तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन : बहुमत पर भारी किसान

Last Updated 03 Dec 2020 05:16:04 AM IST

सियासत में बहुमत का महत्त्व होता है। बहुमत पाने वाली पार्टी ही सरकार बनाती है, लेकिन इस व्यवस्था का दोष यही है कि इसमें जनता की स्पष्ट भागीदारी नहीं होती।


तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन : बहुमत पर भारी किसान

इसका एक असर यह भी होता है कि बहुमत के बल पर सत्तासीन दल अपने हिसाब से कानून बनाता है। जिन तीन कृषि कानूनों को लेकर किसान आंदोलनरत हैं, उससे एक दूसरी तस्वीर सामने आती है। केंद्र सरकार जिन किसानों के साथ बैठकें कर रही है, वे चुने हुए जनप्रतिनिधि नहीं हैं। यहां तक कि राजनीतिज्ञ भी नहीं। यह हालत तब है जब संसद में सत्ता पक्ष के पास प्रचंड बहुमत है। इसी बहुमत के आधार पर केंद्र सरकार ने कई फैसले किए हैं, और उन फैसलों का विरोध भी हुआ है। इनमें एक फैसला  तो तीन नये कृषि अधिनियम से जुड़ा है।  
पहला अधिनियम है कृषि उत्पादन व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020। सरकार का कहना है कि इसके लागू होने से किसान मनचाही जगह पर अपनी फसल बेच सकते हैं। यहां तक कि बिना किसी रु कावट दूसरे राज्यों में भी फसल बेच-खरीद सकते हैं। दूसरा अधिनियम है मूल्य आासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक, 2020। इसके बारे में सरकार का तर्क है कि अब भारत में संविदा के आधार पर खेती हो सकेगी। फसल खराब होने पर उसके नुकसान की भरपाई किसानों को नहीं, बल्कि खेती कराने वाले पक्ष या कंपनियों को करनी होगी। किसान कंपनियों को अपनी कीमत पर फसल बेचेंगे। इससे किसानों की आय बढ़ेगी, बिचौलिया राज खत्म होगा। तीसरा अधिनियम है आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम। मूल कानून 1955 में बनाया गया था। सरकार ने इसमें अब खाद्य तेल, तिलहन, दाल, प्याज और आलू जैसे कृषि उत्पादों पर से भंडारण की सीमा हटा दी है। साथ ही साफ किया है कि उत्पादन, भंडारण और वितरण पर सरकारी नियंत्रण खत्म होगा।

