श्रम कानून : तो कोविड-19 ने पूरी दुनिया को संकट में डाल स्वाभाविक लगता है विरोध
यूं दिया है और समाज का प्रत्येक तबका इस संकट की जद में है, लेकिन भारतीय मजदूरों के लिए तो यह किसी वज्रपात से कम नहीं है।
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लाखों मजदूर अपने घरों से दूर दाने-दाने को मजबूर हैं और मजबूर हैं तपती दुपहरी में भूखे पेट पैदल चलकर अपने घरों को लौटने के लिए। आलम यह है कि न तो उन्हें भरपेट भोजन मुहैया कराया जा रहा है और न कहीं टिकने दिया जा रहा है। देश को संवारने वाले ये मजदूर आज किसी अपराधी की भांति छुप-छुपाकर अपने घर पहुंचने की जुगत में लगे हैं। सहायता का सरकारी दावा किसी कोने में छिपा बैठा है। एक ऐसे समय में, जब लॉकडाउन के चलते उनके सामने जीने की समस्या आ खड़ी हुई है, अनिश्चित भविष्य की काली छाया उन्हें भयभीत कर रही है और उन्हें विशेष सुविधा दिए जाने की जरूरत है, तब देश की अनेक राज्य सरकारें उनसे उनकी कानूनी सुरक्षा भी छीनने में जुट गई हैं। पिछले सप्ताह अनेक राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया है। यह अलग बात है कि राज्य सरकारों के इस कृत्य को श्रम सुधार की संज्ञा से विभूषित किया जा रहा है।
श्रम कानूनों में सबसे महत्त्वपूर्ण बदलाव की घोषणा भाजपा-शासित तीन राज्यों-उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात-ने की है। लेकिन अन्य दलों की सरकार वाले राज्य भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। कांग्रेस-शासित राजस्थान और पंजाब, बीजू जनता दल-शासित ओडिसा के अलावा कर्नाटक, महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश की सरकारें भी श्रम कानूनों को धता बताने को तत्पर दिखाई दे रही हैं। बहरहाल, सबसे आततायी कदम उठाते हुए उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने लगभग सभी श्रम कानूनों को अगले तीन वर्षो के लिए निलंबित कर दिया है। दूसरे शब्दों में मजदूरों को प्राप्त हर तरह के कानूनी संरक्षण को समाप्त कर दिया गया है। अब वहां मजदूरों को आठ घंटे के बदले बारह घंटे काम करना अनिवार्य होगा और कानूनन मिलने वाली हर सुविधा का परित्याग करना होगा। मध्य प्रदेश और गुजरात की सरकारों ने भी ऐसा ही किया है। प्रत्यक्ष रूप से श्रम कानूनों में ये बदलाव संबंधित राज्यों में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए किए जा रहे हैं लेकिन वास्तव में इनका उद्देश्य मजदूरों को अधिकारविहीन करना है ताकि उनका ज्यादा से ज्यादा शोषण किया जा सके। मालूम हो कि अब तक श्रम कानून ही उन्हें शोषण से बचाते आ रहे थे। वैसे उदारीकरण और वैीकरण की प्रक्रिया में मजदूरों को संरक्षण देने वाले अनेक श्रम कानूनों को तो पहले ही शिथिल किया जा चुका है। अब बचे-खुचे संरक्षण कानूनों को भी दफनाने की साजिश शुरू हो गई है।
यहां एक महत्त्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या राज्य सरकारों द्वारा श्रम कानूनों को इस तरीके से एक ही झटके में समाप्त करना उनके अधिकार क्षेत्र में है? कतई नहीं, क्योंकि एक तो श्रम समवर्ती सूची का हिस्सा है और अनेक कानून ऐसे हैं, जिन्हें केंद्र सरकार ने बनाया है और किसी भी राज्य सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह इन्हें एक ही झटके में निरस्त कर दे। इसके अलावा, हमारा देश अनेक अंतरराष्ट्रीय श्रम संधियों एवं परंपराओं से बंधा हुआ है, जिनका निर्वहन करने के लिए वह बाध्य है। कोई राज्य इन संधियों से जुड़ी जिम्मेदारियों को यूं अनदेखा नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, भारत अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का हस्ताक्षरी भी है। वह अपनी इच्छा या अनिच्छा से उसके प्रावधानों को निरस्त या अप्रभावी नहीं बना सकता वशर्ते वह उसकी आपत्तियों को खारिज करने की कूवत रखता हो। अगर भारत ऐसा करता है, तो उसे अंतरराष्ट्रीय कोप का भाजन भी बनना पड़ सकता है। यहां इस बात का जिक्र करना भी आवश्यक है कि अनेक वैश्विक कंपनियां नैतिक श्रम व्यवहार को तरजीह देती हैं और यदि भारत श्रम कानूनों में बदलाव करके उन्हें अनैतिक स्तर पर ले जाता है, तो उसे इसका खमियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। मालूम हो कि विगत में अनेक देशों ने भारतीय कालीनों का आयात करने से इस आधार पर मना कर दिया था कि कालीन उद्योग में कम उम्र के बच्चों से काम कराया जाता है।
अब हमारी राज्य सरकारें न्यूनतम मजदूरी कानून को भगवान भरोसे छोड़ने के साथ-साथ फैक्ट्री कानून को भी समाप्त करने जा रही हैं, जबकि इसका उद्देश्य मजदूरों को उद्योग परिसर में सुरक्षा उपायों तथा उनके स्वास्थ्य और कल्याण को सुनिश्चित करना है। इसी तरह शॉप एंड कमर्शियल एस्टैब्लिशमेंट कानून मजदूरों के काम के घंटे, भुगतान, ओवरटाइम, साप्ताहिक एवं अन्य छुट्टियों के अलावा वार्षिक छुट्टी तथा बच्चों और महिलाओं के रोजगार का नियमन करता है। इन कानूनों को निलंबित करने का मतलब होगा कि अब मजदूर कार्यस्थल पर अपनी सुरक्षा और स्वास्थ्य को सुनिश्चित किए जाने की मांग नहीं कर सकते यानी उन्हें खतरनाक स्थितियों में भी काम करना होगा। सच तो यह है कि वे किसी भी तरह की सुरक्षा और सुविधा की मांग नहीं कर पाएंगे। यहां तक कि न्यूनतम मजदूरी की मांग भी वे नहीं कर पाएंगे। जाहिर है कि जिसे श्रम सुधार बताया जा रहा है, वास्तव में उसके जरिए मजदूरों के भीषण शोषण की जमीन तैयार की जा रही है। सुधार तो बेहतरी के लिए होता है, लेकिन यह कैसा श्रम सुधार है, जो मजदूरों के लिए काल बनने जा रहा है। श्रम कानूनों को निलंबित कर सरकार मजदूरों को गुलाम बनाने की साजिश रच रही है। इसलिए राज्य सरकारों के इस कदम का विरोध तो स्वाभाविक है ही, आवश्यक भी प्रतीत होता है।
कोरोना से जंग के संदर्भ में सरकार ने जो गाइडलाइन्स तैयार की हैं, उनमें सोशल डिस्टेंसिंग के अलावा साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देने की जरूरत बताई गई है। बताया जाता है कि साबुन से कई बार हाथ धोना चाहिए, लेकिन यदि कोई मालिक अपने मजदूरों को साबुन और स्वच्छ पानी मुहैया नहीं कराता है, तो उसकी शिकायत नहीं की जा सकेगी क्योंकि कानूनी रूप से उन्हें यह सुविधा देने के लिए वे बाध्य नहीं होंगे। ऐसे में तो यही लगता है कि कोरोना के बहाने सरकारें मजदूरों के जीवन पर ही ग्रहण लगाने पर आमादा हैं। विडंबना देखिए कि योगी सरकार ने समान मजदूरी के प्रावधान को भी निलंबित कर दिया है। आखिर, इसका क्या औचित्य है? जिस गरिमा के अधिकार को संविधान में जीने के अधिकार से जोड़ा गया है और जिसे आपातकाल में भी स्थगित नहीं किया जा सकता, उस अधिकार को भी योगी सरकार ने निलंबित कर दिया है।
यह वास्तव में शोक की घड़ी है, क्योंकि सौ-डेढ़-सौ सालों के संघर्ष से मजदूरों को जो अधिकार प्राप्त हुए थे, उन्हें वर्तमान सत्ता ने एक झटके में समाप्त कर डाला है। आज जब दुनिया के देश अपने मजदूरों के लिए अनेक राहत प्रदान कर रहे हैं, वहीं हमारी राज्य सरकारें उनके जख्मों पर नमक छिड़क रही हैं।
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