसने उसका आधार भी दिया है। जब यह धार्मिंक प्रथा का अनिवार्य अंग नहीं है तो संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित नहीं हो सकता। इस तरह उच्च न्यायालय ने विद्यालयों, महाविद्यालयों समेत शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने पर रोक के आदेश को सही ठहरा दिया है।
जो लोग इसे जबरन मजहबी अधिकार मनवाने पर तुले हैं, वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते। वे इसे मजहबी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन साबित कर रहे थे और उच्च न्यायालय कह रहा है कि नहीं यह धार्मिंक मामला है ही नहीं तो मौलिक अधिकार का उल्लंघन कैसे हो गया। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट लिखा है कि राज्य सरकार द्वारा विद्यालयों में ड्रेस का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत छात्रों के अधिकारों पर तर्कसंगत नियंत्रण है और 5 फरवरी का कर्नाटक सरकार का आदेश अधिकारों का उल्लंघन नहीं है।
इस्लाम के जानकारों में भी ऐसे लोग थे जो बता रहे थे कि हिजाब कभी भी मजहब के आईने में इस्लाम की अनिवार्य व्यवस्था रही नहीं, लेकिन देश में ऐसा बहुत बड़ा वर्ग पैदा हो गया जो किसी सामान्य आदेश को भी अपने मजहब अधिकारों पर उल्लंघन मानकर  इस्लाम के विरुद्ध साबित करने पर तुल जाता है। कितना तनाव कर्नाटक में पैदा हुआ और उसका असर अलग-अलग राज्यों में कैसा हुआ इसे याद करिए तो आपके सामने इसके पीछे की चिंताजनक इरादे स्पष्ट हो जाएंगे। कट्टरपंथी तत्व मुस्लिमों के बहुत बड़े समूह के अंदर यह बात गहरे बिठा चुके हैं कि जिस तरह भाजपा सरकारें काम कर रही हैं और न्यायालयें फैसला दे रही हैं, उससे देश में मुसलमानों के लिए मजहबी रीति-रिवाजों, परंपराओं का पालन करना कठिन हो जाएगा। इस झूठ ने आम मुसलमानों के अंदर गहरी शंका पैदा की है और वे उनके आह्वान पर सड़कों पर उतर उग्र बन जाते हैं। इससे केवल कट्टरता बढ़ रहा है। ये बार-बार पराजित होते हैं, लेकिन इन पर असर नहीं है। उच्च न्यायालय के सामने इस्लामिक आस्था या धार्मिंक प्रथा के प्रश्न के साथ यह भी था कि छात्रों को इस पर आपत्ति करने का अधिकार है या नहीं। उसने साफ कहा है कि नहीं है। उसने इस प्रश्न का भी उत्तर दिया है कि सरकार का 5 फरवरी का आदेश गलत, मनमाना और संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 यानी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। वास्तव में पूरे फैसले को गहराई से देखें तो यह कई मायनों में दूरगामी महत्व वाला तथा इस्लाम के नाम पर लादी गई प्रथाओं को गलत साबित कर हर वर्ग के जागरूक और सच्चे आस्थावान लोगों की आंखें खोलने वाला है।

उदाहरण के लिए मजहबी स्वतंत्रता के अधिकार पर न्यायालय की टिप्पणी है कि संविधान के अनुच्छेद 25 के संरक्षण का सहारा लेने वाले को न केवल अनिवार्य मजहबी प्रथा साबित करनी होती है बल्कि संवैधानिक मूल्यों के साथ अपना जुड़ाव भी दर्शाना होता है। यदि प्रथा मजहब का अभिन्न हिस्सा साबित नहीं होती तो मामला संवैधानिक मूल्यों के क्षेत्र में नहीं जाता। यह ऐसी टिप्पणी है, जिसका आने वाले समय में बार-बार उल्लेख किया जाएगा। हालांकि हमें सर्वोच्च अदालत के फैसले की प्रतीक्षा करनी चाहिए, लेकिन अगर उच्च न्यायालय को यह प्रमाण मिल जाता कि हिजाब इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है और छात्राएं न पहनने के बाद मजहब से खारिज हो जाएंगी तो वह ऐसा फैसला कतई नहीं देता। ऐसा है ही नहीं और स्वयं इस्लामी देशों में भी इसके प्रमाण हैं तो कोई न्यायालय अलग फैसला कैसे दे सकता है। आम मुसलमानों और देश को यह बताया जाना आवश्यक है कि न्यायालय ने फैसले में स्पष्ट कहा है कि प्रथम दृष्टया रिकॉर्ड पर ऐसी कोई सामग्री पेश नहीं की गई, जिससे साबित होता है कि हिजाब पहनना इस्लाम में मजहब का अभिन्न हिस्सा है और याचिकाकर्ता छात्राएं शुरू से ही पहन रही हैं। उन छात्राओं की तस्वीरें आ चुकी हैं, जिसमें वो पहले कॉलेज यूनिफॉर्म में जाती थी। अनेक मुस्लिम छात्राएं यूनिफॉर्म में जातीं रहीं। अचानक उन्होंने हिजाब पहन लिया और इसे भी न्यायालय ने उद्धृत किया है।
न्यायालय की टिप्पणी है कि ऐसा नहीं है कि अगर हिजाब पहनने की परंपरा नहीं  निभाई गई या जिन्होंने हिजाब नहीं पहना वे गुनाहगार होंगी, इस्लाम अपना गौरव खो देगा और मजहब के तौर पर उसका अस्तित्व खत्म हो जाएगा। जरा सोचिए, तर्क यही दिया जाता था और है कि महिलाएं मजहब के अनुसार गुनाहगार साबित हो जाएंगी, इस्लाम पर खतरा उत्पन्न हो जाएगा और इसका अस्तित्व मिट सकता है। जाहिर है, कट्टरपंथी समाज में विद्वेष पैदा करने के इरादे से झूठ फैला रहे थे। न्यायालय ने फैसला इससे जुड़े सभी पहलुओं को ध्यान रखते हुए दिया है, जिसमें शिक्षा, विद्यालय, शिक्षक, वस्त्र आदि की अवधारणा, महत्त्व आदि का विश्लेषण है। विद्यालय की अवधारणा शिक्षक, शिक्षा और यूनिफार्म के बगैर अपूर्ण है और यह सब मिलकर एकीकरण करते हैं। स्कूल में यूनिफार्म की अवधारणा नई नहीं है।
अनेक मुस्लिम देशों में भी इस तरह के स्कूल चलते हैं और वहां मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनकर नहीं जाती। एक याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि यूनिफॉर्म पहली बार अंग्रेजों के समय लाया गया था। न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर स्पष्ट कर दिया है कि यह अवधारणा पुराने गुरुकुल काल से चली आ रही है। भारतीय ग्रंथों में समवस्त्र, शुभ्रवेश आदि का जिक्र है, उसके विवरण हैं। एक याचिकाकर्ता ने बड़ी चालाकी से अपील की थी कि यूनिफार्म के रंग की हिजाब की इजाजत दे दी जाए। जाहिर है, न्यायालय ऐसा कर देता तो स्कूल के यूनिफॉर्म का कोई मतलब नहीं रह जाता। न्यायालय की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिए-नियम का उद्देश्य एक सुरक्षित स्थान बनाना है जहां ऐसी विभाजन कारी रेखाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए सर्वोच्च अदालत का फैसला भी आने दीजिए, पर ऐसे तत्वों के प्रति सतर्क रहना और इनका तार्किक विरोध करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का दायित्व बन जाता है।

अवधेश कुमार


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