पश्चिम बंगाल : चुनाव आया, भेदभाव लाया

Last Updated 03 Dec 2020 05:13:44 AM IST

पश्चिम बंगाल में आगामी कुछ महीनों में नगर निगमों और नगर पालिकाओं तथा विधानसभा के चुनाव होने हैं।


पश्चिम बंगाल : चुनाव आया, भेदभाव लाया

जीत की हैट्रिक लगाने को आतुर तृणमूल कांग्रेस और इसकी मुखिया ममता बनर्जी ने बंगाली और गैर-बंगाली का मुद्दा उठाकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को पीछे धकेलने की रणनीति अपनाई है।
2011 में ममता ने केवल इस वजह से अपने बलबूते 34 साल से सत्ता का सुख भोग रहे वाम मोर्चा की सरकार को उखाड़ फेंका था कि सूबे की जनता को ममता पर अटूट भरोसा था। लोग ममता को अग्नि कन्या कह कर पुकारते थे, लेकिन बीते दस सालों में काफी कुछ बदला है। पिछले  साल लोक सभा चुनाव के बाद भाजपा की बढ़ती ताकत ने ममता की नींद हराम कर दी है। तृणमूल के नेताओं को भयभीत सा कर दिया। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि 2011 की तुलना में 2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल ज्यादा ताकत के साथ सत्ता पर काबिज हुई थी। ममता को लगने लगा था कि बंगाल में उनकी पार्टी भी वाम मोर्चा की तरह दशकों तक शासन करेगी लेकिन 2019 के संसदीय चुनाव में भाजपा की अभूतपूर्व सफलता ने ममता को चिंतित कर दिया। इसी वजह से ममता बनर्जी ने बीते सवा-एक साल के दौरान ऐसे बयान दिए और ऐसे फैसले किए हैं  जिनसे उनकी जगहंसाई हुई और भाजपा को सूबे में पैर जमाने का मौका मिला। कांग्रेस और माकपा की तुलना में भाजपा के बढ़ते जनाधार के मद्देनजर चुनावी वैतरणी पार करने के लिए ममता बनर्जी ने अब बंगाली और गैर-बंगाली पर दांव लगा दिया है।  

ममता को लगता है कि 2011 व 2016 के विधानसभा चुनाव में राज्य के 27 फीसद मुस्लिम मतदाताओं ने एकतरफा तृणमूल को वोट देकर उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी उपलब्ध कराई थी, ठीक वैसे ही बंगालियों के मन-मस्तिष्क पर गैर-बंगाली को हावी कर लगातार तीसरी बार जीत का स्वाद चखा जा सकता है। हालांकि कि यह दांव खेलने से पहले भूल गई कि 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा ने जो 18 सीटें जीती थीं, उनमें से दो (आसनसोल और दार्जिलिंग) को छोड़कर कर लगभग सभी सीटों पर बंगाली मतदाताओं का दबदबा था और बंगालियों ने जोड़ाफूल (तृणमूल का चिह्न) की बजाय कमल फूल (भाजपा का चिन्ह) वाला बटन दबाया था।
राज्य के वे जिले जिनकी सीमाएं हिंदीभाषी राज्यों से सटी हैं, वहां की विधानसभा सीटों पर बंगाली-गैरबंगाली वाले बयान का क्या असर होता है, यह तो उचित समय पर  ही ज्ञात होगा, लेकिन फिलहाल इतना जरूर कहा जा सकता है कि 2021 की राह तृणमूल के लिए 2011 व 2016 जैसी सहज नहीं होगी। बंगाल की सीमा से सटने वाले राज्यों में झारखंड, बिहार, ओडिशा और असम शामिल हैं। इन राज्यों से सूबे की झाड़ग्राम, उत्तर दिनाजपुर, दार्जीलिंग, बांकुड़ा, पुरुलिया, पूर्व मेदिनीपुर, पश्चिम मेदिनीपुर, कूचबिहार, अलीपुरद्वार और जलपाईगुड़ी समेत कई जिलों की सीमाएं लगती हैं, जहां हिंदीभाषी मतदाताओं की बड़ी भूमिका होती है। गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा को बाहरी यानी गैर-बंगाली बताने के ममता के बयान पर तंज कसते हुए प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने सवाल उछाला कि क्या 2012 में ममता को गैर-बंगाली से परहेज नहीं था कि उन्होंने शाहरु ख खान को राज्य का ब्रांड एंबेसडर बनाया। कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी और वाम मोर्चा के चेयरमैन विमान बोस भी ममता बनर्जी के बयान को राजनीति से प्रेरित मानते हैं। राजनीति के जानकारों का भी मानना है कि इस बयान से तृणमूल को खास राजनीतिक लाभ नहीं होगा, बल्कि सूबे में भेदभाव बढ़ेगा।
मालूम हो कि करीबन सवा 9 करोड़ की आबादी वाले राज्य में मतदाताओं की संख्या 7 करोड़ से कुछ ज्यादा है, जिनमें लगभग 22 फीसद (मुसलमान को छोड़कर) हिंदीभाषी मतदाता हैं। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र के मूल निवासी शामिल हैं। राज्य के 30 फीसद मुस्लिम मतदाताओं में 21 फीसद बंगलाभाषी और शेष 9 फीसद हिंदीभाषी हैं। गणित लगाया जाए तो 22 और 9 यानी राज्य में हिंदीभाषी (उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और असम के निवासी) मतदाता 31 फीसद हैं। अब ममता को इस सवाल का जवाब तलाशना चाहिए कि जब 30 फीसद मुसलमान एकजुट होकर उन्हें मुख्यमंत्री बना सकते हैं, तो 31 फीसद हिंदीभाषी मतदाताओं की एकता उनसे सत्ता का ताज छीन भी सकती है। इसलिए ममता बनर्जी ही नहीं, हर पार्टी के नेता को चुनाव भेदभाव पैदा करने की बजाय विकास और रोजगार पैदा करने के मुद्दे पर लड़ना चाहिए।

शंकर जलान


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