हिजाब प्रकरण : क्या सोचते थे डॉ. अंबेडकर?

Last Updated 23 Feb 2022 03:29:55 AM IST

कर्नाटक के उडुपी से उठा बुर्के और हिजाब का विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा।


हिजाब प्रकरण : क्या सोचते थे डॉ. अंबेडकर?

गत वर्ष दिसम्बर के आखिरी सप्ताह से शुरू हुई ऐसी मांगें अब कर्नाटक के अन्य स्कूलों-कॉलेजों में भी जोर पकड़ने लगी हैं। ‘हिजाब नहीं तो किताब नहीं’ जैसे नारे बुलंद किए जा रहे हैं। इनके विरोधस्वरूप कहीं-कहीं बहुसंख्यक समाज के लड़के-लड़कियां भी गले में भगवा पटका और स्कार्फ डालकर स्कूल-कॉलेज पहुंचने लगे।

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई तक शैक्षिक संस्थानों में इस प्रकार के परिधानों (हिजाब या भगवा स्कार्फ) पर रोक लगाई है और छात्र-छात्राओं को यूनीफॉर्म में स्कूल जाने तथा शैक्षिक संस्थानों को कक्षाएं शुरू करने की सलाह दी है। निश्चित रूप से न्यायालय इसे संज्ञान में रखते हुए अंतिम निर्णय देगा कि शिक्षा के मंदिरों में इस प्रकार की मांगों का क्या और कितना औचित्य है? ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के प्रकरण पहली बार न्यायालय के समक्ष आए हों। इससे मिलते-जुलते एक मामले में, 15 दिसम्बर 2016 को सर्वोच्च न्यायालय ने वायुसेना में नौकरी कर रहे मुहम्मद जुबैर नामक शख्स की धार्मिंक मान्यता के आधार पर दाढ़ी रखने की मांग को खारिज करते हुए अपने फैसले में कहा था- ‘वेशभूषा से जुड़े नियम और नीतियों की मंशा धार्मिंक विश्वासों के साथ भेदभाव करने की नहीं है और न ही इसका ऐसा प्रभाव होता है।

इसका लक्ष्य और उद्देश्य एकरूपता, सामंजस्य, अनुशासन और व्यवस्था सुनिश्चित करना है जो वायुसेना के लिए अनिवार्य है। वास्तव में यह संघ के प्रत्येक सशस्त्र बल के लिए है।’ सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले में इस्लाम में दाढ़ी रखने की अनिवार्यता जैसी दलील को खारिज करते हुए वादी को सेवा से निष्कासित किए जाने के आदेशपत्र को सही ठहराया था। विधि विशेषज्ञों की भी यही राय है कि स्कूलों-कॉलेजों, कार्यालयों या किसी भी संस्था को अपना ड्रेसकोड तय करने का अधिकार है। और उसमें अध्ययनरत विद्यार्थियों एवं कार्यरत कर्मचारियों के पास भी यह विकल्प है कि वे वहां न जाएं। बुनियादी संस्कारों एवं धार्मिंक मान्यताओं के पालन के लिए अपने-अपने घरों, पूजा या प्रार्थना-स्थलों में हरेक को संपूर्ण स्वतंत्रता है, पर चूंकि संस्थाओं में व्यक्ति स्वेच्छा से जाता है, अत: वहां लागू ड्रेसकोड का पालन अपेक्षित है।

मजहबी कट्टरता और पृथक पहचान की राजनीति को परवान चढ़ाने के लिए औजार की तरह इस्तेमाल की जा रहीं ये कमउम्र लड़कियां शायद नहीं जानतीं कि यही माँगें कल इनके पाँवों की जंज़ीरें बनेंगीं।  सनद रहे कि अफगानिस्तान के तालिबानीकरण की कहानी भी ऐसी ही मांगों से प्रारंभ हुई थी और उसकी सर्वाधिक कीमत वहां की महिलाओं और लड़कियों को ही चुकानी पड़ी है। इसे विडंबना ही कहेंगें कि एक ओर जहां चारों ओर जंजीरें पिघल रही हैं, दिल-दिमाग में सदियों से जमी कीच-काई छंट रही है, सींखचे और सांकलें टूट रही हैं, दहलीजों की दीवारें लांघ भारत की करोड़ों बेटियां सफलता के नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर उदार, आधुनिक एवं आज के वैज्ञानिक दौर में भी इस प्रकार की जिद और जुनून को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया जा रहा है। घोर आश्चर्य है कि कथित बुद्धिजीवी, प्रगतिशील व नारीवादी साहित्यकार, मानवाधिकारवादी एवं सामाजिक क्रांति व परिवर्तन के तमाम पैरोकार, जो आए दिन स्त्रियों की आजादी एवं अधिकारों के नाम पर घूंघट या पर्दा-प्रथा, स्त्रियों के मंगलसूत्र पहनने, बिंदी व सिंदूर लगाने, चूड़ी-पायल-बिछिया पहनने तथा व्रत-उपवास आदि करने के विरोध में वक्तव्य जारी करते हैं वे बुर्के और हिजाब पर बिल्कुल खामोश हैं। कई नामचीन सितारों-तारिकाओं को कन्यादान की परंपरा तो दकियानूसी लगती है, पर बुर्के और हिजाब पहनने को वे चयन की आजादी और मौलिक अधिकार बताते नहीं थकते।

ऐसे सभी बुद्धिजीवियों एवं छद्म पंथनिरपेक्षता वादियों को डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ का यह अंश अवश्य पढ़ना चाहिए :-‘पर्दा प्रथा की वजह से मुस्लिम महिलाएं अन्य जातियों की महिलाओं से पिछड़ जाती हैं, वो किसी भी तरह की बाहरी गतिविधियों में भाग नहीं ले पाती हैं जिसके चलते उनमें एक प्रकार की दासता और हीनता की मनोवृत्ति बनी रहती है..हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों में पर्दा-प्रथा की जड़ें काफी गहरी हैं। मुसलमानों में पर्दा प्रथा एक वास्तविक समस्या है, जबकि हिंदुओं में ऐसा नहीं है। मुसलमानों ने इसे समाप्त करने का कभी प्रयास किया हो इसका भी कोई साक्ष्य नहीं मिलता है..मुसलमानों ने समाज में मौजूद बुराइयों के खिलाफ कभी कोई आंदोलन नहीं किया।

हिंदुओं में भी सामाजिक बुराइयां मौजूद हैं, लेकिन अच्छी बात ये है कि वो अपनी इस गलती को मानते हैं और उसके खिलाफ आंदोलन भी चला रहे हैं, लेकिन मुसलमान तो ये मानते ही नहीं हैं कि उनके समाज में कोई बुराई है।’ बाबा साहेब के उक्त कथन में समस्या के चितण्रके साथ-साथ समाधान के सूत्र भी निहित हैं और इसे हर किसी को समझना चाहिए। बड़ा दिल दिखाकर ही ऐसे बेवजह के मसले का पटाक्षेप किया जाना चाहिए। सभी की भलाई इसी में है।

प्रणय कुमार


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