इन कानूनों को लेकर पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों के किसान दिल्ली की सीमा पर हैं।  इसकी व्याख्या इस रूप में भी की जा सकती है कि किसानों ने केंद्र सरकार को दिल्ली में नजरबंद कर दिया है। यह स्थिति एक दिन में नहीं बनी है। जब संसद में विधेयकों को सरकार ने बहुमत के आधार पर पारित करवाया तभी से विरोध शुरू हो गया था। किसानों का पक्ष था कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को कानून में जोड़े। छिटपुट तौर पर आंदोलन अलग-अलग हिस्से में चल रहे थे परंतु वर्तमान आंदोलन निर्णायक दौर में पहुंच गया है। अब इसमें अन्य राज्यों के किसान भी शामिल हो रहे हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि सरकार के पास किसानों की बातें सुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। दरअसल, इस पूरे प्रकरण में एक बात सबसे अलग है। यह है खेतिहर-मजदूरों का सवाल। अर्थव्यवस्था में रोजगार के मामले में यह क्षेत्र अब भी सबसे बड़ा है। विचार करना आवश्यक है कि आंदोलन बड़े किसानों से अधिक महत्त्वपूर्ण छोटे और सीमांत किसानों के लिए है। खेतिहर मजदूरों के लिए तो यह सबसे सबसे महत्त्वपूर्ण है।
पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों में कृषि मजदूरों को बिहार और यूपी जैसे राज्यों से मंगाया जाता है। इनमें 90 फीसदी से अधिक खेतिहर मजदूर हैं जिनका संबंध दलित व पिछड़े वगरे से है। इन कानूनों का सबसे अधिक असर इन्हीं खेतिहर मजदूरों पर पड़ने वाला है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि फसलों की अच्छी कीमत नहीं मिलेगी तो जमीन वाले किसान बेजमीन वाले किसानों को वाजिब मजदूरी कैसे देंगे। ऐसे में कृषि जैसा सबसे अधिक रोजगार देने वाला क्षेत्र भी धीरे-धीरे महत्त्व खोने लगेगा। किसानों के आंदोलन को समझने के लिए इस आंदोलन की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को सामने रखना जरूरी है। बिहार और उत्तर प्रदेश सहित अन्य हिंदी भाषी राज्यों में जहां एनडीए की सरकारें हैं, वहां के किसानों द्वारा अपने हक और अधिकार को लेकर उदासीनता है। एक उदाहरण यह है कि वर्ष 2007 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मंडी व्यवस्था को खत्म कर दिया था और उसके कारण आज बिहार के छोटे किसान और खेतिहर मजदूर रोजी-रोटी के लिए विनिर्माण व सेवा क्षेत्र में जा रहे हैं। उन्हें पलायन करना पड़ रहा है। इनमें अधिकांश दलित और पिछड़े वगरे के हैं, जो भूमिहीनता के शिकार हैं। ऐसी ही हालत उत्तर प्रदेश में भी है। सवाल उठता है कि इस आंदोलन का फलाफल क्या होगा? होगा भी या नहीं, इसका दावा नहीं किया जा सकता। इसलिए भी कि बीती एक दिसम्बर को जब केंद्र सरकार ने बैकफुट पर आते हुए किसानों से चर्चा की तो नतीजा सिफर रहा। अब सरकार और किसान के बीच 3 दिसम्बर को बातचीत होगी।
बहुमत की बात करें तो फिलहाल केंद्र सरकार इतनी मजबूत है कि संसद में उसे इन कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए विपक्षी दल बाध्य नहीं कर सकते। सारा विपक्ष भी मिल जाए तो भी पलड़ा एनडीए का भारी रहेगा। लेकिन क्या भारतीय संसद विकल्पहीनता के दौर से गुजर रही है। आम आदमी को अपने अधिकार के लिए सड़क से लेकर अदालतों तक संघर्ष करना पड़ रहा है। इस लिहाज से देखें तो किसानों के मौजूदा आंदोलन का विशेष महत्त्व है। विपक्षी दलों के बजाय आम जनता सरकार के कानूनों के खिलाफ खड़ी है। कुल मिलाकर मामला यही है कि किसानों को केवल इस आधार पर किसान न माना जाए कि उनके पास खेत हैं। किसान वही हैं, जो किसानी करते हैं। इनमें अधिक भागीदारी उनकी है, जिनके पास अपने खेत नहीं हैं। इनकी समस्याएं ‘हरि अनंत, हरिकथा अनंता’ की तरह हैं। बटाईदार किसान या रेहन पर खेती करने वाले किसानों के मुद्दों को भी किसान संगठन अपने चार्टर में शामिल करें। सस्ते दर पर खाद और बीज मिलें। सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था सुनिश्चित हो। उत्पादित फसल की खरीद की मुकम्मिल व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसा हुआ तो यह आंदोलन परिवर्तनकारी साबित होगा।
बहरहाल, देखना महत्त्वपूर्ण है कि इतने बड़े आंदोलन का फलाफल क्या सामने आता है। सरकार तीनों कृषि कानूनों, जिन्हें किसान काला कानून कह रहे हैं, को वापस लेती है तो यह एक ऐतिहासिक घटना होगी। ऐसा पहली बार होगा कि कानून बनाने वाली सरकार अपने ही कानून खारिज करेगी। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। खासकर प्रचंड बहुमत वाली सरकार के लिए।
(लेखक फॉर्वड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं)

नवल किशोर कुमार


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