मुद्दा : आत्मनिर्भरता और स्वदेशी

Last Updated 18 Jun 2020 12:30:26 AM IST

हाल के समय में आत्मनिर्भरता पर चर्चा फिर से आरंभ हुई है। विश्व के तेजी से बदलते दौर में आत्मनिर्भरता का महत्त्व बढ़ गया है।


मुद्दा : आत्मनिर्भरता और स्वदेशी

आत्मनिर्भरता के साथ स्वदेशी का सिद्धान्त नजदीकी तौर पर जुड़ा है। मौजूदा परिस्थिति से जूझने के लिए स्वदेशी की भावना और स्वदेशी आंदोलन के संदेश का विशेष महत्त्व है। वर्तमान समय और परिस्थितियों के अनुकूल ही हमें स्वदेशी की मूल भावना को ग्रहण करना पड़ेगा। वर्तमान संदर्भ में स्वदेशी की भावना का सबसे अनुकूल अर्थ यह है कि जहां तक जीवन की बुनियादी जरूरतों का सवाल है, उसमें जहां तक संभव हो हम स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करें।
यह सिद्धान्त राष्ट्रीय स्तर पर भी लागू होता है और छोटे ग्रामीण समुदायों पर भी। राष्ट्रीय स्तर पर हमें खाद्यान्न, अन्य आवश्यक खाद्य पदाथरे, आवश्यक दवाओं, सबसे जरूरी पूंजी वस्तुओं व मशीनों, अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए जरूरी शस्त्रों आदि वस्तुओं में आत्मनिर्भरता प्राप्त करनी चाहिए। खनिजों में आत्मनिर्भरता प्राप्त नहीं हो सकती, किन्तु इतना तो हम कर ही सकते हैं कि जिन खनिजों की हमारे यहां कमी है, उनके उपयोग को यथासंभव सीमित रखें। दूसरे शब्दों में विदेशी व्यापार में हम हिस्सा जरूर लेते रहें पर बुनियादी जरूरतों के मामले में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लक्ष्य को प्राथमिकता दें। यदि हम बुनियादी जरूरतों में आत्मनिर्भर हैं तो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने न्यायोचित हकों के लिए असरदार ढंग से संघर्ष कर सकते हैं, हमें दूसरों के दबाव में घुटने टेकने की आवश्यकता नहीं है। इसके साथ ही विदेशी कर्ज के बोझ को कम करने के असरदार उपाय भी हमें अपनाने पड़ेंगे।

स्वदेशी का दूसरा रूप गांव, समुदाय या मुहल्ले के स्तर का है। वास्तव में जब हर गांव व मुहल्ले में स्वदेशी का जोर हो तभी राष्ट्रीय स्तर पर स्वदेशी सफल हो सकता है। गांव-समुदाय में, उनसे जुड़े कस्बों और छोटे शहरों में इस तरह के प्रयास होने चाहिए कि जहां तक संभव हो, बुनियादी जरूरतों की पूर्ति स्थानीय उत्पादों से ही हो। इससे आत्मनिर्भरता का संदेश दूर-दूर के गांवों में पहुंचेगा और अनेक ऐसी दस्तकारियों व अन्य परंपरागत रोजगारों को नया जीवन मिल सकेगा जो उजड़ते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, शिक्षित युवाओं को अपनी शिक्षा और नई तकनीकों का प्रयोग करते हुए भी अनेक रोजगार स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध हो सकेंगे। यदि इस तरह के प्रयास हमारे देश में बहुत-सी जगहों पर निंरतरता के साथ हों तो कुछ ही समय में इसका असर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में भी दिखाई देने लगेगा। आयातित वस्तुओं की मांग कम होगी जिससे विदेशी मुद्रा पर बोझ कम होगा। स्थानीय स्तर पर अधिक रोजगार मिलने से बेरोजगारी कम होगी व महानगरों की ओर असहाय स्थिति में पलायन कुछ हद तक रुकेगा। युवा वर्ग को अपनी शिक्षा, कौशल और रुचि के अनुकूल स्वरोजगार मिलने से तकनीकी और उद्यमी क्षेत्र में नई  प्रतिभाओं को आगे आने का मौका पहले की अपेक्षा कहीं अधिक मिलेगा। हमारे उद्योग और प्रबंधन में जड़ता दूर होगी तथा नई प्रतिभाओं को पर्याप्त अवसर मिलते रहने से इनका स्तर ऊपर उठेगा।
स्वदेशी के क्षेत्र में रचनात्मक कार्य की बहुत संभावनाएं हैं। किसी भी मुहल्ले या बस्ती से यह कार्य आरंभ हो सकता है, बस लगन की जरूरत है। केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों या विदेशी कर्ज के विरुद्ध नारेबाजी करने से लोगों को राहत नहीं मिलेगी। जैसे-जैसे आर्थिक संकट विकट हो रहा है, वैसे-वैसे जनसाधारण को स्वयं भी राहत देने वाले विकल्पों की तलाश है। इस स्थिति में यदि उत्साही युवा और अनुभवी बुजुर्ग स्वतंत्रता के संघर्ष के समय के आदशरे से प्रेरित होकर स्वदेशी के क्षेत्र में रचनात्मक कार्य करें तो उन्हें निश्चय ही अच्छी सफलता मिल सकती है। शुरू में रास्ता कुछ टेढ़ा जरूर लगेगा पर कुछ जगहों पर सार्थक कार्य होने के बाद अन्य स्थानों पर अधिक सहूलियत हो जाएगी। स्वदेशी के साथ ही सांस्कृतिक पुनर्जागरण का कार्य जरूरी है, जिससे तेजी से फैल रही अपसंस्कृति का सामना भी हो सकेगा।

भारत डोगरा


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