मीडिया : सेक्युलरिज्म और मीडिया
पहली बार सेक्युलरिस्ट एक्सपोज हुए हैं! पहली बार रोज ‘सत्ता के दलाल’ कहे जाने वाले पत्रकारों ने नेताओं और कथित सेक्युलर बुद्धिजीवियों से पूछा है कि लिंचिंग की घटनाओं पर आप लोग इस कदर चुप क्यों हैं और अभी तक किसी अकडू सेक्युलर ने जवाब नहीं दिया है!
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कहने की जरूरत नहीं कि टीवी की इन अदना बहसों ने ऐसे बुद्धिजीवियों को बुरी तरह एक्सपोज कर दिया है! टीवी यही करता है! मौका आते ही वह बड़े-बड़े हवाबाजों को एक्सपोज कर देता है और हमें ‘कामन सेंस’ वाली समझ देता है और जितनी देता है उतनी ‘सही’ देता है। इसलिए यह कहना कि टीवी ‘इडियट बॉक्स’ है वह हमें मूर्ख बनाता है, तर्कसंगत नहीं लगता! सच तो यह है कि वह आम आदमी को एक ‘न्यूनतम कॉमन सेंस’ में दक्ष करता है! इससे हमें अब इतना तो मान ही लेना चाहिए कि यह ‘इडियट’ भी बहुत कुछ ऐसा कह और दिखा जाता हैं जैसा बड़े-बड़े सत्यवादी तक नहीं दिखाते बताते! कारण कि ‘सत्यवादी’ बंदा हिसाब लगा के बात करेगा जबकि ‘इडियट’ बिना सोच बोल देगा! ‘सत्यवादी’ सोची समझकर राजनीति करेगा जबकि आम आदमी स्वभाव से काम करेगा!
हम देखते आ रहे हैं कि जब-जब कहीं कोई धर्मिक कट्टर वक्तव्य देता है और किसी दूसरे धर्म के खिलाफ ‘हेट स्पीच’ देता है और ‘कटुता’ बोता है तो चैनल उसे तुरंत खबर बनाते हैं इससे खबर फैलती भी है और उसके पक्ष-विपक्ष में बहुत सी बहसें भी उठने गिरने लगती हैं! और खबर चैनलों पर ‘सेक्युलरिज्म बरक्स कम्यूनलिज्म’ की बहसें नये-नये तर्क लेकर सामने आती हैं! चैनलों की ऐसी बहसें हमें बताती रहती हैं कि ‘कम्यूनलिज्म’ (सांप्रदायिकता) हमारी सांस्कृतिक एकता और सामाजिक सहभागिता की दुश्मन है और इसलिए निंदनीय है। सांप्रदायिक विद्वेष पैदा करना, धर्मिक ‘कटुता’ फैलाना,‘हेट स्पीच’ देना आदि कानून में अपराध है और इनके बरक्स यह माना जाता है कि सेक्युलरिज्म ही हमारे समाज की एकता व उसके विकास में सहायक हो सकता है! लेकिन जब जब चुनाव आते हैं हमारे नेताओं की भाषा अधिकाधिक कट्टरतावादी, घृणावादी मुहावरे वाली और सांप्रदायिक होती जाती है! जब कोई किसी की ‘कट्टरता’ और ‘हेट’ को गिनाता है तो दूसरा कि दूसरा दूसरे की ‘कट्टरता’ व ‘हेट स्पीच’ की गिनती गिनाने लगता है कि अगर तुम कहते हो कि हमने ये ये ये हेट स्पीच दी तो तुमने या तुम्हारे उन उन नेताओं ने ये ये ये हेट स्पीच दी हैं!
इस तरह की ‘तू तू मैं मैं’ के बाद हर प्रकार की ‘कट्टरता’ और ‘हेट स्पीच’ एक प्रकार का ‘अवांछित औचित्य’ प्राप्त करने लगती है और फिर वह ‘आम जुबान’ बनकर चलन में आ जाती है! यह सब संविधान मे सेक्युलर शब्द के रहते और बहुत से स्वनामधन्य सेक्युलरों के रहते हुए हुआ है इसलिए सेक्युलर विचारों की स्वीकृति कम से कमतर होती गई है क्योंकि सेक्युलरिस्ट भी ‘कम्यूनलिज्म’ और ‘कम्यूनलिज्म’ में फर्क करके चलते हैं! वे अल्पसंख्यकों के कम्यूनलिज्म को बहुसंख्यकों के कम्यूनलिज्म से कम खतरनाक मानते हैं! इतना ही नहीं, आजकल वे ‘निंदनीय मुद्दे’ पर भी चतुर किस्म की चुप्पी लगा जाते हैं जैसा कि पिछले दिनों हुई धर्मिक हेट-हिंसा की दो तीन घटनाओं में नजर आया है!
पिछले दिनों, सिंघु बार्डर पर कुलबीर की नृशंस लिंचिंग तथा पंजाब के गुरुद्वारों में ‘बेअदबी’ के ‘अपराध’ में लिंचिग की घटनाओं पर सेक्युलरिस्टों की चुप्पी इस बात का प्रमाण है कि उनके लिए ‘लिंचिंग’ और ‘लिंचिंग’ में फर्क है! और इस बार सिर्फ सेक्युलरिस्ट ही चुप नहीं है बाकी दल भी चुप हैं! स्थिति इतनी दयनीय है कि हर बड़े दल या उसके नेता ने ‘बेअदबी’ की तो निंदा की (जो कि उचित ही थी), लेकिन चार पांच दिन बीतने पर भी किसी दल या उसके नेता ने इन लिंचिंगों की ‘सार्वजनिक निंदा’ या ‘र्भत्सना’ तक नहीं की, न किसी ने मरने वालों के लिए हमदर्दी के दो शब्द कहे! अब तक यह सेक्युलरिज्म ‘सलेक्टिव’ हुआ करता था: हिंदू तत्ववादियों द्वारा की गई लिंचिंग तुरंत निदनीय बताई जाती थी, लेकिन अल्पसंख्यकों द्वारा की जाती धर्मिक लिंचिग पर चुप्पी साध ली जाती थी, लेकिन पिछले दिनों की लिंचिंगों की (जिनमें से कपूरथला वाली को पुलिस ने हत्या करार दिया है) किसी दल या नेता द्वारा अब तक निंदा नहीं की गई है! कहने की जरूरत नहीं कि अपनी बहसों के जरिए मीडिया इस तरह के सलेक्टिव सेक्युलरिज्म पर दबाव बनाया है जो चाहता है कि जब तक सेक्युलरिज्म सलेक्टिव रहेगा उसकी धर कुंद होती रहेगी!
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