सरोकार : जागो, उठो और तोड़ डालो लैंगिक रूढ़ियां
वैदिक काल में घोषा, लोपामुद्रा, सुलभा, मैत्रयी और गार्गी जैसी विदुषियों ने बौद्धिक और आध्यात्मिक पराकाष्ठा के नये आयाम स्थापित किए थे।
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उन्होंने अपने ज्ञान, कौशल और बुद्धिमत्ता को न केवल शास्त्रार्थ के जरिए परिभाषित किया अपितु विश्व को ये यकीन दिलाया की चुनौतीपूर्ण स्थिति में भी वे अपने कौशल, कल्पना और कलमकारी से दुनिया को चमत्कृत करने का माद्दा रखती हैं। हमारी संस्कृति सदियों से ‘नारी सर्वत्र पूज्यते’ की उक्ति दोहराती रही है। फिर भला कैसे अकेले एक पुरु ष सत्ता उसकी विलक्षणता और सृजनशीलता पर संदिग्ध निगाह डाल सकता है। स्त्रियों के अस्तित्व का नकार उनकी नितांत व्यक्तिबद्धता का परिचायक है। वह इस बात का द्योतक है कि उन्हें अपनी विशिष्टता और अद्वितीयता ही अधिक प्रिय है।
21वीं सदी में जब तमाम असमानताओं को नकार महिलाएं तरक्की की इबारत लिख रही हैं; वहां लैंगिक असमानता की बात रूढ़िवादी और पुरातन प्रतीत होती है। प्रतिगामी रूप से ये निराशा भी पैदा करती है। हैरानी है कि आज भी हमारे समाज में महिला पुरु ष असमानता की लकीरें गहरी हैं। संवैधानिक स्वतंत्रता और समानता से निर्मिंत नये वातावरण में स्त्री अब भी अपनी अस्मिता और समान अवसर की तलाश में जद्दोजहद कर रही है। लैंगिक असमानता को दूर करने के परिपेक्ष्य में सर्वोच्च न्यायालय के हाल के एक आदेश को केंद्र में रखकर समझा जा सकता है। जहां शीर्ष अदालत ने महाराष्ट्र के अधिकारियों द्वारा आर्केस्ट्रा बार में महिला और पुरुष कलाकारों की संख्या को चार-चार तक सीमित करने की शर्त को खत्म करते हुए यह कहा कि लैंगिक रूढ़ियों पर आधारित नियमों के लिए समाज में कोई स्थान नहीं है।
लैंगिक आधार पर सीमा तय करना ऐसा रूढ़िवादी दृष्टिकोण प्रदर्शित करता है कि बार और प्रतिष्ठानों में कला का प्रदर्शन करने वाली महिलाएं समाज के एक निश्चित वर्ग से संबंध रखती हैं। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि किसी भी प्रस्तुति में शामिल कलाकारों की संख्या अनुपातिक रूप से बराबर होगी। सशस्त्र बलों में महिलाओं का प्रवेश, फाइटर जेट विमान में उड़ान भरने की आजादी और सीमा सुरक्षा बलों में उनकी तैनाती ने वर्जित क्षेत्रों के दरवाजे उनके लिए खोल दिए हैं। पुरुषों के वर्चस्व को तोड़ती महिलाएं आज हर क्षेत्र में घुसपैठ कर चुकी हैं और यह घुसपैठ मात्र पाला छूने भर की घुसपैठ नहीं है। इसीलिए पुरु षों की तिलमिलाहट स्वाभाविक है।
सदियों से जिस स्थान पर पुरु ष जमे हुए थे और नारी को अपने पैरों तले रखने की कालजयी महत्त्वाकांक्षा पाले हुए थे, आज वहां की धरती खिसक चुकी है। क्या अत्याधुनिक समाज में भेदभाव, असमानता और लैंगिक अंतर के लिए कोई जगह है? इसका जबाब हमें स्वयं में तलाशना होगा। क्या रक्षा के नाम पर महिलाओं के पेशे की पसंद को सीमित करना असंवैधानिक नहीं। यदि वास्तव में कोई राज्य महिलाओं की सुरक्षा और उनकी आकांक्षाओं को लेकर चिंतित है तो उसे उनके काम के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करने, रोजगार में समान अधिकार दिलाने और उनके रोजगार को सुविधाजनक बनाने के लिए प्रयासरत होना चाहिए। उनकी पसंद का गला घोटकर उनकी तरक्की के रास्ते कभी नहीं खोले जा सकते। राष्ट्र के संचित मूल्य तब तक प्रतिफिलत नहीं हो सकते जब तक उसमें स्त्रियों के श्रम के आनुपातिक मूल्य को यथोचित स्थान न दिया जाएगा। आधी आबादी से ही देश का मान और सम्मान है।
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