अर्थव्यवस्था : अतीत का रुख, भविष्य का रास्ता

Last Updated 06 Nov 2020 01:31:19 AM IST

कहावत है ‘कौआ चल हंस की चाल, अपनी चाल भूल गया’ अर्थात हमें अपने लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए दूसरों की नकल नहीं करनी चाहिए।


अर्थव्यवस्था : अतीत का रुख, भविष्य का रास्ता

भारत देश के रूप में महज 70 साल पुराना लोकतंत्र अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर है, हालांकि दूसरों से बेहतर लेकिन अपने प्रतिस्पर्धियों से बहुत पीछे है।
हमने अपनी दूसरी पंचवर्षीय योजना में समाजवादी अर्थव्यवस्था के रूप में शुरु आत की और अब पूंजीवादी राज्य बनने की कगार पर हैं। खैर, अनुकूलनशीलता अस्तित्व की कुंजी है और जीवित रहने के लिए हमें 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के नेतृत्व में अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना पड़ा। यह एक विकल्प नहीं था; समय की जरूरत थी। हम वैीकरण का आनंद लेने लगे। वे उत्पाद जो जनसमूह की पहुंच से बाहर थे, वो अब नुक्कड़ के स्टोरों पर मिलने लगे। हर विचारधारा का जीवनकाल होता है। सोवियत संघ के उदाहरण से उपयुक्त क्या हो सकता है। एक बार दुनिया की शक्ति धुरी, एक दीवार के साथ गिर गई। जब आप कुछ ऐसा करने की कोशिश करते हैं, जो स्वाभाविक नहीं है, तो यह अंतत: टूट जाता है। हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। विश्व अर्थव्यवस्था के संदर्भ में आर्थिक इतिहासकार एंगस मैडिसन के अनुसार, भारतीय उपमहाद्वीप 1 से 17वीं शताब्दी तक दुनिया का सबसे उत्पादक क्षेत्र था। दुनिया में औद्योगिक क्रांति के बाद भी हम कुटीर उद्योगों के साथ कृषि प्रधान समाज थे, फिर भी विश्व स्तर पर जीडीपी का सबसे बड़ा योगदानकर्ता थे। हम 18वीं शताब्दी में विश्व अर्थव्यवस्था में सकल घरेलू उत्पाद का 27% योगदान करते थे। वास्तव में, 18वीं शताब्दी में बंगाल और मैसूर में वास्तविक अनाज मजदूरी ब्रिटेन से अधिक थी क्योंकि हमारी उच्च कृषि उत्पादकता थी।

हमने कृषि और कुटीर उद्योग से अपने तरीके जुदा कर लिए हैं। निजीकरण, भारी उद्योग और वैीकरण की  दौड़ में आंख मूंद कर शामिल हो गए। हमने कुटीर उद्योग पर केंद्रित करना बंद कर दिया। यही हाल कृषि क्षेत्र का भी हुआ। यह क्षेत्र मतदाताओं के लिए आनंददायक विषय तक सीमित हो कर रह गया है। दोनों उद्योगों के सामने समस्याएं हैं : बिचौलिए, जो निर्माता को कम कीमत देते हैं, लेकिन खरीदारों से भारी राशि लेते हैं। हथकरघा बुनकरों को बिजली करघे उद्योगों से भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है।
यदि अमूल ेत क्रांति ला सकता है, तो सिर्फ  कल्पना करें कि अन्य संस्थाएं कितना योगदान दे सकती हैं, चाहे कुटीर उद्योग हो या कृषि क्षेत्र, बिचौलिए को काटकर, उन्हें कौशल प्रदान करके और विपणन का ध्यान रखकर। इसके अलावा, दुनिया ने डिजिटल युग में प्रवेश किया है; हमें इन क्षेत्रों को डिजिटल रूप से भी जोड़ने की जरूरत है। स्टार्टअप छोटी कंपनियां हैं, लेकिन वे हमारे उद्योगों की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। अलीबाबा पर नजर डालते हैं कि कैसे एक स्टार्टअप ने अकेले चीन में छोटे और मध्यम उद्यमों के लिए व्यापार परिदृश्य को बदल दिया। यह न केवल मरने वाले उद्योगों को पुनर्जीवित करने में मदद करेगा, बल्कि बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा करेगा जो अंतत: हमारी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देगा।
भारत में कुटीर और हस्तकला उद्योग के 2000 से अधिक समूह केंद्र हैं, जो पारंपरिक और कौशल आधारित हैं, जैसे कपड़ा डिजाइनिंग, चमड़ा, हस्तशिल्प, पीतल, मिट्टी और लकड़ी। लेकिन, इनमें शामिल ज्यादातर लोगों के रहने की स्थिति खराब है। प्रत्यक्ष बाजार के लिए दुर्गमता उन्हें शोषण का शिकार बनाती है। भारत अपने विशाल अप्रयुक्त संभावित बाजार के लिए विकसित राष्ट्रों द्वारा आकषर्ण और लाड़-प्यार का केंद्र है।  
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अभियान शुरू किए हैं, जो हमारे उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए महान पहल हैं। यह पहल उद्योगों को नया आयाम प्रदान करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। स्वदेशी उत्पाद भारतीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देंगे। भारतीय संस्कृति में कहा जाता है कि अपने से उम्र में बड़े की बात माननी चाहिए। इसीलिए हमें अपने पूर्वजों की ओर रु ख करना चाहिए। मेरी राय में सरकार को अमूल और अलीबाबा जैसे व्यापार के मंच के आधार पर न केवल इस तरह की पहल, बल्कि एजेंसियों और नियामक निकायों को भी पेश करने की आवश्यकता है। तभी हम सही मायने में आत्मनिर्भर हो सकते हैं।

रजत प्रखर


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