सामयिक : जाति नहीं, विकास की राजनीति

Last Updated 25 Feb 2022 04:31:01 AM IST

जाति भारतीय राजनीति की सच्चाई है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और अटक से लेकर कटक तक किसी भी ईकाई का जब चुनाव घोषित होता है, तो वो चाहे स्थानीय निकाय के चुनाव हों, राज्य के विधानसभा के चुनाव हों या लोक सभा के चुनाव हों, जातीय आधार पर मतदान की यहां पुरानी परंपरा है और कई बार जातीय आधार पर मतदान के चलते योग्यता पछाड़ी जाती है।


सामयिक : जाति नहीं, विकास की राजनीति

लंबे अरसे से इस जातीय विभाजन का लाभ तथाकथित सेक्युलर लेते रहे हैं और इस जातीय विभाजन के कारण ही सन 1937 से लेकर 2014 तक विविध चुनावों में कांग्रेस और उसके बगलबच्चा दलों ने मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को प्रोत्साहित करने का काम किया।
अधिकांश राज्यों में मुस्लिमों की आबादी दस फीसद  से ज्यादा है। बंगाल, उत्तर प्रदेश, असम, केरल आदि कुछ ऐसे राज्य हैं, जहां पर मुसलमानों की आबादी 18 से 21 फीसद के बीच है। ऐसे राज्यों में मुस्लिम वोट बैंक को साधकर और हिंदुओं को जातीयता के आधार पर विभाजित कर कुछ जातियों का वोट अपनी झोली में लेकर कांग्रेस और उसके बगलबच्चा दल विकासवादी राजनीति को धत्ता बताते रहे हैं। इसका परिणाम हिंदू समाज के भयंकर विभाजन में हुआ है। जब कोई हिंदू की बात करता है, तो उसे सांप्रदायिक करार दे दिया जाता है, लेकिन जातीय राजनीति को हमेशा से गौरवान्वित करने का प्रयास किया गया।

