बतंगड़ बेतुक : धर्म-जाति ने जिताया आंदोलन
झल्लन बोला, ‘तो ददाजू, आप कह रहे थे कि किसान आंदोलन जाति-धर्म का आंदोलन था और उधर किसान नेता कह रहे थे कि यह जाति-धर्म से ऊपर उठा हुआ हर जाति, हर धर्म का आंदोलन था?’
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हमने सोचा कि झल्लन से क्या कहें, क्या बताएं और जो हम सोच रहे थे वह इसे कैसे समझाएं, फिर भी हमने कहा, ‘किसान नेता झूठ बोल रहे थे और अगर सच बोल भी रहे थे तो उनका सच दस प्रतिशत सच था और नब्बे प्रतिशत वह सच था जो उनके कथित सच के विरुद्ध था।’
झल्लन ने हमारी ओर देखा, फिर थोड़ा सा झुंझलाया और झल्लाया। वह बोला, ‘ददाजू, आप फिर खीर में मथानी मथ रहे हो और जो कहना चाह रहे हो साफ-साफ क्यों नहीं कह रहे हो।’ हमने कहा, ‘झल्लन, बस एक बार यह सोचकर देख कि अगर किसानों के आंदोलन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट और पंजाब के सिख नहीं होते तो यह आंदोलन क्या होता, क्या बनता और कहां पहुंचता। तब यह कतई पला-बढ़ा नहीं होता और जिस सफलता के पायदान पर जाकर खड़ा हुआ, वहां कभी खड़ा नहीं होता।’ झल्लन बोला, ‘कैसी बात करते हो ददाजू, जाट और सिख तो आंदोलन में इसलिए शामिल हुए कि वे खांटी किसान थे, बतौर किसान ही वे आंदोलन की पहचान थे और आन-बान-शान थे।’
हमने कहा, ‘माना कि जाट भी किसान थे और सिख भी किसान थे, लेकिन ये वे मजबूत किसान थे जिन्होंने अपनी जातीय और धार्मिक ताकत को आंदोलन की तरफ मोड़ दिया और जो जाट और सिख किसान नहीं थे उन्हें भी आंदोलन से जोड़ दिया। सारे गुरुद्वारे आंदोलनकारियों की शरणगाह थे, उनके लिए लंगर चला रहे थे, उन्हें जरूरी रसद मुहैया करा रहे थे। सिख संगतें बढ़-चढ़कर आंदोलन में हिस्सा ले रही थीं। जो निहंग जमात खांटी सिख थी और जिसका किसानी से कोई लेना-देना नहीं था वह सिंघु बार्डर पर किसान आंदोलन की पहचान बनी हुई थी, जान बनी हुई थी। अगर सरकार समर्थक कुछ किसान नेता थे भी तो उन्हें डरा दिया गया या फिर चुप करा दिया।’
झल्लन बोला, ‘ये तो कोई बात नहीं हुई ददाजू, किसान आंदोलन जन-आंदोलन था और उसमें कोई भी भागीदारी कर सकता था, कोई भी उनके समर्थन में आ सकता था और कोई भी धन-रसद मुहैया करा सकता था। हमें तो लगता है कि आप बात को गलत मोड़ रहे हैं और फालतू में इसे सिखी से जोड़ रहे हैं।’ हमने कहा, ‘कुछ मोटी-मोटी चीजें देख ले, कुछ बातों को याद कर ले तो शायद तेरे दिमाग की धुंध छंट जाये और तेरे मन की शंका मिट जाये।’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, जलेबी मत बनाइए, आपका इशारा किस तरफ है, साफ-साफ बताइए?’
हमने कहा, ‘पिछली 26 जनवरी की घटना याद कर ले, जब किसान आंदोलनकारियों ने दिल्ली में जमकर उपद्रव मचाया था, तब उन्होंने दिल्ली के लाल किले पर किसानों का नहीं सिख ध्वज निशान साहिब फहराया था और किसी भी सिख आंदोलनकारी ने इसे गलत नहीं ठहराया था। यह भी याद कर कि किसानों की वार्ता के दौरान देश के प्रधानमंत्री ने कहीं और नहीं बल्कि दिल्ली के गुरुद्वारों में मत्था टिकाया था और ऐसा करके उन्होंने किसी और को नहीं, सिखों को रिझाया था। यही नहीं जब प्रधानमंत्री ने आंदोलन की समाप्ति की घोषणा के लिए गुरुपर्व को चुना था तो किसानों की वजह से नहीं, सिखों को खुश करने के लिए चुना था। तू चाहे तो इसमें से भी कोई भी अर्थ निकाल सकता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश का टिकाऊ किसान नेता क्यों बार-बार सर पर सिख पगड़ी लगा रहा था और क्यों स्वयं को एक सिख की तरह दिखा रहा था, और सबसे बड़ी बात यह कि जब किसानों की मर्जी के मुताबिक आंदोलन खत्म हुआ तो उन्होंने किसी राष्ट्रीय स्मारक पर नहीं, अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में मत्था टिकाया था।’
झल्लन बोला, ‘ददाजू यह तो प्रधानमंत्री का लोकतांत्रिक अधिकार है कि जहां चाहे वहां मत्था टिकाएं और चाहे जिस पर्व पर अपनी बात देश को सुनाएं। रही बात किसान नेताओं की तो कौन सा नियम कहता है कि वे स्वर्ण मंदिर नहीं जा सकते और अपनी जीत का जश्न वहां नहीं मना सकते?’
हमने कहा, ‘हम कब प्रधानमंत्री के लोकतांत्रिक अधिकार को चुनौती दे रहे हैं और कहां किसान नेताओं के जश्न पर उंगली धर रहे हैं, हम तो आंदोलन की बनावट-बुनावट की ओर संकेत भर कर रहे हैं, और जो बात हमें लगी-दिखी वही बात कह रहे हैं। आंदोलन की सफलता के जो मूल तत्व थे तुझे सिर्फ उनके बारे में बताया है और जो हमारी समझ में आया, वही तुझे समझाया है।’
झल्लन बोला, ‘देखिए ददाजू, हम पक्के किसान समर्थक हैं और रहेंगे, और आप चाहे कुछ भी समझाओ हम सिर्फ वही समझेंगे जो अपनी समझ से समझेंगे। आखिर, आंदोलन की सफलता के लिए सात सौ किसानों ने शहादत दी है, हम इसका ध्यान भी तो रखेंगे और शहादत का सम्मान तो करेंगे।’
हमने कहा, ‘जो मरे उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना तो हम भी करेंगे, पर जिन्हें तू शहादत बता रहा है उसे हम हत्या कहेंगे मगर इस बारे में बात अगली बार करेंगे।’
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