मातृभाषा दिवस : न्याय की आस में हमारी मातृभाषाएं
आखिर, आठवीं अनुसूची के मानक मानदंड आजादी के 75 सालों के बाद भी निर्धारित क्यों नहीं हैं, सरकारों के इस ढुलमुल रवैये के कारण विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा विधानसभाओं से आठवीं अनुसूची के लिए अनुसंशित भाषाएं भी न सिर्फ हाशिये पर खड़ी हैं, बल्कि अनेकानेक सुविधाओं से वंचित हैं।
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आखिर, पाठ्यक्रम में शामिल किए बगैर कैसे बचाया जा सकता है मातृभाषाओं को।
आज विश्व मातृभाषा दिवस है। भारत में मातृभाषाओं की उपेक्षा पर जरूर विमर्श होना चाहिए। कटु सत्य है कि आजादी के 75 साल बाद भी हम कोई ठोस भाषा नीति नहीं बना पाए हैं। तथ्य यह है कि बीते चार-पांच दशकों में एक बड़ी आबादी की मातृभाषा गुम हो चुकी है। देश की 500 भाषा/बोलियों में से लगभग 300 खत्म हो चुकी हैं, और 190 से ज्यादा वेंटिलेटर पर हैं। 2011 की जनगणना (प्रकाशित 2018) के अनुसार देश के सवा अरब लोग 1652 मातृभाषाओं में बात करते हैं। हाल में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा, ‘चूंकि देश की अधिकांश आबादी हिंदीभाषी है, इसलिए हम सबको हिंदी सीखना जरूरी है, लेकिन उससे पहले हमें अपनी मातृभाषा सीखने की जरूरत है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हर कोई अंग्रेजी सीखने की तरफ रुख कर रहा है क्योंकि यह रोजगार की भाषा है। इसलिए मैं देश को अपनी मातृभाषा को सीखने और बढ़ावा देने की बात कहना चाहता हूं।’
आजादी के 75 सालों के बाद भी आज तक आठवीं अनुसूची में मातृभाषाओं को शामिल करने का पैरामीटर सरकार नहीं बना पाई है। इसका क्या कारण है जबकि 2004 में शास्त्रीय भाषाओं के लिए पैरामीटर बन गया है शास्त्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त करने के लिए। आधिकारिक मानदंडों के अनुसार उस भाषा के ग्रंथों या अभिलिखित इतिहास की प्राचीनता लगभग 1500-2000 वर्षो की होनी चाहिए। उस भाषा की मौलिक साहित्यिक परंपरा भी होनी चाहिए जो किसी अन्य भाषिक समुदाय से न ली गई हो। अब तक शास्त्रीय भाषाओं के मानदंडों पर 2004 में तमिल, 2005 में संस्कृत, 2008 में तेलुगू और कन्नड़, 2013 में मलयालम को शास्त्रीय भाषाओं में सम्मिलित किया गया है, 20 फरवरी, 2014 को उड़िया को शास्त्रीय भाषा के रूप में स्वीकृत किया गया। इस कारण इन शास्त्रीय भाषाओं से संबंधित दो बड़े विद्वानों को दो अंतराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त होते हैं। इनके अध्ययन के लिए उत्कृष्टता केंद्र स्थापित किया जा सकता है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग केंद्रीय विश्वविद्यालय में संबंधित भाषाओं की पीठ स्थापित कर सकता है। अनेकानेक सरकारी सुविधाओं से इन भाषाओं को पोषित-विकसित होने में भी सहूलियत होती है। केंद्रीय गृह मंत्रालय प्रपत्र 27.03.2012 से स्पष्ट है कि बिहार ने भोजपुरी, छत्तीसगढ़ ने छत्तीसगढ़ी, सिक्किम ने भूटिया, लेपचा और लिम्बू, कर्नाटक ने कोड़व और तुलु, मिजोरम ने मिजो, राजस्थान ने राजस्थानी, नागालैंड ने टेंयीडी, हिमाचल ने भोटी के लिए अपनी-अपनी विधानसभाओं से प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजे हुए हैं। मगर इन मातृभाषाओं को उनके अधिकार से वंचित रखने के अनेकानेक बहाने बनाकर अभी तक केंद्र में रहीं सरकारें टाल मटोल करते हुए आठवीं अनुसूची में शामिल करने और संवैधानिक मान्यता देने के प्रति उदासीन रहीं। राजग सरकार अपने कई निर्णयों की वजह से मातृभाषाओं की हितैषी दिखती है। अटल सरकार ने 2004 में मैथिली, संथाली, कोंकणी और नेपाली को आठवीं अनुसूची में शामिल किया था। नई शिक्षा नीति में मातृभाषाओं में प्रारंभिक शिक्षा की योजनाओं पर निर्णय हो गया है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ज्ञान-विज्ञान मातृभाषा भाषा में होता है, तो आप जल्दी सीखते हैं।
नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना सराहनीय कदम है। सर्वविदित है कि मातृभाषा की स्मृतियां लंबे समय तक मस्तिष्क में मौजूद रहती हैं। यूनेस्को ने इस संबंध में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसके मुताबिक, मातृभाषा के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक बच्चे का मूलभूत अधिकार है। लेकिन नई शिक्षा नीति में स्पष्टता नहीं है कि मातृभाषा/स्थानीय भाषा में प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने की जो बात की गई है, उसका आधार क्या होगा। मातृभाषा दिवस पर हम सरकारों से अपेक्षा करते हैं कि इन अंधकारों को दूर करें और मातृभाषाओं को न्याय मिले। यूपी के चुनाव में भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में कहा है कि उसकी सरकार आती है तो भोजपुरी, बृज, अवधी और बुंदेलखंडी की उन्नति के लिए इन भाषाओं की अकादमी का गठन किया जाएगा। इन निर्णयों के आधार पर उम्मीद की जानी चाहिए कि राजग सरकार मातृभाषाओं के कल्याण, संबर्धन और विकास के लिए ठोस योजनाओं बनाकर उनका क्रियान्वयन करेगी।
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