दक्षिण में डीएमके हो या ऑल इंडिया अन्ना डीएमके, पीएमके हो, एनडीएमके हो, इस तरह के दल विविध जातीय समूहों के प्रतिनिधि बन गए। लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ‘माई’ (मुस्लिम-यादव) के फार्मूले को साध कर अपनी जीत का मंत्र सिद्ध करने लगे। गुजरात में खान, क्षत्रिय, हरिजन और मुस्लिम का समीकरण बनाया गया। चौधरी चरण सिंह अहीर-गुर्जर राजनीति के बूते इस समीकरण को ‘अजगर’ कहते रहे। मुख्यमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने इस जातीय गणित को हटाने का संकल्प लिया। गुजरात में कोई जातियों के नेता नहीं थे, बल्कि समग्र समाज के विकासवादी नेता हुए। उन्होंने गुजरात के विकास को, गर्वी गुजरात को अपना विजय का मूल मंत्र बनाया। 2002 का चुनाव, 2007 का चुनाव, 2012 का चुनाव, तीनों चुनावों में उन्होंने गुजरात के जातिगत आधार पर राजनीति करने वाले नेताओं को पराजित कर जातीय राजनीति को जबरदस्त झटका दिया। मोदी जब केंद्र में आए, तो उन्होंने हिंदुत्व की ऐसी प्रबल लहर चलाई कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा इन राज्यों में भी जातीयता की दीवारें धराशायी हुई। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास के उनके नारे ने जातीय विभाजन को दरकिनार कर विकासवादी राजनीति की नई पारी शुरू की। 2014 में सारे विशेषज्ञ इसलिए विफल हो गए कि वे मोदी के जातियों के विध्वंस के फार्मूले को भांप नहीं सके। पश्चिम में जाट मोदी को हरा देगा, पूरब में ब्राह्मण मोदी को स्वीकार नहीं करेगा, बुंदेलखंड का यादव भी मोदी के खिलाफ खड़ा हो जाएगा। दलित मोदी के साथ नहीं आएगा।
ऐसे तमाम कु-अनुमान लगाते थे, लेकिन जो 2014 चुनाव का परिणाम आया और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन को उत्तर प्रदेश की 80 में से 73 सीटों पर सफलता मिली तो सारे लोग अवाक रह गए। पार्टी 2017 में भी विधानसभा चुनाव में मोदी के इस करिश्मे को दोहराने में कामयाब हुई। दलितों की अधिकांश जातियों ने मोदी के पक्ष में जनादेश दिया। इसी वजह से उत्तर प्रदेश में भाजपा को 2017 में 325 सीटें अपने गठबंधन को जिताने में सफलता हासिल हुई। फिर पारी शुरू हुई योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्रित्व काल की। योगी आदित्यनाथ भले ही क्षत्रिय कुल में जन्मे हों, किंतु भारत की सनातन परंपरा में साधुओं की कोई जाति नहीं गिनी जाती। जब कोई व्यक्ति किसी संत के अखाड़े से जुड़ता है, तो वह अपनी जाति, अपने परिवार, अपने जन्म के संस्कारों का परित्याग करता है और नया जीवन प्रारंभ करता है।
इसलिए उसे अपनी मां और परिजनों से भिक्षा प्राप्त कर पारिवारिक संबंधों के विसर्जन का अनुष्ठान करना पड़ता है। योगी आदित्यनाथ ने जिस गोरक्ष पीठ की परंपरा से पीठाधीर का पद प्राप्त किया, यहां तक पहले भी उनके दादा गुरु दिग्विजयनाथ के जमाने से अस्पृश्यता निवारण का कार्य चलता रहा है। वहां सारी जातियों को एक साथ सहभोज कराने की परंपरा है और इसी नाते गोरक्ष पीठ से पिछड़ा और दलित समाज बड़े पैमाने पर जुड़ा हुआ है, यह उनके संस्कारों को और संबल प्रदान करता है। योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में जिस तरह से विकास कार्य हुए, जिस तरह से 15 करोड़ की आबादी को कोरोना काल में खाद्यान्न की मुफ्त आपूर्ति हुई, जिस तरह से 42 लाख मुफ्त मकान बने, एक लाख से अधिक घरों में बिजली पहुंचाई गई, 2.68 करोड़ लोगों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि मिली। करोड़ों लोगों को एलपीजी गैस और शौचालय की सुविधा प्राप्त हुई। इन सुविधाओं को आवंटित करते समय किसी भी प्रकार का जातीय विद्वेष का भाव नहीं रखा गया। इसका परिणाम 2019 के चुनाव में दिखाई दिया। पहली बार उत्तर प्रदेश का मतदाता जातीय सीमाओं को लांघकर भाजपा के पक्ष में मतदान करने को तत्पर हुआ और इसी का परिणाम है कि जातीयता के आधार पर राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का पतन की ओर रु ख है। कांग्रेस का खात्मा हो चुका है। राष्ट्रीय लोकदल बारंबार चुनाव हार रहा है। एमआईएम हरसंभव प्रयास करने के बावजूद खाता खोलने के लिए संघर्ष कर रही है। यह निश्चित तौर पर भारतीय राजनीति के नये सोपान का स्थापित होने का कार्य प्रारंभ होना है।
जिस तरह से नरेन्द्र मोदी और योगी आदित्यनाथ ने जातीयता की दीवारों को धराशायी कर सबको नागरिक होने के नाते विकास के महामार्ग पर ले चलने का संकल्प पूरा किया है, उसका परिणाम चुनावी राजनीति पर भी साफ दिखाई दे रहा है। यदि उत्तर प्रदेश समेत पूरा देश चुनावी जातीयता से मुक्त होता है तो भारत के सशक्त होने का महामार्ग निश्चित तौर पर खुलेगा।

आचार्य पवन त्रिपाठी


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