सामयिक : फ्रांस का आंतरिक मामला है यह

Last Updated 05 Nov 2020 12:42:30 AM IST

फ्रांस अभी लहूलुहान है। असीम शांति और प्यार के प्रतीक नोटड्रम चर्च के सामने की सड़क पर गिरा खून अभी भी ताजा है।


सामयिक : फ्रांस का आंतरिक मामला है यह

वहां जिसकी गर्दन रेत दी गई और जिन मासूम लोगों की हत्या कर दी गई, उनके अपराधियों के गैंग को दबोचने में लगी फ्रांस की सरकार और प्रशासन को हमारा नैतिक समर्थन चाहिए। खुशी और संतोष की बात है कि भारत में भी और दुनिया भर में भी लोगों ने ऐसा समर्थन जाहिर किया है। कोई भी मुल्क जब अपने यहां की हिंसक वारदात को संभालने व समेटने में लगा हो तब उसका मौन-मुखर समर्थन सभ्य राजनीतिक व्यवहार है। यह जरूर है कि इसे बारीकी से जांचने की जरूरत होती है कि कौन-सा मामला आंतरिक है, संकीर्ण राज्यवाद द्वारा बदला लेने की हिंसक कार्रवाई नहीं है और नागरिकों की न्यायपूर्ण अभिव्यक्ति का गला घोंटने की असभ्यता नहीं है। फ्रांस की अभी की कार्रवाई इसमें से किसी भी आरोप से जुड़ती नहीं है।

जिस फ्रांसीसी शिक्षक ने समाज विज्ञान की अपनी कक्षा में मुहम्मद साहब का वह कार्टून दिखला कर अपने विद्यार्थियों को अपना कोई मुद्दा समझाने की कोशिश की वह इतना अहमक तो नहीं ही रहा होगा कि जिसे यह भी नहीं मालूम होगा कि यह कार्टून फ्रांस में भी और दुनिया भर में कितने बवाल का कारण बन चुका है। फिर भी उसे जरूरी लगा कि अपना विषय पढ़ाने और स्पष्ट करने के लिए उसे इस कार्टून की जरूरत है, तो इसका सीधा मतलब है कि फ्रांस में उस कार्टून पर कोई बंदिश नहीं लगी हुई है। मतलब उसने फ्रांस के किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया। उसने जो किया वह विद्या की उस जरूरत को पूरा करने के लिए किया जो उसे जरूरी मालूम दे रही थी। उसका गला, उसके ही एक मुसलमान शरणार्थी विद्यार्थी ने खुलेआम, बीच सड़क पर काट दिया और वहां मौजूद लोगों ने उसे ‘अल्लाह-हो-अकबर’ का उद्घोष करते सुना। ऐसा ही नोटड्रम चर्च के सामने की वारदात के वक्त भी हुआ।
फ्रांस का कानून इसे अपराध मानता है और वह उसे इसकी कानून-सम्मत सजा दे तो इस पर हमें या किसी दूसरे को कैसे आपत्ति हो सकती है? इसलिए सवाल मुहम्मद साहब का कार्टून बनाने और दिखाने का नहीं है।
फ्रांस में किसी भी देवी-देवता, पैगंबर-नबी, अवतार-गुरु का कार्टून बनाने पर प्रतिबंध नहीं है। वहां कार्टूनों की प्रतिष्ठित पत्रिकाएं चलती हैं, जो सबकी, सभी तरह की संकीर्णताओं को आड़े हाथ लेती हैं। फ्रांसीसी समाज की अपनी कुरीतियों और मूढ़ताओं पर, ईसाइयों के अहमकाना रवैये पर सबसे अधिक कार्टून बनते और छपते हैं। अब तक कभी भी उन पर आरोप नहीं लगा कि वे कार्टून किसी के पक्षधर हैं, या किसी के खिलाफ! यह परंपरा और यह कानूनी छूट कि आप किसी का भी कार्टून बना सकते हैं, फ्रांस का निजी मामला है। हम उससे असहमत हो सकते हैं और उस असहमति को जाहिर भी कर सकते हैं। लेकिन उसके खिलाफ जुलूस निकालना, फ्रांसीसी राजदूतों की हत्या के लिए उकसाना, राष्ट्रपति मैक्रों की तस्वीर को पांवों तले कुचलना, फ्रांसीसी सामानों के बहिष्कार का आह्वान करना -और यह सब सिर्फ  इसलिए करना कि आप मुसलमान हैं, दुनिया भर के धार्मिंक अल्पसंख्यकों की जिंदगी को शक के दायरे में लाना और खतरे में डालना है। संकीर्ण सांप्रदायिकता का सबसे पतनशील उदाहरण है। फ्रांस के आंतरिक मामले में शर्मनाक दखलंदाजी है और अपने देश की संवैधानिक उदारता का सबसे बेजा इस्तेमाल है।
यह और भी शर्मनाक और कायरता भरा काम है कि कुछ लोगों, जो मुसलमान हैं, ने इस कत्ल के समर्थन में बयान जारी किए। वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं, साहित्य-संस्कृति से जुड़े हैं, राजनीतिज्ञ हैं, यह सब भुला दिया गया। याद रखा गया तो सिर्फ  इतना कि वे मुसलमान हैं। फ्रांस में मुसलमानों को उनकी गैर-कानूनी हरकतों की सजा मिले तो भारत का मुसलमान सड़कों पर उतर कर ‘अल्लाह-हो-अकबर’ का घोष करे, और खून को जायज ठहराए और दूसरों का खून करने का आह्वान करे, तो प्रशासन का क्या दायित्व है? भारत के प्रशासन का ही नहीं, दुनिया भर के प्रशासन का दायित्व है कि पूरी सख्ती से इसे दबाया जाए। इसे जड़ से ही कुचलने की जरूरत है। यह फ्रांस के आंतरिक मामले का सम्मान भी होगा और अपने लोगों को यह संदेश भी कि सड़कों पर कैसी भी एनार्की सह्य नहीं होगी। सड़कों पर उतरने और लोगों को उतारने का संवैधानिक दायित्व है कि वह किसी दूसरे के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप न हो, किसी दूसरे के प्रति हिंसा को उकसाता न हो, धार्मिंक संकीर्णता को बढ़ावा न देता हो और धार्मिंक ध्रवीकरण को प्रेरित न करता हो। ऐसा न हो तो सड़कों को सबकी आवाजाही के लिए खुला रखना, सड़कों से चलते हुए कहीं भी पहुंच सकने की आजादी बरकरार रखना और सड़कों पर लोगों की आवाज को बेरोक-टोक उठने देना सरकार व प्रशासन का दायित्व है।
इस पर हमारे यहां भी और दुनिया में सभी जगहों पर नाजायज बंदिशें लगी हैं। लेकिन इन नाजायज बंदिशों का विरोध नाजायज जुलूसों द्वारा किया जा सकता है क्या? बल्कि नाजायज जुलूस इन नाजायज बंदिशों का औचित्य ही प्रमाणित करते हैं। हमारी सड़कों पर या संसार की किसी भी सड़क पर फ्रांस के खिलाफ निकला हर जुलूस ऐसा ही नाजायज जुलूस है, जिसका जायज प्रतिरोध सरकार और समाज की जिम्मेवारी है।

कुमार प्रशांत


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